लोक साहित्य में होली


भारत में लोक संस्कृति और लोक साहित्य की अतुल संपदा है। साल के बारह महीने यहां का हर गांव पर्व-त्यौहारों में डूबा रहता है। भारत की ज़मीन इतनी रस भरी है कि कण-कण में संस्कृति की सुगंध उठती है। हर त्यौहार यहां संस्कृति के रंगों में रंगा होता है और त्यौहार के साथ जुड़े होते हैं गीत-संगीत और साहित्य।
बसंत ऋतु में होली त्यौहार रंग गुलाल के साथ मनाया जाने वाला लोक संस्कृति से जुड़ा त्यौहार है। फाल्गुन के महीने में ही होली पर्व का प्रारम्भ हो जाता है जोकि चैत्र मास तक चलता है। होली के पूर्व के समय मौसम की घटा भी निराली होती है, जिसका वर्णन करते हुए मालवी बोली के कवि डॉ. राजेश रावल ‘सुशील ने’ कहा है-
बिखरई रियो है रंग बासंती, 
खेलीरिया फाल्गुन होली।
मेहकी रियो मस्तानो महुओ, 
मौसम ने मस्ती घोली।
होली और फाग गीतों का इतिहास बहुत पुराना है। फाग गीतों में प्रकृति की मादकता का अनूठा वर्णन मिलता है। साथ ही मानव मन से जुड़ी सुख-दु:ख की घटनाओं को भी गीतों के माध्यम से वर्णित किया जाता रहा है। यही कारण है कि अपने आराध्य देवताओं को भी होली के फाग गीतों में याद किया जाता है। छत्तीसगढ़ में गाये जाने वाले फाग गीतों की शुरुआत गणेश जी, हनुमान जी, भैरव व राम के गीत से होती है। अपने ईष्ट और आराध्य को याद कर मनाए जाने वाले होली के त्यौहार में एक अलग ही मजा है। राधा कृष्ण की बात नहीं हो तो होली अधूरी ही रहेगी। कृष्ण की युवा अवस्था का वर्णन एक ऐसे ही गीत में किया गया है-
मन हर लिया रे
छोटे से श्याम कन्हैया
छोटे से श्याम कन्हैया
छोटे-छोटे रखूवा कदम के
भुंइया ल हस जाव
पेड़ तेरी बइठे कन्हैया
मुख-मुराली बजाय
छोटे से श्याम कन्हैया
सांकुर खोर गोकुल के,
राधा पनिया जाय
बीच में बइठे कन्हैया
गल लियो लपटाय
मन हर लिया रे...।
मस्ती के त्यौहार फाल्गुन और होली में ऐसे कई नये-नये पुराने लोकगीत हैं जो जन-जन के अधरों पर थिरकते रहते हैं। इन गीतों की बुनावट ही ऐसी है जो इन्हें कालजयी कर देती है और पीढ़ी दर पीढ़ी विरासत में ये आगे बढ़ते रहते हैं। (युवराज)