धरती पर भगवान होती है मां

जो कुछ भी मैं आज हूं या बनने की उम्मीद करता हूं, उसका श्रेय मेरी फरिश्ता मां को जाता है— अब्राहिम लिंकन
प्रत्येक धर्म के लोग इस धरती पर मां के रूप में बसते ईश्वर को चाहे मां, माता, अम्मा आदि अनेकों ही अलग-अलग नामों से पुकार लें परन्तु विश्व की सभी माताएं लगभग एक जैसी ही भूमिका निभाती हैं। मां जन्मदायिनी और पालनहारी होती है। पूरा जीवन एक सुरक्षित कवच की भांति वह इन्सान के बाल्य-काल से युवा होने तक उसकी रक्षा करती है। मां शब्द सुनते, बोलते, चाहे छोटे हों, चाहे बड़े , दिल को एक शीतलता एवं एक ऊर्जा मिलती है और इन्सान भावुकता से भर जाता है। प्रकृति के बनाये हुए जानवर, पक्षी, कीड़े-मकौड़े भी मां की भूमिका इन्सानों की तरह ही अदा करते हैं। जब तक अपने बच्चों का ध्यान रख सकते हैं, रखते हैं। जब तक बच्चे युवा होकर अपने नये मार्ग पर चल न पड़ें, मां अपनी ज़िम्मेदारी और प्यार निभाती है। बड़ी पुरानी कहावत है कि ‘भगवान हर जगह नहीं हो सकता था। अतएव उसने मां बनाई।’ इस कहावत में कितनी सच्चाई है, क्योंकि भगवान को भी किसी ने देखा नहीं परन्तु बचपन से हमारे दिलों में भगवान की जो तस्वीर बनाई जाती है, वास्तव में मां का रूप वही है। धरती पर वहीं भगवान का निवास होता है जहां मां की परछाई होती है।  मातृ दिवस 1911 में अमरीका के बहुत-से राज्यों द्वारा मनाना शुरू किया गया, क्योंकि उनका मानना था कि प्रतिदिन  के जीवन में मां को विशेष महसूस नहीं करवा होता। इस कारण एक दिन निर्धारित किया गया जिस दिन अपना प्यार, इज़्ज़त, सम्मान मां को ज़ाहिर हो सके और माताओं की भूमिका को घर और समाज में समुचित मान-सम्मान मिले।मां अपने बच्चों के जीवन को बहुत खूबसूरत बनाने का प्रयास करती है। अपने अतीत के तजुर्बों को वह अपने बच्चों के जीवन पर लागू करती है। चलने से लेकर बोलने तक, बच्चों की प्रत्येक बात का श्रोता बनने तक, हौसला बढ़ाने की भूमिका अदा करती है। माएं हर किसी की ज़िन्दगी की सबसे बेहतरीन और विश्वसनीय सलाहकार होती हैं। कई बार बचपन में या युवा होकर मां की काफी बातों पर सहमति नहीं बनती, परन्तु जब हम अपनी उम्र के पड़ाव को लांघ कर अपने बड़ों या मां के स्थान पर पहुंचते हैं, तब अतीत की स्मृतियों की भांति सभी बातें एवं घटनाएं बार-बार हमारे समक्ष आती हैं और यह विचार आता है कि तब हमारी मां इन बातों के प्रति जो रवैया अपनाती थी, वह ठीक था। बड़ा खेद होता है यह पढ़ कर, सुन कर कि समाज का एक वर्ग ऐसा है जो मां अर्थात नारी की इज़्ज़त नहीं करता। उसे सिर्फ बच्चे पैदा करने और उनके पालन-पोषण की मशीन समझा जाता है। सबसे अधिक दुख और मन को पीड़ा उस समय पहुंचती है, जब वही बच्चे जिन्होंने जीवन की रोशनी मां की आंखों के ज़रिये देखी होती है, मां से मुंह फेर लेते हैं और उसे बोझ समझ कर अपने जीवन से बाहर निकाल देते हैं। नशेड़ी पुत्र  द्वारा मां की हत्या। पुत्र द्वारा घोटना मार कर मां की हत्या। बहू-बेटे ने पीट-पीट कर मार दी बुजुर्ग मां। ऐसी पंक्तियां अक्सर ही अखबारों की सुर्खियां बनती हैं।  सच में आज कलियुग आ गया है। आजकल खून का रंग सफेद हो गया है। सन्तान अपनी ही मां के खून की प्यासी हो गई है। जब सन्तान युवा हो कर स्वयं को बहुत समझदार समझने लगती है, तब मां द्वारा सन्तान की भलाई के लिए कही गई कोई भी बात, युवा बच्चों को सहन नहीं होती तथा कई बार परिणाम यह होता है कि जिस मां ने पूरा जीवन दुनिया की बुरी नज़रों से अपने बच्चों को बचा कर रखा होता है, उसे ही रास्ते से हटा दिया जाता है ताकि वह उनके गलत कार्यों में बाधा न बने। विवाह के बाद कई लड़के पूरे जीवन का लगाव भूल कर अपने नये रिश्तों के वेग में बह कर मां को नज़रों से दूर वृद्ध आश्रमों में भेजना उचित समझते हैं।हम सभी जानते हैं कि उम्र के साथ-साथ एक इन्सान का स्वभाव भी बदल जाता है। उसकी उम्मीदें, आशाएं बढ़ जाती हैं। युवा होते बच्चों को मां के साथ वही धैर्य दिखाना पड़ेगा जो बचपन में वह जन्म-दायिनी अपने बच्चों के साथ दिखाती रही है। हमारी माताएं बुजुर्ग होकर हमारे धैर्य की अज्ञानता में जितनी चाहे परीक्षा लें, यह धैर्य का पुल अंत तक टूटना नहीं चाहिए। यही एक मां को, महिला को जिसने पूरा जीवन अपने बच्चों के लिए, परिवार के लिए कुर्बानियां दीं, हमारी ओर से सच्चा एवं सुच्चा सम्मान होगा।  जब मां द्वारा अपने परिवार और बच्चों के लिए पूरा जीवन समर्पित कर दिया जाता है तब आगे सन्तान भी मां  का सहारा बनती एवं पूरे मान-सम्मान के साथ मां को नवाजती है तो  मां द्वारा की गई तपस्या का सत्य में मूल्य पड़ जाता है। ऐसा घर सचमुच ही स्वर्ग बन जाता है।