लोगों के मिजाज़ पर निर्भर करेगी राजनीतिक रणनीति की सफलता

भाजपा के समर्थकों और मीडिया मंचों पर उनके पैरोकारों को सौ फीसदी य़कीन हो चुका है कि पुलवामा और बालाकोट के बाद बना उग्र-राष्ट्रवादी माहौल नरेंद्र मोदी को पूर्ण बहुमत दिलवा कर रहेगा। वे प्रसन्न और तरंगित हैं। उनसे बात कीजिए तो वे कभी ज़ोर से और कभी फुसफुसा कर कहेंगे कि ज़रा गांवों में जाइए, वहां आपको दिखेगा कि दलित और ओबीसी जातियां बस एक ही बात कह रही हैं कि अरे, मोदी जी ने पाकिस्तान में घुस कर मारा है। कमज़ोर जातियों और समुदायों की राजनीतिक निष्ठाओं के बारे में की गई यह दावेदारी बताती है कि भाजपा को ज़्यादा चिंता इन्हीं की थी। ऊंची जातियों के बारे में तो वह पहले से कमोबेश निश्चिंत थी कि उनके वोट अंतत: कमल पर ही पड़ेंगे। इस आश्वस्ति में जो कुछ कमी थी उसकी पूर्ति इन समर्थकों के अनुसार सामान्य श्रेणी में आने वालों को दिये गये दस ़फीसदी आरक्षण ने कर दी थी। दरअसल, देखा जाए तो पुलवामा से पहले भाजपा की समग्र चुनावी रणनीति यह सुनिश्चित करने की रही है कि 2014 के चुनावों में मिले वोटों को छिटकने से कैसे रोका जाए। दस फीसदी आरक्षण, किसानों को दो हज़ार प्रति वर्ष देने और पांच लाख की आमदनी तक आयकर म़ाफ करने के ़कदम इसी ‘होल्डिंग ऑपरेशन’ के सबूत समझे जाने चाहिए। अब भाजपा की खुशकिस्मती से कश्मीर की घटनाओं ने उसे देशभक्ति और राष्ट्रवाद के घोड़े पर चढ़ने का मौका और दे दिया है। यानी, अब वह विश्वास से कह सकती है कि एक-एक वोट जो उसे 2014 में मिला था, गारंटी से एक बार फिर उसी के खाते में जाएगा। अगर अंग्रेज़ी के एक कथन का हिंदी में अनुवाद किया जाए तो कहा जा सकता है कि भाजपा अपने विचार से एक ‘पऱफेक्ट इलेक्शन’ लड़ रही है जिसमें वोटों की लीकेज की हर एक गुंज़ाइश बंद कर दी गई है। ये सब बातें तर्कसंगत लग रही हैं। अपने विराट संसाधनों और चुनाव जीतने की प्रबल इच्छा-शक्ति के कारण एक बारगी यह विश्वास करने का मन करता है कि भाजपा अंतत: अगले पांच साल के लिए सत्ता पर अपना कब्ज़ा सुनिश्चित कर ही लेगी। और तो और, देश की सबसे प्रबल पार्टी ने जिस तरह से अपनी मूंछ नीची करके और लचीलेपन का परिचय देते हुए बेहद नाराज़ सहयोगी दलों को संतुष्ट करते हुए महाराष्ट्र, बिहार और असम में चुनावी गठजोड़ किए हैं, उनकी रोशनी में देखने से यह बात और भी जायज़ लगने लगती है। यहां भाजपा की रणनीति के लिहाज़ से एक बात और रेखांकित करनी होगी। पुलवामा और बालाकोट के ज़रिये नरेंद्र मोदी अपनी सरकार के खिलाफ स्वाभाविक रूप से पांच साल में जमा हुई एंटी-इनकम्बेंसी को खिसका कर विपक्ष के खिलाफ  कर देने की राजनीतिक प्रौद्योगिकी पर अमल करने की कोशिश भी कर रहे हैं। उनके प्रवक्तागण रोज़-ब-रोज़ टीवी पर शेर-ओ-शायरी करते हुए दर्शकों से कह रहे हैं कि ‘चौकन्ने रहिए घर में छिपे हुए गद्दारों से’। ये गद्दार और कोई नहीं, बल्कि भाजपा के विपक्ष में खड़ी हुई शक्तियां हैं जो देश को जब भी कोई पीड़ा होती है, खुशी मनाने लगती हैं। ये अक्सर पाकिस्तान के साथ हमदर्दी रखती हैं, और अब तो चीन की तऱफ भी झुकी हुई दिखाई जा रही हैं। प्रश्न यह है कि इस सब के बावजूद भाजपा में वैसा आत्मविश्वास क्यों नहीं दिख रहा है जैसा 2014 में था? यही है वह सवाल जो अपने मुंह मियां मिट्ठू बनने के बाद अगर फुरसत मिले तो भाजपा को अपने आप से पूछना चाहिए। इसमें किसी को शक नहीं हो सकता कि भाजपा और मोदी का पलड़ा भारी है। यह भी कहा जा सकता है कि यह पलड़ा पुलवामा से पहले भी थोड़ा भारी ही था। लेकिन यह उतना भारी क्यों नहीं है जितना 2014 में भारी था? इस प्रश्न का उत्तर न खोज पाने के कारण भाजपा की बेचैनी अब धीरे-धीरे एक तरह की राजनीतिक चिढ़ में तबदील होती जा रही है, क्योंकि पार्टी को ़खुद नंगी आंखों से दिखाई पड़ रहा है कि पांच साल पहले जैसा माहौल नहीं बन पा रहा है। चुनाव से ठीक पहले अक्सर होने वाले दलबदल के पैटर्न को देखने से यह स़ाफ हो जाता है।  2014 के चुनाव से पहले बिना किसी खास अपवाद के जितने भी दल बदल हुए थे, वे दूसरी पार्टियों से भाजपा में जाने के थे। इस बार भी दलबदल हो रहे हैं लेकिन इस बार भाजपा से भी हो रहे हैं। इन दल-बदलों के कारण विविध होते हैं, लेकिन इनसे एक बात का अंदाज़ा ज़रूर लगता है कि दलबदल करने वालों की निगाह में कौन-सी पार्टी जिताऊ है और कौन-सी नहीं। अगर वर्तमान सांसद का टिकट कट रहा है- तो उसके सामने दो विकल्प होते हैं। वह चाहे तो मन मार कर पार्टी में रह सकता है, और चाहे तो किसी दूसरे दल में जाने के लिए टिकट पाने की सौदेबाज़ी कर सकता है। 2014 में ये दोनों विकल्प खुले हुए नहीं थे। जिताने की गारंटी केवल भाजपा के पास थी। ब़ाकी पार्टियां टिकट ही दे सकती थीं, पर वहां जीतना संदिग्ध था। इस बार ऐसा नहीं है। भाजपा के पास त़ाकत है और चुनाव के बाद सबसे बड़े दल के रूप में उभरने की गारंटी है। लेकिन दूसरी पार्टियों के पास राज्य आधारित गठजोड़ हैं (जो भाजपा के पास भी हैं, लेकिन पिछली बार भाजपा विरोधी शक्तियों के पास नहीं थे) जो दलबदल की इच्छा रखने वाले को अपनी तऱफ आकर्षित कर सकते हैं और कर रहे हैं। भाजपा को एक और चिंता है जो पुलवामा के बाद की गई रायशुमारियों के कारण कुछ और बढ़ गई है। ये सर्वेक्षण बताते हैं कि पाकिस्तान विरोधी राष्ट्रवाद के घोड़े पर सवार होने के कारण मोदी की लोकप्रियता में खासी वृद्धि हुई है, लेकिन भाजपा को मिलने वाले वोटों की सम्भावना में कोई वृद्धि नहीं हुई है। अभी परनाला वहीं बह रहा है जहां पुलवामा से पहले बह रहा था। यानी अभी भी भाजपा पूर्ण बहुमत की रेखा पर पहुंचने से पहले हांफती-सी लग रही है। कोई अस्सी से पचासी सीटें कम होती दिख रही हैं। पूरे राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठजोड़ को मिला कर पार्टी मुश्किल से बहुमत के करीब पहुंचती हुई दिख रही है। इसका मतलब क्या है? इसका अर्थ यह है कि नेता की व्यक्तिगत लोकप्रियता सीधे-सीधे वोटों में तब्दील नहीं होती। 2004 में अटल बिहारी वाजपेयी की लोकप्रियता की रेटिंग साठ फीसदी के आसपास थी। उनके म़ुकाबले पूरे देश में कोई और नेता खड़ा नहीं हो सकता था। लेकिन उन्हें तीस फीसदी से कम वोट मिले। राष्ट्रवादी या हिंदुत्ववादी जोश अतीत में भी भाजपा के वोटों का प्रबल ध्रुवीकरण कराता रहा है, लेकिन इसके बावजूद विपक्ष के वोटों के ध्रुवीकरण के कारण भाजपा सीटें कम पाती रही है। 1993 में उत्तर प्रदेश के चुनावों में सपा-बसपा गठजोड़ के म़ुकाबले 1992 में बाबरी ध्वंस करके मनाए गए ‘हिंदू विजय दिवस’ का झंडा बुलंद नहीं रह पाया था। इसी तरह से कारगिल के बाद अटल बिहारी के नेतृत्व में भाजपा और राजग मिल कर केवल तीन फीसदी वोट ही बढ़ा पाए थे। लुब्बोलुवाब यह है कि 2019 किसी भी तरीके से 2014 नहीं बन पा रहा है। बावजूद इसके कि हर एक सम्भव कार्ड खेल दिया गया है, और हर छेद बंद कर दिया गया है। ज़ाहिर है कि राजनीति रणनीतियों और प्रौद्योगिकियों की एक सीमा होती है। आखिरकार हर राजनीतिक हथकंडे की कामयाबी जनता के मिजाज़ पर ही निर्भर करती है।