लोकतंत्र का अवसान 

संसद का शीतकालीन सत्र रद्द करने के बाद केन्द्र की राष्ट्रीय जनतांत्रिक सरकार लोकतंत्र के कटघरे में आ खड़ी हुई है। लोकतंत्र में सहमति और सत्ता पक्ष एवं विपक्ष के बीच संतुलन बनाये रखना बहुत बड़े पक्ष होते हैं, परन्तु इस मामले में सरकार ने विपक्षी दलों के साथ बिना कोई औपचारिक विचार-विमर्श किये शीतकालीन सत्र को न आहूत किये जाने का फैसला करके जहां मनमज़र्ी वाले रवैया का परिचय दिया है, वहीं विपक्षी दलों को इस मामले को बहस का बड़ा मुद्दा बनाने का अवसर भी दिया है। नि:सन्देह यह मामला विधिवत ढंग से चुनी गई सरकार का लोकतांत्रिक प्रक्रियाओं के अनुपालन से पलायन करने जैसा है। सरकार का तर्क है कि चूंकि देश में अभी कोरोना महामारी के संक्रमण की स्थिति गम्भीर है, और कि इससे बचाव हेतु अनुशासन और नियमों का पालन किया जाना ज़रूरी है, अत: सामूहिक एकत्रीकरण से बचने के लिए इस सत्र को रद्द करने का फैसला किया गया है। सरकार का यह भी दावा है कि उसने कुछ राजनीतिक दलों के नेताओं के साथ बातचीत की है, और सत्र को रद्द करने का फैसला उनके साथ हुए परामर्श के बाद ही किया गया है, परन्तु सरकार की बात किन दलों के साथ हुई है, इसका विवरण नहीं दिया गया। इसके विपरीत देश के सबसे प्राचीन और राष्ट्रीय राजनीतिक दल कांग्रेस, वामपंथी दलों और विपक्ष से वाबस्ता क्षेत्रीय दलों ने ऐसे किसी वार्तालाप से इन्कार करते हुए, शरद् ऋतु सत्र के रद्द होने का विरोध किया है।
यहां यह भी विचारणीय है कि सत्र को रद्द किये जाने हेतु भीड़ के एकत्रीकरण और नियमों एवं अनुशासन का पालन होने के जिस तर्क की बात की जा रही है, उसे दर-किनार करते हुए देश के एक बड़े राज्य बिहार में विधानसभा चुनाव भी हुए हैं, और दस अन्य राज्यों की 54 विधानसभा सीटों एवं लोकसभा सीटों हेतु उप-चुनाव भी सम्पन्न हुए हैं। बहुत स्वभाविक है कि इन चुनावों हेतु प्रचार के दौरान भारी-भरकम रैलियां एवं जन-सभाओं का भी आयोजन हुआ, और रोड-शो, जुलूस भी निकाले गये। प. बंगाल में तो स्वयं भाजपा ने कई सड़क-यात्राओं का आयोजन किया, और बहुत स्वाभाविक रूप से इनके आयोजन के दौरान कोरोना महामारी से बचाव हेतु अपनाये जाते नियम-अनुशासन का खुले-बन्दों उल्लंघन हुआ। हैदराबाद के स्थानीय निकाय चुनावों के दौरान रैलियों और जलूसों के ज़रिये जिस प्रकार का नियमोल्लंघन हुआ, वह भी अपने आप में उल्लेखनीय है। वैसे भी देश के कुछ कंटेनमैंट प्रांतों/ज़िलों को छोड़ कर कोरोना महामारी के उतार का दावा किया जा रहा है। यह भी कि जब पूरे देश में सभी प्रकार की राजनीतिक, सामाजिक, औद्योगिक, व्यापारिक एवं अन्य कई गतिविधियां निर्बाध रूप से जारी हैं, तो संसद के शीतकालीन सत्र को रद्द किये जाने की कोई तुक नहीं बनती।
यहां यह भी उल्लेखनीय है कि सितम्बर में संसद के पिछले सत्र में जब अनेक बिल भी पारित किये गये थे, तब कोरोना महामारी का प्रकोप भी शिखर पर था। यदि तब संसद का सत्र आहूत किया जा सकता था, तो अब कौन-सा संकट पैदा होने जा रहा था। यह भी बड़ी बात है कि इस सत्र को रद्द करते समय सरकार ने यह भी फैसला दे दिया कि बजट अधिवेशन विधिवत रूप से जनवरी में आयोजित होगा।  यदि बजट अधिवेशन हो सकता है, तो शीतकालीन सत्र की कवायद को रद्द किया जाना किसी भी सूरत तर्क-संगत और न्यायपूर्ण नहीं माना जा सकता। इससे विपक्ष के इस आरोप को बल मिलता है कि सरकार किसान आन्दोलन के प्रति अपने हठपूर्ण रवैये के विरुद्ध विपक्ष की चुनौतियों का सामना करने से भाग रही है। हम समझते हैं कि सरकार की यह कार्रवाई विपक्ष से भागने की नहीं, अपितु लोकतांत्रिक प्रक्रियाओं के पालन से पलायन की है। सरकार लोकतंत्र के धरातल पर करोड़ों लोगों के द्वारा चुन कर आये प्रतिनिधियों के अधिकारों का हनन करना चाहती है। विपक्षी दल कांग्रेस और पंजाब में अकाली दल (ब) ने तो बाकायदा मांग भी की है कि संसद के विशेष सत्र का आयोजन कर किसानों के हित-संरक्षण हेतु विवादास्पद बन गये कृषि कानूनों को रद्द करने की घोषणा की जाए।
हम समझते हैं कि सरकार लाख बहानाबाज़ी करे, वह इस आरोप से बेद़ाग बच नहीं सकती कि सरकार की इस सम्पूर्ण कवायद के पीछे किसान आन्दोलन से उपजे तीखे सवालों से बचने की मंशा ही मुख्य म़कसद है। किसान आन्दोलन को लेकर नि:सन्देह रूप से सरकार पर केवल दिल्ली, पंजाब, हरियाणा और उत्तर प्रदेश में ही नहीं, अपितु पूरे देश में दबाव बढ़ा है। केवल भाजपा को छोड़ कर देश के अन्य अधिकतर राजनीतिक दल प्रत्यक्ष अथवा परोक्ष रूप से किसानों के पक्ष में आवाज़ बुलन्द कर रहे हैं। बेशक यह उचित न भी लगे, परन्तु विदेशों में भी, खास तौर पर पंजाबी भाईचारे द्वारा किसानों के हक में ‘हाअ का नारा’ बुलन्द करने की प्रक्रिया तेज़ हुई है। हम यह भी समझते हैं कि बेशक स्वयं प्रधानमंत्री, सरकार के सभी मंत्री और भाजपा के सभी बड़े-छोटे नेता अभी भी बार-बार यह दावा कर रहे हैं कि नये कानून किसानों के हित में हैं, और इन्हें वापिस लेने का प्रश्न ही नहीं उठता, परन्तु जानकारों के अनुसार संसद में सरकार का किसानों और विपक्ष के प्रहारों से बचना बहुत कठिन होता। सम्भवत: इसी कारण सरकार ने इस सत्र से भागना ही उचित समझा, परन्तु हम समझते हैं कि इससे लोकतंत्र के किसी एक स्तम्भ के एक हिस्से का क्षरण हुआ है। नि:सन्देह यह प्रक्रिया भविष्य में नज़ीर बन सकती है, और इस प्रकार यह अन्तत: लोकतंत्र की स्थिरता को आघात पहुंचाएगी।