भाजपा के लिए चुनावी जीत ही सब कुछ क्यों होती है ?

वैसे चुनाव तो पांच राज्यों में हो रहे थे, लेकिन देश की राष्ट्रीय राजनीति के लिए पश्चिम बंगाल का चुनाव सबसे ज्यादा महत्वपूर्ण था। भारतीय जनता पार्टी इस चुनाव को जीतने के लिए सब कुछ दांव पर लगा रही थी। सच कहा जाये, तो उसने उस चुनाव को जीतने के लिए देश को ही दांव पर लगा दिया था। जब पूरा देश कोरोना की दूसरी बहुत तेज़ लहर के आगोश में था, तो प्रधानमंत्री और गृहमंत्री अपना सारा ध्यान, सारी ऊर्जा और सारा समय पश्चिम बंगाल को ही दे रहे थे, जबकि केन्द्र की सारी ताकतें इन दोनों नेताओं ने अपने अंदर केन्द्रित कर ली थीं और केन्द्र से उनकी अनुपस्थिति ने ऐसे पॉलिसी पारालिसिस को पैदा कर दिया था कि देश के स्वास्थ्य मंत्री और कोरोना पर बने टॉस्क फोर्स को भी यह नहीं पता था कि क्या किया जाना है? प्रधानमंत्री और गृहमंत्री की अनुपस्थिति में उन लोगों का वही ‘टोटा रटंत’ काम रह गया था कि हम दुनिया के अन्य देशों से बेहतर स्थिति में हैं। इसके अलावा उनके पास एक बड़ा काम लोगों को नसीहत देते रहना था, लेकिन सरकार क्या कर रही है और क्या करने वाली है, इसके बारे में भी उनके पास कोई जानकारी नहीं हुआ करती थी, क्योंकि नियम बनाने और कोई बड़े फैसले लेने की ताकत प्रधानमंत्री और गृहमंत्री ने अपने हाथों में ले रखी है और वे दोनों बंगाल सहित अन्य राज्यों के चुनाव प्रचार में लगे हुए थे। बंगाल उनके लिए सबसे ज्यादा महत्वपूर्ण था और इसलिए उन्होंने वहां के चुनाव 8 चरणों में कराए और दिल्ली को अनाथ छोड़कर बंगाल के चुनाव प्रचार में लगे रहे।
जब देश अपूर्व संकट के दौर से गुज़र रहा हो, तो फिर चुनाव जीतने के लिए सब कुछ दांव पर लगाने का क्या मतलब? जहां तक मोदी जी और उनकी भाजपा की बात है, तो इसका स्पष्ट मतलब होता है। वे कुछ गलत निर्णय लेते हैं। देश की जनता को परेशानियां होती हैं। तब वे विपक्ष के निशाने पर आ जाते हैं। उसी बीच चुनाव होता है और चुनाव की जीत में वह अपनी नाकामियों को भी सफलता मान लेते हैं। दूसरे शब्दों में कहा जाये, तो चुनावी जीत उनकी नाकामियों को छिपा लेती है। ऐसा बहुत बार हुआ है। याद कीजिए 8 नवम्बर, 2016 की वह शाम, जब उन्होंने नोटबंदी की घोषणा कर दी थी। बिना किसी विशेषज्ञ से सलाह मशविरा किए, बिना नये छपे नोटों का स्टॉक रखे, उन्होंने पुरानी दो बड़ी करेंसी को ही अवैध घोषित कर दिया। अभूतपूर्व संकट पैदा हुए। सैकड़ों लोग उसके कारण मारे गए। लाखों उद्योग और व्यापार इकाइयां बंद हो गईं। करोड़ों लोग बेरोज़गार हुए। काला धंधा अपने चरम पर पहुंच गया। ज़िंदगी तहस-नहस हो गई और उस बुद्धिहीन निर्णय से फायदे के जो दावे किए गए थे, उनमें एक भी पूरा नहीं हुआ। उलटे बीस पच्चीस हज़ार करोड़ नये नोट छापने और उन्हें बैंकों और एटीएम सैंटरों में पहुंचाने में लग गए। 
लेकिन नोटबदी के बाद उत्तर प्रदेश व कुछ अन्य राज्यों में चुनाव हुए। भाजपा इन दोनों राज्यों में भारी बहुमत से जीती और इस जीत में उसकी नाकामी छिप गई। यही जीएसटी के मामले में हुआ। जीएसटी लागू करने के बाद गुजरात में चुनाव हुए। जीएसटी से प्रदेश बहुत प्रभावित हुआ था, लेकिन वहां भी भारतीय जनता पार्टी जीत गई और उस जीत ने जीएसटी लागू करने में सरकार द्वारा की गई गड़बड़ी छिप कर रह गई। उसके बाद के चुनावों में छत्तीसगढ़, मध्य प्रदेश और राजस्थान में भाजपा हार गई थी, लेकिन उससे पहले ही जीएसटी पर अपनी सफलता का प्रमाण पत्र गुजरात चुनाव के रूप में भाजपा दे चुकी थी। विपक्ष शांत हो गया था। कहते हैं कि गुजरात का चुनाव जीतने के लिए प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी रात-रात भर बैठकर अपने पुराने परिचितों को फोन करते थे। वे परिचित वे थे, जो पहले उनके समर्थक थे, लेकिन जीएसटी के कारण उनसे नाराज़ थे। बहुत मेहनत करके उन्होंने गुजरात का चुनाव जीत लिया और जीएसटी पर अपनी नाकामी को सफलता में बदल डाला।
बंगाल का यह चुनाव भी उनकी भारी विफलता के माहौल में ही हो रहा था। नोटंबदी और जीएसटी की तरह नरेन्द्र मोदी ने लॉकडाउन घोषित करने में भी भारी गलती की थी। यह निर्णय भी बिना कोई सोच-विचार किए हुए और बिना तैयारी किये लिया गया था। उन्होंने यह सोचा ही नहीं कि जो करोड़ों लोग अपने घरों को छोड़कर अन्य जगहों पर रह रहे हैं, वे अपने घरों में बंद कैसे होंगे, क्योंकि उनके घर तो उनके पास हैं ही नहीं। उन्होंने सब कुछ बद कर दिया। फिर जब घरों से बेघर हुए मज़दूर पैदल ही सड़कों पर अपने घरों की ओर निकल गए, तो सरकार की ओर से उनकी तरफ  कुछ भी ध्यान नहीं दिया गया। उलटे उन्हें पुलिस से पिटवाया गया। उस लॉकडाउन में भारत ने एक बहुत ही भीषण त्रासदी देखी। पता नहीं कितने लोग तड़प-तड़प कर मरे। उसका कोई रिकॉर्ड तक नहीं रखा गया। लॉकडाउन के बाद आर्थिक संकट भी शिखर पर पहुंच गया। मोदी सरकार ने संकट की उस घड़ी में वैसे मज़दूर कोड बना डाले, जो मज़दूरों को बंधुआ बनाने की क्षमता रखते हैं। उन्होंने वैसे तीन कृषक कानून बना डाले, जो देश की खाद्य सुरक्षा को ही खत्म करने की क्षमता रखते हैं। उनके कारण अनाज की ऐसी जमाखोरी होगी कि देश भर में वैसा ही अनाज संकट पैदा हो सकता है, जैसा आज ऑक्सीजन संकट व दवा संकट है। ज़रूरत पड़ने पर दवा न मिलने के डर से कुछ लोगों ने बिना किसी ज़रूरत के ही दवा खरीद कर रख ली है। अनाज के साथ भी ऐसा ही होगा। मुनाफाखोर ही नहीं, उपभोक्ताओं का एक समृद्ध वर्ग भी अनाज होर्ड करेगा और भयंकर अनाज संकट पैदा हो जाएगा।
अपनी विफलताओं को ढकने तथा अपने कानून को सही ठहराने के लिए भाजपा के लिए बंगाल जीतना ज़रूरी था। उस जीत में मोदी अपनी अक्षमताओं को छिपा लेते और इस आपदा को अवसर बनाते हुए कुछ और जनविरोधी कानूनों को बनाते। फिर किसान आंदोलनकारियों पर दमन करते हुए यह कहा जाता कि यदि जनता हमारे कानूनों के खिलाफ  हैं, तो हम बंगाल का चुनाव जीते कैसे? ज़ाहिर है, बंगाल की हार ने उनके इस अरमान पर पानी फेर दिया। और भारत और भी बर्बाद होने से बच गया। (संवाद)