हमारा सूझवान मन अशांत क्यों रहता है?

धरती पर आज से लगभग साढ़े तीन अरब वर्ष पूर्व जीवन पनपा, जिसका बीतते समय के साथ भिन्न-भिन्न जीव नस्लों में विकास हुआ। विकास के फलस्वरूप हम भी सूझवान दिमाग से पनपे मन सहित दुनिया में प्रवेश किया। हमारा यह मन उतना खिला नहीं, विचरता जितना अशांत मन विचरता है। फिर खराब मन में उलझ कर उदासियों-दलगीरियों का शिकार भी यह होता रहता है। मुर्झाये मन से उदास रह रहा व्यक्ति एक तरह नरक भोग रहा होता है, उसका कुछ भी करने को मन नहीं करता और अन्यों के साथ मिल बैठना भी उसको मुसीबत लगने लगता है। स्वयं के साथ कुछ अच्छा बीतने की उम्मीद भी वह गंवा देता है। कुछेक को प्रभावित कर रही ऐसी ही स्थिति से पार हो रहे गालिब का अनुभव था : ‘रही न ताकत-ए-गुफ्तार, और अगर हो भी, तो किस उम्मीद पे कहिये की आरजू क्या है।’ऐसी घोर मानसिक अवस्था चिर-स्थायी नहीं बनी रहती। समय के साथ ढीली पड़ती हुई अंत में लुप्त हो जाती है। मन की एक अन्य अवस्था ऐसी है, जिसके सब, किसी न किसी समय शिकार होते रहते हैं। यह मानसिक तनाव जिसका उस रुचि से जन्म होता है जो हमें एक-दूसरे से आगे बढ़ते रहने के लिए उकसाती रहती है। यह रुचि गिने-चुने दो-चार ज़ीनों की हमें देन है और इसी कारण यह प्रत्येक के कम या अधिक हिस्से आ रही है। प्रत्येक व्यक्ति मानसिक तनाव से अपने ही अलग ढंग से भुगत रहा है। कई तो तनाव के कारण मामूली परेशान रहते हैं, जबकि कई इसके कारण नींद गंवा देते हैं और लहू के बढ़े दबाव का रोग लगा बैठते हैं। इस अवस्था के दौरान मनचाही व्यस्तता की अनुपस्थिति भी परेशानी में वृद्धि होते रहने का कारण बनती रहती है। इसी कारण ऐसी अवस्था में उपराम होकर कुछ भी न करने की अपेक्षा व्यस्त रहना ही उचित है। हम समझदार जीव हैं, समझबूझ के मालिक, समझदार होकर भी हमारा मन अशांत रहता है क्यों? इसके भिन्न-भिन्न कई कारण हैं, जबकि मुख्य कारण हमारी अपनाई जीवनशैली है, जिसमें समझ की अपेक्षा भावनाओं का कहीं अधिक हस्तक्षेप है। भावनाओं द्वारा कुचला जा रहा हमारा मन बिना सिर-पैर के विचारों में उलझा रहता है। बचपन बिताते हुए हम बड़ों की तरह आत्मनिर्भर होकर विचरना चाहते हैं और जब बड़े हो जाते हैं, तब बचपन में लौट जाने की चाहत रखते हैं। हर समय उससे अलग कुछ प्राप्त करने के लिए हम उतावले रहते हैं, जो पास नहीं होता और जो हमारे पास होता है चाहे वह कितना भी अनमोल क्यों न हो उससे हम संतुष्ट नहीं होते। ऊंचे से ऊंचे पद पर विराजमान होकर भी और ऊपर जाने के लिए हम सटपटाते रहते हैं। ऐसे भावहीन विचारों में घिरा मन शांत कैसे रह सकता है। यह भी है कि धन एकत्रित करते हुए हम आरोग्यता के प्रति लापरवाह हुए, इसको गंवा बैठते हैं और फिर खोई हुई आरोग्यता को पुन: प्राप्त करने के लिए हम एकत्रित किये गए धन को दोनों हाथों से लुटाने भी लगते हैं और यह भी कि वर्तमान में विचरते हुए हमें भविष्य की चिन्ता सताती रहती है। उस भविष्य की जो कभी किसी के हाथ नहीं आता। हम अपनी ज़रूरतों की सूची में वृद्धि करते रहने के प्रति भी बेहद उदार हैं। एक ज़रूरत पूरी नहीं होती कि दूसरी की हम चाहत करने लगते हैं। सिर पर खड़ी ज़रूरतें पूरा करने की चिन्ता से भी मन अलग परेशान रह रहा है। समझदार होते हुए भी हम क्यों नहीं समझ रहे कि ज़रूरतें कम करके ही ज़रूरतमंद होने की चिंता से ही मुक्ति हो सकती है और साथ ही निर्मूल ज़रूरतें पूरी करने की चिंता से भी। ऐसी अवस्था को पहुंचा व्यक्ति ही सम्मान सहित जीवन भोग रहा है। इसके बावजूद यदि हम ज़रूरतें कम नहीं कर रहे तब इसके लिए क्योंकि हम रिश्तेदारों और पड़ोसियों के मुकाबले अधिक खुशहाल लगने के लिए ललचाते रहते हैं। हमारी मनोस्थिति के सहमे-सिमटे रहने का कारण यह भी है कि जिस प्राकृतिक वातावरण में वन-मानुस मनुष्य बना और समझदार बना, आज हम उसी से बेगाने बने विचर रहे हैं। हमारी प्रकृति से बेगानवी भी हमारे मनों को शांत नहीं रहने दे रही। हरे-भरे पेड़ पौधों से लह-लहा रहे जिस वातावरण में हमारा दिमाग समझदार बना और उसमें मन पनपा, उसमें पक्षियों का संगीत था और आकाश में बादलों-घटाओं की गहमा-गहमी थी। आज इसी कारण दीवारों, छतों के संकीर्ण दायरे में घिरकर गुमसुम हुआ मन खुले माहौल में विचरने की चाहत कर रहा है। उदासियों, दिलगीरियों की दलदल में फंसे अपने मन को यदि हम स्वतंत्र अस्तित्व का एहसास करवाने के इच्छुक हैं, तब हमें आसमान में तैरते बादलों के साथ, आसमान में उड़ती घटाओं के साथ, पेड़-पौधों से भरे वनों के साथ, बर्फीली चोटियों और इनके बीच बिछी वादियों के साथ और बहते पानी की रवानी से स्नेह डालने की ज़रूरत है। हमें विशाल प्राकृतिक वातावरण से जुड़ जाने की ज़रूरत है। मांसपेसियों की हरकत द्वारा भी मन को उदासियों से उभारा जा सकता है। कसरत करते हुए तेज़ बह रहा खून शरीर की प्रत्येक नस को सींचने लगता है और तब दिमाग को भी जो चाहिए वह भरपूर मात्रा में मिलने लगता है। कसरत करते हुए दिमाग में खुशी का अनुभव करवाते एन्डारफिन भी रिसने लगते हैं और परिणामस्वरूप मन चिंताओं से मुक्त हुआ अनुभव करने लगते हैं। मांसपेशियों की लगातार हरकत के लिए कोई भी साधन प्रयोग किया जा सकता है : पैदल चलना या फिर सुस्त चाल की दौड़, सीढ़ियां चढ़ना और उतरना, साइकिल की सवारी, बागवानी और या फिर कोई न कोई खेल। मन को तनाव से मुक्त करवाने का और संतुष्टि का सहज अनुभव करवाने का अनोखा साधन अन्यों का भला करने का कोई न कोई रास्ता अपना लेना भी है। अन्यों का सिर्फ भला चाहने से खुशी का वह अनुभव नहीं होता जैसा अन्यों के लिए कुछ न कुछ करके होता है। कईयों में यह रुचि बेहद प्रबल होती है। ऐसे व्यक्ति सभ्याचार की और सेवा करती संस्थाओं की धरोहर बनते रहे हैं और मानवीय आदर्शों का पालन करने में भी यह आगे  रहते हैं। उपरोक्त सुझाव धन समेटने में लगी हमारी सोच की अपेक्षा अलग होने के कारण अमल अधीन लाने सहज नहीं। यदि उखड़े-उलझे, चिंताग्रस्त मन को शांत अवस्था अर्पित करने की चाहत है तो इन पर अमल करना बनता ही है। दवा-दारू द्वारा ऐसा कर सकना सम्भव नहीं। एक तो मन पर दवा-दारू का पड़ा प्रभाव कम समय के लिए, अस्थायी होता है और दूसरा मन को प्रभावित करने योग्य दवाइयों का नशीला स्वभाव होने के कारण इनकी आदत पड़ जाने की भी सम्भावना होती है। हमारा मन सरपट भागते जा रहे घोड़े की तरह है, जिसकी न लगाम हमारे हाथ है और न ही रकाब में हमारे पांव हैं। इसी स्थिति का प्रतीक गालिब का यह शेअर है—

रॉ में है रखश-ए-उम्र, कहां देखिये थमें
न हाथ बाग पर है, न पा है रकाब में
सम्पर्क —0175-2214547