भारतीय अर्थ-व्यवस्था के लिए लम्बा होता अच्छे दिनों का इंतज़ार

एक बार फिर भारत संयुक्त राष्ट्र  सुरक्षा परिषद् का अस्थाई सदस्य बन गया। इसके बाद उसके आर्थिक चिन्तन प्रकोष्ठ को सम्बोधित करते हुए भारत के प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने कोविड महामारी की इस विश्वव्यापी आपदा में भारत द्वारा साहस से सब कुछ झेल कर भी विकासोन्मुख हो सकने की भरपूर प्रशंसा की। उन्होंने तो यह भी कहा कि इस भीषण संकट का न केवल भारत ने वीरता और समझदारी से सामना किया है बल्कि विश्व के एक सौ पचपन देशों को भी इस संकट से पैदा होने वाली आपदाओं का सामना करने में भरपूर मदद की है। 
आत्म-प्रशंसा में एक अच्छाई यह होती है कि वह पूरे देश का आत्मबल बढ़ाती है और लोगों को अपने संकट झेल जाने का साहस प्रदान कर देती है। मोदी जी बार-बार बखान करते हैं कि उन्होंने इस कोविड महामारी के दौरान देश को आर्थिक अनुदान दिया है। इसके साथ ही निवेश उत्पादन गतिविधियों के प्रोत्साहन के लिए उनके मार्गदर्शन में उदार साख नीति अपनाई है। ऋण ब्याज दरें और ई.एम.आई. का बोझ हल्का किया है।  सूक्ष्म, लघु और मध्यम औद्योगिक निवेश के प्रोत्साहन के लिए इनकी परिभाषा बदलने के साथ-साथ उनके लिए और भी सहज और प्रोत्साहक कदम उठाए हैं। मोदी जी ने आत्मनिर्भता और ‘लोकल के लिए वोकल’ होने के साथ-साथ देश को कृषि प्रधान होने अथवा अपनी जड़ों की ओर लौटने का सन्देश दिया है। इन्हीं दिनों  में चीन ने लेह लद्दाख में हमारी सरहदों पर जो तनाव पैदा कर रखा है, उसने भी सस्ते चीनी आयात के बहिष्कार का एक माहौल देश भर में पैदा किया है। इसका नया उदाहरण रक्षा बन्धन के दिनों में सस्ती चीनी राखियों के बहिष्कार का आह्वान है।  इसके बाद दीवाली, दशहरा में अगर सस्ते चीनी पटाखों और रौशनी की लड़ियों के आयात से भी देश छुटकारा पा लेता है तो निश्चय ही इससे चीन की आर्थिकता को गहरी चोट लगेगी लेकिन इस बहिष्कार का लाभ भारतीय अर्थतन्त्र को तभी हो सकता है, अगर छोटे-बड़े निवेशक आगे आएं और चीनियों के बहिष्कार से पैदा हो रही इन नई मांग मंडियों को संभाल लें। वैसे इन दिनों कोविड महामारी के दिनों में सामने आये विकास के आंकड़े बताते हैं कि जहां देश के बुनियादी उद्योग, छोटे-बड़े अन्य देश के प्रमुख ग्यारह क्षेत्रों पर भारी कुप्रभाव पड़ा है, विकास दर बुरी तरह से गिरी है, वहां कृषि और सहयोगी धंधे ही हैं जो इन बुरे दिनों को झेल गए। देश के खेतों में रबी सत्र की गेहूं फसलों का रिकार्ड उत्पादन किया और अब खरीफ सत्र में भी धान बीजते हुए किसान उत्साह से आगे बढ़ रहे हैं। पिछले वर्ष की तुलना में धान अधिक क्षेत्रफल में बीजा जा रहा है। जहां अन्य क्षेत्रों में विकास दर कोरोना प्रकोप के कारण शून्य से भी नीचे चली गई है, वहीं खेतीबाड़ी ने ही 1.8 प्रतिशत का धनात्मक विकास दिखाया है। लेकिन कोरोना महामारी के चार पूर्णबंदी के चरणों के बाद अभी तक देश अपूर्ण बंदी के दो चरणों में से गुज़र रहा है, जहां आर्थिक राहतों और ढील के साथ देश के अर्थतन्त्र को पटरी पर लाने का प्रयास किया गया है। लेकिन रिज़र्व बैंक के अपने ही सर्वेक्षण और उसके गवर्नर शक्तिकांत दास का अपना आकलन बताता है कि इन सब मौद्रिक नीति के उदार कदमों अथवा बीस लाख करोड़ रुपए की आर्थिक अनुकम्पा का देश के लगभग अस्सी करोड़ लोगों को कोई लाभ नहीं हुआ। तभी तो सरकार ने भी उनके पांच किलो प्रतिमाह प्रति जीव का खैरात राशन बांटने की अनुकम्पा पांच महीने और अथवा नवम्बर मास तक बढ़ा दी है।  इसके साथ रिज़र्व बैंक का आकलन है कि देश का अर्थतन्त्र पटरी पर नहीं आया। न तो देश को पुन: कृषि प्रधान बनने के लिए किसी सार्थक क्रांति की नींव रखी जा सकी है और न ही देश के लघु, सूक्ष्म और मध्यम दर्जे के उद्योगों को प्रोत्साहन देने के लिए इस बीस लाख करोड़ रुपए की आर्थिक अनुकम्पा का काई सार्थक प्रभाव हुआ है। बल्कि इस समय तो स्थिति यह है कि देश की आर्थिक विकास दर में गिरावट की कल्पना पहले पांच-छ: प्रतिशत तक की जा रही थी। अब आर्थिक बदहाली कुछ इस प्रकार बढ़ी है कि यह गिरावट नौ-साढ़े नौ प्रतिशत तक जा सकती है। शक्तिकांत दास इसे भारतीय अर्थव्यवस्था का सबसे बुरा काल कहते हैं। सरकारी अनुकम्पा का बीस लाख करोड़ रुपए का लम्बा चौड़ा आंकड़ा इसलिए धराशायी हो गया क्योंकि यह अप्रत्यक्ष मौद्रिक प्रोत्साहन था। सरकार अपनी धनराशि का निवेश सकल घेरलू उत्पादन के 1.8 प्रतिशत से अधिक नहीं कर रही है जबकि होना यह दस-बारह प्रतिशत चाहिए था। बुरा हाल तो विस्थापित श्रमिकों का हुआ है। वे शहर छोड़ गांवों की ओर गए, वहां कोई वैकल्पिक रोज़गार व्यवस्था नहीं थी। सुप्रीम कोर्ट के चेताने के बाद सरकार ने पचास हज़ार करोड़ रुपए व्यय करने की घोषणा की थी और मनरेगा और एक देश एक राशन कार्ड के अंतर्गत खैराती राशन कार्डों को ही उनका तारणहार बताया है। यह किसी काम नहीं आया। विस्थापित मज़दूर न इधर के रहे न उधर के। अब उनकी वापसी फिर शहरों की ओर हो रही है, एक अंधेरे से दूसरे अंधेरे में भटकने के कारण देश की श्रम शक्ति लाचार है और नये पुराने बेकार निरन्तर काम धंधे और रोज़गार की तलाश में है। इस विकट समस्या का समाधान तभी हो सकता है अगर सरकार अपने सारे खज़ाने खोल कर देश में एक कृषि आधारित उद्योगों का जाल बिछाए लेकिन निजी क्षेत्र के महाप्रभु सरकार को यह कदम उठाने नहीं दे रहे। इसलिए ये बुरे दिन बीतेंगे तो कैसे?