अस्तित्व की जंग लड़ रहे हैं भारतीय कम्युनिस्ट

भारत में कम्युनिस्ट आन्दोलन इस समय अपनी पहचान के लिए संघर्षरत है। कभी जेएनयू तो कभी किसान आन्दोलन के बहाने कम्युनिस्ट सियासत की मुख्य धारा में आने के लिए अपने अस्तित्व की लड़ाई लड़ रहे हैं। आश्चर्य की बात तो यह है कि केरल में कम्युनिस्ट कांग्रेस से संघर्ष कर रहे है तो प. बंगाल में इसी कांग्रेस से गठबंधन कर रहे हैं। किसान आन्दोलन और खबरिया चैनलों पर कम्युनिस्टों की दहाड़ देखकर यह भ्रम होना स्वाभाविक है कि वामपंथी ताकतें अभी वजूद में हैं। हालांकि यह एक सपना सा लगता है क्योंकि पिछले लोकसभा चुनाव में जनता द्वारा नकार देने के बाद संसद में इनकी संख्या पांच पर आकर सिमट गयी है। बिहार के हालिया विधानसभा चुनाव में राजद की कृपा से कम्युनिस्टों को अवश्य संजीवनी मिली है। खबरिया चैनलों की बहस में यदा कदा कम्युनिस्ट नेता आ जाते हैं। उनकी बातों को सुनकर हंसी भी आती है और दु:ख भी होता है। एक आन्दोलनकारी पार्टी का यह हश्र देखकर दुनिया चकित है। प्रेस से वार्ता के दौरान कम्युनिस्ट नेता यह दर्शाते हैं जैसे देशवासियों का भारी समर्थन इनके कन्धों पर है। कभी मज़दूर आन्दोलन का सिरमौर रही इन पार्टियों का समर्थन यहां से भी दरक गया। देश के गरीब, मजदूर और मेहनतकश वर्गों की लड़ाई में अगुवा रहने वाली वामपंथी पार्टियां लगता हैं, अब अंतिम सांसें ले रही हैं। कभी 64 लोकसभा सीटों के साथ देश के तीन राज्यों में सत्तासीन और भारत सरकार के निर्माण में अहम् भूमिका निभाने वाली वामपंथी पार्टियां 2019 के लोकसभा चुनाव में सिर्फ  पांच सीटों तक सिमट कर रह गयी हैं। त्रिपुरा और बंगाल के गढ़ तो पहले ही ढह गए थे। अब केरल बचा है जहाँ वह शासन में है। पांच में से चार लोकसभा सीटें तमिलनाडु में डीएमके की कृपा से मिली हैं। कम्युनिस्टों के लिए ये अभी तक के सबसे खराब हालात हैं। लोकसभा चुनाव में कम्युनिस्ट पार्टी ऑफ  इंडिया को 2 और कम्युनिस्ट पार्टी ऑफ  इंडिया (मार्क्सिस्ट) को 3 सीटें मिली हैं।  कम्युनिस्टों की कभी भारत में तूती बोलती थी हालाँकि कम्युनिस्ट बंगाल, त्रिपुरा और केरल से आगे कभी नहीं बढ़े। मगर मेहनतकश वर्ग के लिए लड़ी गई उनकी लड़ाई इतिहास में अमिट रहेगी। साठ और सत्तर के दशक में कम्युनिस्टों ने अपने बाड़े से निकलकर आंध्रा ,तमिलनाडु, ओडिसा सहित उत्तर भारत के बिहार, महाराष्ट्र ,राजस्थान, मध्य प्रदेश, उ.प्र., असम और पंजाब आदि राज्यों में अपने संघर्ष के बूते अपनी पहचान बनाई, मगर शीघ्र कम्युनिस्ट बंट गए और खंड खंड होने के बाद उनकी ताकत लगातार घटती गई। कभी संसद में 64 का आंकड़ा पार करने वाले कम्युनिस्ट आज 5 तक पहुँच गए। एक समय ऐसा भी आया जब भारत की सरकार के खेवनहार कम्युनिस्ट बन गए थे। हालांकि प्रधानमंत्री पद को उन्होंने ठुकरा दिया था मगर लोकसभा अध्यक्ष और गृह मंत्री का शक्तिशाली पद प्राप्त कर लिया था, मगर आज कम्युनिस्ट बिखराव और भटकाव की स्थिति में पहुंच गए हैं। भारत के तीसरे आम चुनाव में भाकपा को 29 सीटों पर जीत मिली। 1964 में भाकपा का विभाजन हो गया और एक नयी पार्टी माकपा का उदय हुआ। भाकपा के जुझारू नेता  नम्बूदरीपाद, ज्योति बसु, ए के गोपालन, ज्योतिर्मय बसु, सोमनाथ चटर्जी और हरकिशन सिंह सुरजीत आदि माकपा में शामिल हो गये। 1977 के बाद भाकपा ने माकपा और दूसरी छोटी कम्युनिस्ट पार्टियों के साथ मिलकर वाम मोर्चे का गठन किया। व्यावहारिक तौर पर केरल सहित अधिकांश जगहों पर यह पार्टी माकपा के एक छोटे सहयोगी दल में बदल गयी। 1996 के लोकसभा चुनावों के बाद किसी दल को बहुमत नहीं मिला। सबसे बड़ी पार्टी भाजपा की सरकार लोकसभा में अपना बहुमत साबित नहीं कर पायी। इसके बाद एच.डी. देवेगौड़ा के नेतृत्व में संयुक्त मोर्चे की सरकार बनी। भाकपा ने एक ऐतिहासिक फैसला लेते हुए इस सरकार में शामिल होने का फैसला किया। यह फैसला माकपा के फैसले से काफी अलग था जिसने ज्योति बसु को प्रधानमंत्री बनाने का प्रस्ताव ठुकरा दिया था। इस तरह वाम मोर्चे का भाग होते हुए भी इसने अपनी राजनीतिक स्वायत्तता प्रदर्शित की। संयुक्त मोर्चे की दोनों सरकारों (एच.डी. देवेगौड़ा और इंद्र कुमार गुजराल) की सरकार में इसके नेता शामिल हुए और उन्होंने गृह मंत्रालय (इंद्रजीत गुप्त) और कृषि मंत्रालय (चतुरानन मिश्र) जैसे महत्त्वपूर्ण मंत्रालय सम्भाले। संयुक्त मोर्चे की सरकार के पतन के बाद केंद्र में राजग की सरकार बनी। इस सरकार के कार्यकाल (1998-2004) के दौरान भाकपा ने वाम मोर्चे के एक घटक के रूप में जिम्मेदार विपक्ष की भूमिका निभायी। 2004 में संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन (संप्रग) की सरकार को वाम मोर्चे ने समर्थन दिया। 2008 में वाम मोर्चे ने संयुक्त राज्य अमरीका से परमाणु समझौते के मुद्दे पर संप्रग सरकार से समर्थन वापस ले लिया। 2009 के आम चुनावों में वाम मोर्चे का प्रदर्शन 2004 के आम चुनावों की तुलना में काफी खराब रहा। इसका कारण था पश्चिम बंगाल में वाम मोर्चे के प्रदर्शन में आयी गिरावट। कम्युनिस्ट इस समय दो-राहे पर खड़े हैं। एक तरफ  भाजपा का पुरजोर विरोध कर रहे हैं तो दूसरी तरफ  कांग्रेस से गलबहियां बढ़ा रहे हैं जिससे पार्टी की स्थिति बेहद कमजोर हो गई है। एक समय था जब देश में साम्यवादी आंदोलन की जड़ें बेहद मजबूत थीं और छात्रों एवं मजदूरों में उनकी पकड़  थी मगर आज हालात यह हैं कि अकेले साम्यवादी कोई भी आंदोलन छेड़ने की स्थिति में नहीं हैं। मेहनतकश लोगों, मजदूरों और छात्रों के संघर्ष से उत्पन्न हुई यह पार्टी  आखिरकार  अर्श से फर्श  पर सपाट हो गई।    

               
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