क्रिकेट के साथ-साथ अन्य खेलों को भी प्रोत्साहित किए जाने की ज़रूरत

खेलों के क्षेत्र में पिछड़ा भारत आज विश्व के खेल नक्शे पर नाममात्र प्रतीक रह गया। समझा जा रहा है कि इस सभी तरह की गिरावट का कारण देश की सरकार है। माना जा रहा है कि खेलों के पतन के कारण खेल फैडरेशनों के प्रमुख हैं। सरकार ने प्रत्येक पांच वर्ष के बाद राजनीति की ओलम्पिक जीतनी होती है। भला ब्राज़ील ओलम्पिक के साथ इनका क्या सरोकार है। प्रमुखों ने अपने पदों पर विराजमान होकर मोटी कमाई और ऐश करनी होती है। खेलों की बुलंदी उनका लक्ष्य नहीं होता। ऐसी स्थ्ति में भारत का खेल जगत कितना रौशन किया जा सकता है, अंदाज़ा आप स्वयं लगा लें। राष्ट्रीय जज़बे की भावना तो हम में से पंख लगा कर ही कहीं उड़ गई है। यही कारण है कि हमें यह भी नहीं पता कि हमारे देश की राष्ट्रीय खेल हाकी है, क्रिकेट नहीं। आज मेरे देश में हाकी के साथ-साथ दूसरी खेलों की जो बुरी हालत हो रही है, सचमुच निन्दनीय है। क्रिकेट में पैसे तथा ग्लैमर की कोई सीमा नहीं। इस से आकर्षिक होकर यदि खेल पत्रकारी की बात शुरू करें तो हमारी कलम सच लिखने से ज़रा भी गुरेज़ नहीं करेगी। समाचार पत्रों के खेल पन्नों को ‘क्रिकेट खेल पन्ने’ का नाम दे दें तो बेहतर है, कम से कम नाम से तो इन्साफ होगा। खेल सम्पादकों के साथ बात करके देखें क्रिकेट की अधिक कवरेज होने बारे, जवाब मिलेगा, ‘क्रिकेट की पढ़ने-योग्यता’ पाठकों में अधिक है जनाब और प्रत्येक समाचार पत्र पाठकों की रुचि का अधिक ध्यान रखता है। इनको कोई यह पूछे कि यह दिलचस्पी क्रिकेट के प्रति किसने पैदा की। क्रिकेट का नशा पाठकों को किस न लगाया है। यदि यह मीडिया का कमाल नहीं तो किसका है? सच तो यह है कि यदि भारतीय खेल पत्रकारी सिर्फ क्रिकेट के इर्द-गिर्द ऐसे ही घूमती रहा तो वह दिन दूर नहीं जब हाकी, फुटबाल, कबड्डी, कुश्ती, वॉलीबाल दम तोड़ जाएंगे। इस सभी को बचाने की ज़रूरत है।  देश की सरकारें जो खुद क्रिकेट की दीवानी हैं, को चाहिए कि अन्य खेलों को भी उत्साहित करे।