नकाबपोश अंधेरे की आवाज़

आजकल चेहरे को नकाब न पहनाओ, तो जुर्माना हो जाता है। वैसे अपनी आत्मा को नकाब पहनाने की बात हमने बहुत बार सुनी थी। यह भी सुना था कि बन्धु, आज के ज़माने में तुम्हारे अन्दर कुछ और बाहर कुछ और होना ही चाहिए। फटीचर साइकिल की सवारी से कभी आगे नहीं बढ़ पाये, फिर भी बूढ़ों से यही सुनते रहे, ‘भय्यन, हाथी की सवारी न कर बैठना, उसके खाने के दांत और तथा दिखाने के और होते हैं।’ अब भला बताइये फिटफिटिया के इस युग में हाथी तलाशने कौन जाता है? साइकिल से स्कूटर और स्कूटर से मोटरसाइकिल की दौड़ लगती है। यह बीच में ‘हाथी, घोड़ा, पालकी जय कन्हैया लाल की’ कहां से आ गये? 
लीजिये इधर भी तो असली पर नकली चेहरा लगाने की कवायद हो रही है। सींकिया बदन को विश्व चैम्पियन बताया जा रहा है। महा असुन्दर चेहरे पर ऐसे उबटन पोते जाते कि उसको मर्दों में हरक्यूलीस और औरतों में किलयो पैट्रा होने का भ्रम होने लगता। 
अब लो हवा बदल गयी। ताज़ा हवा में विषाणु घुल गये। यह मारक विषाणु हैं पीछा छोड़ने में नहीं आता। एक साल गुज़रा, अब दूसरा शुरू  हो गया, पता नहीं किस राह से आता है। कण्ठ खरखरा कर गले के रास्ते उतर कर फेफड़ों में घुटने जमा कर बैठ जाता है। आदमी उसकी दहशत से ही तार-तार हो जाता है। अस्पताल में अपने लिए बैड तलाश करने जाओ तो कहते हैं कि बैड हैं, आक्सीजन नहीं है। आक्सीजन है, वैंटीलेटर नहीं हैं। वैंटीलेटर है, उसे चलाने वाला नहीं है। बाहर खांसते हुए फेफड़ा थामे लोगों की कतार लगी है। यहां जेब गर्माओ तो शायद दाखिला मिल जाये। लेकिन अगर दूसरे जहां की शोकसभा सज गयी, तो वहां भी दाखिले के लिए कतार लगेगी। हमने तो पहले ही तुझे कहा था, ‘कुछ रसूख पैदा कर ले, सही लोगों का दत्तक बन जा, यहां जी लेगा, अस्पताल गया तो आक्सीजन भी मिल जायेगी। ऊपर का टिकट कटा तो दाह कर्म के लिए जगह पहले मिलेगी, शायद तेरी रुख्सत का कोई शोक सभा प्रस्ताव भी पारित हो जाए।’ 
लेकिन यह सब तो बाद की बाते हैं। अभी तो अपनी आत्मा का नकाब उतार कर अपना चेहरा ढक लें। हो सकता है कि   इसी पर्दादारी में मौत का मसीहा तुझे अपने साथ ले जाना भूल जाये। देखा, एक नकाब ने क्या-क्या ढक दिया। अच्छा भला जाना पहचाना चेहरा गुमशुदा हो गया। इस भेड़िया धसान में गुमशुदा हो जाने के बहुत से लाभ हैं, बन्धु। अब तू खाली शीशियों में नकली टीके भर कर भी बेचेगा, तो वे इस महामारी की रामबाण औषधि की तरह लगेंगे। न भी लगें तो तेरी तिजोरी मुस्करा देगी।
देखो, आजकल चेहरों के गुमशुदा होने की बहुत ज़रूरत हो गयी, बिल्कुल उसी तरह जैसे आजकल आदर्श, नैतिकता और ईमानदारी सब नीलाम हो गयी। खोज, तलाश करो तो भी नहीं मिलती। महामारी की उम्र लम्बी हो गयी। कब किस को अपनी चपेट में ले लेगी, कुछ पता नहीं चलता। रोगियों के हुज़ूम बढ़ने लगे, अस्पतालों में जगह कम होने लगी। श्मशानघाट के बाहर दम तोड़ने वालों की कतारें लम्भी हैं। घंटों दाहकर्म का वक्त नहीं मिलता। वे कहते हैं कि हमने तो कहा था, हमने तो ऐसा रास्ता दिखाया था कि देखते ही देखते यह मारक रोग इस देश से दुम दबा कर भाग गया। लोग मुक्ति जश्न मनाने के लिए उतावले हो उठे। चुनाव रैलियों में भीड़ सज रही हैं, लोग कुम्भ स्नान के लिए निकल गये। अभी तो चार धाम की यात्रा के घण्टे भी टनटनाने लगे थे। 
लेकिन यह क्या हुआ। विदा लेता वायरस लौट आया। संक्रमण के विषाणु फिर आपके गले का मफलर हो रहे हैं। लोग हमारी ओर देखते हैं। हमारी धीरज दिलासा की ओर देखते हैं।  नहीं, हमारी ओर मत देखिये। अपने चेहरे मास्क से ढक लें। स्पर्श नहीं, तीन हाथ दूर से बात करें। अब सामाजिक अन्तर बने रहने से ही जान बचेगी।  याद रखो, ज़माना समतावाद का नहीं, अन्तर बना कर रखने का है। चेहरे को जितना नकाब से ढक कर रखोगे, उतना ही जान पर सांसत नहीं आयेगी। लाख कहा था, यह ज़माना लिपटने-चिपकने का नहीं, भीड़ हो जाने का नहीं। यह ज़माना तो तीन हाथ दूर रहने का है। दूर रह कर पूरी श्रद्धा के साथ ‘हमारा ज़िन्दाबाद’ चिल्लाने का है। वही आप नहीं कर पाये। बस यहीं गड़बड़ हो गई।