ज़िंदा मौतों की ताबीर


मरने से पहले मौत का सन्देश मिल जाये, तो किसी को कैसा लगता है? अब भला एक दिन तो सबको जाना ही है, लेकिन फिर वही बात कि सामान उम्र भर का पल की खबर नहीं। लोग न्यान्नवे के फेर में पड़े रहे, चलने लगे तो खाली हाथ गये। फिर साहिबों ने फरमाया, ‘मौत का एक दिन मुअय्यन है नींद क्यों रात भर नहीं आती।’
हां साब, सब जाने पहचाने सत्य हैं। कौन नहीं जानता इन्हें? लेकिन अपने देश के बारे में सोचते हैं, तो लगता है ये बातें हैं तो सच। लेकिन यहां सब उल्टा घटता है। मौत का सन्देश पहले आता है। टूटी हुई सड़कें, उन पर फ्यूज रौशनियां, हिलते हुए फ्लाई ओवर और सड़कों के किनारे जमा होते डम्प। आपस में जन-सेवक नगरपिता बनने के चाहवान रस्साकशी करते रहते हैं। आज़ादी की उम्र बीतती जा रही है, यही सामान इकट्ठा कर पाये अभी तक। इन्हीं के सहारे अपनी गुज़र बसर करते हुए कब आदमी टें बोल जाये, कुछ खबर है? खबर तो इन सड़कों की भी नहीं रहती। महीनों इनका नवीनीकरण होता रहा है। एक बारिश पड़ी वे टें बोल गईं। पहले कहते थे, आदमी की ज़िन्दगी का क्या भरोसा? अब तो इनके पैरों के नीचे चलती सड़क का भी क्या भरोसा? ठेकेदार को भुगतान मिल गया, तो एक सप्ताह में टें बोल गई, नहीं तो सात दिन में। क्यों साब, अब जब सड़कों को टें बोलना है, तो क्यों इन्हें बनाने की आदत डालते हो? बारिश पड़ती है, ये गड्ढा हो जाती हैं। सड़कों पर चलने की जगह लोगों को गड्ढों में रेंगने का प्रशिक्षण चाहिए। सड़क मुरम्मत की धारणा ही खत्म कर दो। इसकी जगह ये पैसा दान पुण्य में लगाओ। सात जन्म तर जाएंगे।
इस जन्म की खबर यह लोग ले लेंगे, अंधेरी सड़कें बनाने वाले लोग। अधूरी बनी थी सड़क और बनने से पहले ही टूट गई। उधर जीवन भी तो क्षण भंगुर बना दिया। पुल पर चल रहे थे, एक दम सिर पर आ गिरा। लोग कहते हैं शुक्र समझिये आज सड़क की लाइट बिगड़ी हुई नहीं थी। रैड लाइट थी। लोग इसे काट भी नहीं रहे थे। नहीं तो वाहनों की कतार पर पुल गिर जाता तो बहुतों का बोलो राम हो जाता। लीजिये, साहब यहां पल की खबर नहीं सिद्ध हो गया न। पौन सदी बीत गई, अंधेरा छूटे, आज़ादी के उजालों में अपना आंगन भरे, लेकिन किसी ने पल भर तो हमारी खबर न ली। न सरकार ने, न महीना उगाहने वाले अधिकारियों ने, न नेताओं और न उनके भाई भतीजों ने। खबर ली तो बस नित्य नये नारों ने, हर रोज़ मंचों से बरसते जुमलों और जवाबी जुमलों ने। मौत का एक दिन तय था, लेकिन मौत के व्यापारी हर रोज लोगों से मौत बांटने का व्यापार क्यों करते हैं?
सपने टूटते रहे। नारों की उसर धरती पर न फूल उगे, न कैक्टस। उगे तो नशा माफिया द्वारा फैलाये गये अंधेरे, जिसने उजालों भरा प्रभात मुअत्तिल कर दिया। साथ ही एक नया जीवन जीने की आस भी निर्वासित हो गई। अब ऐसे में उम्र भर का सामान क्या इकट्ठे करें हमें? स्वप्न जीवी भाषण तो कोई सामान नहीं होते? चचा गालिब जब रुखसत हुए,तो चंद परी चेहरा बुतों की तस्वीरें और चंद हसीनों के खतून छोड़ गये थे। अब एक मामूली आदमी के मरने के बाद क्या मिलेगा। रोटी, कपड़ा और मकान मय्यसर होने के वायदे। वह भीचार साल के बाद। बीच के इन बरसों में वह क्षुधाशमन कैसे करे? योग की ताकतों का पुनर्जागरण कर लें, तब भी उपवास अन्तहीन नहीं हो सकता।
हां, सस्ती आटा-दाल की दुकानों के बाहर लगी कतारें अंतहीन हो सकती हैं। जब दुकानें खुलती नहीं, बिकने के लिए वहां अनाज नहीं आता तो बाहर खड़ी कतारें अन्तहीन ही लगेंगी। बिल्कुल वैसे ही जैसे रोज़गार दफ्तरों के बाहर लगी कतारें इतनी निरर्थक हो गई, कि मांग होने लगी, क्यों न इन दफ्तरों को भी अलविदा कह दें। इनका विकल्प तलाश तो कर लिया हमने। आजकल रोज़गार मेला लगाते हैं। सरकारी अधिकारी लाला लोगों को लेकर चले आ रहे हैं कि भई नौकरियां बांटनी हैं तो हमारे मेलों में आकर बांट दो। आम के आम तुम्हारे, और गुठलियों के दाम हमारे।
चिंता चिता के समान है। इस चिंता को त्यागो, अपना चित सदविचारों और कपाल भाती में लगाओ। देखो, अब सब आपराधिक छवि वाले लोगों ने भी अपराधकर्म त्याग दिये। चुनाव लड़ना ही उनका प्रिय कर्म हो गया है। बनार्ड शा साब ने कभी फरमाया था कि ‘राजनीति ही शठ पुरुषों का अंतिम स्थल है।’ बस इसी सत्यवचन को सब आपराधिक वृत्ति वाले भद्रजन सिद्ध करने में लगे हैं, तभी पुलिस का रोजनामचा कहता है कि उनके इलाकों में छोटी-मोटी चोरी-चकारी का आपराधिक ग्राफ कम हो गया है।
यहां चुनावी अखाड़े सजे हैं न। महामानव देश सेवा और वंश सेवा का व्रत एक साथ ले रहे हैं। आम आदमी के लिए तो उनकी रैलियों और शोभायात्राओं के रूप में किराये की भीड़ के रूप में जाने की जगह भी नहीं बची। उसकी जगह सोशल मीडिया, इंटरनेट न ले ली। चालीस करोड़ लोग इस देश में स्मार्ट फोन जेब में डाल कर घूम रहे हैं, उनका डैटा बेचने के बाज़ार भी सज गये। अब भीड़ किराये पर लेने की ज़रूरत नहीं रही। इस भीड़ को दूसरे काम दे दो। पकौड़े बेचने के लिए भला ऊंची शिक्षा की क्या ज़रूरत है? तभी तो हमने इसके जैसा फालतू शौक आम लोगों में पैदा ही नहीं होने दिया।