कहानी देव सर पगले की

मैं अपने चार साथियों के साथ देव सर के पास आया हूं, देव सर इस क्षेत्र में बच्चों का स्कूल चला रहे हैं, और आज के ज़माने में स्कूल से अच्छी पैसे देने वाली कोई मशीन नहीं है। भले ही पैसे पेड़ों पर न लगते हों, मगर स्कूलों में पढ़ने वाले बच्चों के माता-पिता के दिलों में खूब फलते-फूलते हैं। स्कूल वाले जब चाहें, जितना चाहें, तोड़ सकते हैं। मरोड़ सकते हैं। कई बहाने जुड़े हैं, फीस के साथ-साथ पुस्तकों में, स्टेशनरी में, यूनिफार्म में कमीशन बंधी है। परीक्षा शुल्क, प्रैक्टीकल परीक्षा शुल्क, टेस्ट फीस, उत्सव फीस और बात-पात पर डोनेशन की मांग, बिल्ंिडग फीस का कहना ही क्या! जी हां! हम देव सर के पास आए हैं। चन्दे की रसीद काटनी है। हमारे शहर में मां का जागरण है। इस शहर में चन्दा उगाने आए हैं। देव सर के स्कूल का बोर्ड देखा, तो इनसे सहयोग लेने की बात मन में आई। उनके पास पहुंच गए हैं। पचास किलो आटे की मांग करते हुए, ग्यारह सौ की रसीद कटवाने की बात कही है। उनका हाथ जोड़कर कहना है-‘एक सौ एक स्वीकार करें।’उनकी बात सुनकर हम चौक पड़े। मगर इससे पहले हम कुछ कह पाते, एक सरदार जी वहां आ गए।‘क्यों भाई, हमारे देव सर को क्यों घेर रखा है?’‘अल्मोड़ा में एक जागरण है। भंडारे के लिए इनकी ओर से पचास किलो आटे के योगदान की मांग है। ग्यारह सौ की रसीद काटना चाहते हैं।’‘अरे भाई! सपने देखने छोड़! एक सौ एक मिल जाए तो गनीमत समझो। कंजूस की तबियत पाई है देव सर। पूरे कंजूस, मक्खीचूस हैं जनाब। हर तरह से पैसा कमाने की कोशिश और हर तरह से पैसा बचाने की चाह। चार कमरों में दो शिफ्ट स्कूल चलाना। दोनों शिफ्ट में खुद भी पढ़ना। आया-चपरासी का भी कार्य खुद करना। इतना ही नहीं, इनको पैसों की भूख बहुत परेशान करती है। स्कूल समय के बाद चार घंटे ट्यूशन पढ़ाना। ऐसा नहीं है, सारे परिवार की देखभाल इनके सिर पर हैं। पढ़े-लिखे बेटे हैं, अच्छा कमा रहे हैं। देव सर का हर तरह से ख्याल रखते हैं। सुना है जनाब घर पर कोई पैसा खर्च नहीं करते। समझ में  नहीं आता क्या करेंगे देव सर पैसा जोड़-जोड़ कर। इस दुनिया से धन कहां किसके साथ जाता है। आप को जान कर हैरानी होगी, स्कूल टाईम में देव सर बाहर से चाय तक नहीं मंगवाते। छुट्टी के बाद खुद अपने हाथों से बनाते हैं। ऐसे कंजूस से आप ग्यारह सौ की उम्मीद मत रखें।’ फिर देव सर से बोले- ‘याद रखो, इस दुनिया में खाली हाथ आए थे, खाली हाथ ही जाएंगे। कुछ भी साथ नहीं जाएगा। मां का जागरण है। दिल खोल कर चंदा दो। दान पुण्य करो। इस जीवन को सुधारो, दूसरे को भी।’ और वे चले गए। उनके जाते ही देव सर ने एक सौ एक हमारे सामने रख दिया। तभी सरदार जी लौट आए। उनके होठों पर व्यंग्य भर मुस्कान थी। आते ही बोले, ‘इससे अधिक की उम्मीद मत रखो। तुम्हारा वक्त कीमती है। जो मिले, स्वीकार करो। आगे बढ़ जाओ। मेरी शुभकामनाएं आपके साथ हैं।’ इतना कहते हुए सरदार साहिब चले गए। सरदार साहिब के सामने देव सर मुस्कुरा रहे थे। उनके जाते ही देव सर के चेहरे पर गम्भीरता छा गई। वह अपने स्थान से उठे। एक अलमारी खोली। हमने उम्मीद भरी निगाहों से एक-दूसरे को देखा। सोचा ग्यारह सौ की रसीद कटने वाली है। रसीद बुक को देखा। पैंसिल उठाई। हमारे चेहरों पर मुस्कुराहट नाच रही थी। ‘अरे यह क्या! वह अलमारी से एक रजिस्टर निकाल कर ला रहे हैं। वह अपनी सीट पर बैठ गए हैं। चेहरे पर गम्भीरता ही छाई है। वह कहते हैं, ‘अब मैं आपको एक सच्चाई दिखाने  जा रहा हूं, जिससे आपको विश्वास हो जाएगा कि मैं सचमुच ग्यारह सौ रुपये चंदा देने की हालत में नहीं हूं। पहले मैं दो शिफ्ट में स्कूल चला रहा था। इस सैशन के प्रारम्भ में दूसरी शिफ्ट बंद करनी पड़ी। बढ़ती उम्र ने छीन ली है। एक शिफ्ट में लगभग सौ बच्चे हैं। जिनमें से तीस-पैंतीस बच्चे ऐसे हैं, उनका मन करता है, फीस जमा करवा देते, नहीं तो नहीं। जबकि फीस आज के ज़माने में भी केवल एक सौ साठ रुपये महीना है। बाज़ार में चाय पीने जाओ, दस रुपये कप है। एक बच्चे से एक कप चाय का दाम भी नहीं ले रहा हूं। और अब जो आप को दिखाने जा रहा हूं, उसके लिए मेरे साथी मुझे पागल कहते हैं। यह तीन बहन-भाइयों का हिसाब है। सोलह हज़ार फीस आनी है। कल पांच सौ जमा करवा गए, मैंने उनका धन्यवाद किया। अगर कहता पांच सौ नहीं लूंगा, कम से कम पांच हज़ार तो जमा कराओ। तब वह पांच सौ जेब में रखते हुए कहता, ‘चलो अच्छा है, बच्चों के काम आ जाएंगे। उनके लिए कुछ खाने-पीने के लिए ले जाऊंगा।’ उन्होंने पन्ने पल्टे और दिखाया- ‘ग्यारह हज़ार आना है।  (क्रमश:)