लोकपाल की नियुक्ति की उम्मीद


केन्द्र सरकार की ओर से देश के पहले लोकपाल हेतु सर्वोच्च न्यायालय के एक पूर्व न्यायाधीश पी.सी. घोष का नाम प्रस्तावित किया जाना बेशक एक बहुत अच्छी खबर हो सकता है, तथापि इस निर्णय के समय और परिस्थितियों को देखते हुए इससे कोई अधिक आस लगाये जाने की सम्भावना भी नहीं बनती है। वैसे, इस फैसले को सुनने के लिए देश के करोड़ों लोगों के कान वर्षों से इसी ओर लगे हुए थे। मौजूदा सरकार के पिछले पांच वर्ष के शासनकाल के दौरान भी कई बार यह आस बंधती रही कि लोकपाल की नियुक्ति हेतु शायद कोई बड़ा फैसला हो जाए। प्रमुख सामाजिक कार्यकर्ता अन्ना हज़ारे ने भी इस मुद्दे पर कई बार आन्दोलन का बिगुल बजाया। एक बार उन्होंने लम्बी अवधि का आमरण अनशन भी किया। हाल ही में एक बार फिर उन्होंने लोकपाल की नियुक्ति की मांग हेतु आमरण अनशन करने की हुंकार भरी थी, परन्तु सरकारें जैसे विगत कई दशकों से इस मुद्दे को लेकर समय व्यतीत करते ही चली आ रही हैं। इस मामले को  लेकर सभी राजनीतिक दलों एवं उनकी सरकारों की ओर से एक जैसा रवैया अपनाया जाता रहा है। इसीलिए यह एक अच्छा फैसला होने के बावजूद कोई अधिक आस नहीं जगाता, न ही इस फैसले की घोषणा के बाद जन-साधारण में कोई अधिक उत्साह देखा गया है।
इसके लिए अनेक कारण उत्तरदायी हो सकते हैं। पहला बड़ा कारण तो यही है कि इस नाम की नियुक्ति हेतु अभी तक सरकार की ओर से कोई आधिकारिक घोषणा नहीं हुई है। यदि यह घोषणा हो भी जाती, तो भी मुख्य मुद्दा फिर यह सामने आयेगा कि इस संस्था की रूप-रेखा, इसका आकार और इसकी कार्यप्रणाली एवं कार्य-क्षमता क्या होगी। यह भी कि लोकपाल संस्था हेतु अन्य सदस्यों के नामों के चयन और उसकी प्रक्रिया हेतु भी अभी तक कोई विस्तृत ढांचा तैयार नहीं किया जा सका। इसके अतिरिक्त एक और बड़ी बात यह भी हो सकती है कि जिस समय यह घोषणा हुई है, वह लोकसभा चुनावों के लिए घोषणा की बेला है। चुनावों के बाद केन्द्र में कौन-सी सरकार सत्तारूढ़ होगी, यह अभी भविष्य के गर्भ में होने की बात है। आगामी सरकार यदि पूर्ण बहुमत वाली अथवा भाजपा-निर्देशित नहीं बनती, तो नि:संदेह इस नियुक्ति-घोषणा का भविष्य भी डावांडोल हो जायेगा।  इस संस्था हेतु चयन के मुद्दे पर विवाद इस बात को लेकर भी हो सकता है कि सरकार ने इस पर आम सहमति अथवा बहुमतीय सहमति लेने का भी कोई बड़ा यत्न नहीं किया। सरकार के इस एकपक्षीय फैसले पर कांग्रेस, तृणमूल कांग्रेस अथवा अन्य बड़े दल कैसी प्रतिक्रिया देते हैं, यह भी देखने वाली बात होगी। व्यक्तिगत धरातल पर भी इस चयन घोषणा के विरुद्ध आपत्ति-स्वर मुखर हो सकते हैं। सरकार द्वारा चुनावों से पूर्व एकाएक यह घोषणा किये जाने के पीछे सर्वोच्च अदालत की केन्द्र सरकार को डाली गई फटकार भी हो सकती है। लोकपाल की नियुक्ति हेतु वैसे तो सभी राजनीतिक दलों में सहमति है। सभी दल लोकपाल की नियुक्ति तो चाहते हैं, परन्तु एक तो वे इसका श्रेय स्वयं लेना चाहते हैं, दूसरे वे इस बात पर भी संतोष कर लेना चाहते हैं कि लोकपाल उनकी इच्छा का भी हो। इसी कारण एक सर्व-स्वीकार्य एवं व्यापक स्तर पर जन-हितकारी मुद्दे पर भी निरन्तर देरी होती आ रही है, जिसे लेकर अदालत ने कई बार सरकारों को आड़े हाथों लिया है। वर्तमान सरकार के दौर में भी मामला तभी आगे बढ़ा है, जब इसी वर्ष जनवरी में सर्वोच्च अदालत ने इस मुद्दे पर खुले-बन्दों दखल देते हुए सरकार को अल्टीमेटम भी जारी किया।
हम समझते हैं कि कुछ भी हो, यह एक अच्छा फैसला है। लोकपाल की नियुक्ति से देश में भ्रष्टाचार और न्यायिक धरातल पर बड़े अच्छे एवं सार्थक प्रभाव दृष्टिगोचर हो सकते हैं। अदालतों पर वादों का बोझ कम होगा और जन-साधारण को न्याय मिलने और शीघ्र मिलने की आस बंधेगी।