बंगाल के ट्रैप में फंस चुके हैं प्रधानमंत्री मोदी

प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने अपने आप को इस कदर बंगाल में उलझा दिया है कि उससे बाहर निकलना उनके लिए कठिन साबित होता जा रहा है। जब देश भीषण आर्थिक बदहाली का सामना कर रहा था और कोरोना की दूसरी लहर के दौर से गुजर रहा था, तो देश की स्वास्थ्य व्यवस्था और अर्थव्यवस्था पर ध्यान देने की जगह उन्होंने अपने आपको और अपनी सरकार को पूरी तरह पश्चिम बंगाल के चुनाव में झोंक दिया था और इसे लगभग जीवन और मरण का सवाल बना दिया था। 2019 के लोकसभा चुनाव में 42 में से 18 सीटें जीतने के बाद विधानसभा चुनाव भी जीत लेने की आकांक्षा कोई गलत बात नहीं थी, लेकिन इसके लिए अपने आपको दांव पर लगा देने का उनका फैसला निश्चय ही गलत था।
चुनाव नतीजों ने उनको करारा झटका दिया। उनकी पार्टी बुरी तरह से हारी। 2019 में मिली विजय के स्तर को भी उनकी पार्टी संभाल नहीं सकी। चुनाव में हार-जीत तो होती ही रहती है। भाजपा जीती भी खूब, किन्तु कई चुनाव हारी भी है। मोदी के नेतृत्व में पिछले साल ही दिल्ली में उसे करारी हार मिली थी। उसके कुछ महीने पहले झारखंड में भी वह बहुत ही बुरे तरीके से हारी थी। हरियाणा में भी उसे हार का सामना करना पड़ा था, हालांकि गठबंधन सरकार उसने बना ली। महाराष्ट्र में भी भाजपा ने अपनी सरकार गंवा दी। बिहार में ज्यादा सीटें मिलने के बावजूद उसे नितीश कुमार को मुख्यमंत्री बनाना पड़ा। ये सब 2019 के लोकसभा चुनाव के बाद नरेन्द्र मोदी के नेतृत्व में भाजपा को लगे झटके हैं।  उसे एक एक झटका बंगाल में भी लगा, लेकिन दुर्भाग्य से नरेन्द्र मोदी बंगाल के इस चुनावी नतीजे को पचा नहीं पा रहे हैं। ठीक उसी तरह जैसे वह दिल्ली केन्द्र शासित प्रदेश में 2015 और 2020 की चुनावी हार को पचा नहीं पाए। दिल्ली केन्द्र शासित प्रदेश है। उसका अधिकार पहले से ही कम है। मोदी सरकार ने उसके अधिकार और भी घटा दिए। मुख्यमंत्री की हैसियत उपराज्यपाल के ओएसडी की बना डाली। बाद में सुप्रीम कोर्ट के आदेश से दिल्ली के मुख्यमंत्री के वे सीमित अधिकार बहाल हो गए, तो उन्होंने इसी साल एक कानून बनाकर यह सुनिश्चित कर दिया कि दिल्ली सरकार वास्तव में उप-राज्यपाल की सरकार होगी। 
दिल्ली तो केन्द्र शासित प्रदेश है और अरविंद केजरीवाल एक केन्द्र शासित प्रदेश के मुख्यमंत्री। दुर्भाग्य से प्रधानमंत्री ने पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बैनर्जी को भी अरविंद केजरीवाल समझने की भूल कर डाली। एक प्रधानमंत्री द्वारा किसी मुख्यमंत्री को जो सम्मान दिया जाना चाहिए था, वह उन्होंने ममता बैनर्जी को नहीं दिया। यह सच है कि प्रधानमंत्री का पद मुख्यमंत्री के पद से ज्यादा बड़ा है। प्रधानमंत्री के पास बहुत अधिकार हैं, लेकिन यह भी सच है कि हमारी संवैधानिक व्यवस्था के तहत मुख्यमंत्री प्रधानमंत्री का जूनियर नहीं होता, और प्रधानमंत्री मुख्यमंत्री का बॉस भी नहीं होता लेकिन प्रधानमंत्री अपने आपको न केवल ममता बैनर्जी का, बल्कि देश के अन्य राज्यों के मुख्यमंत्रियों का भी बॉस समझते हैं। जब पूरी दुनिया प्रधानमंत्री मोदी को कोरोना की दूसरी लहर के लिए ज़िम्मेदार बता रही थी, और वह भी यह नहीं बता रहे थे कि कोरोना के खतरे जब मार्च में बढ़ रहे थे, तो उन्होंने अप्रैल में हरिद्वार में कुंभ के आयोजन की इजाज़त क्यों दी? बाद में यह भी सामने आया कि उत्तराखंड के मुख्यमंत्री को इसीलिए हटा दिया गया, क्योंकि वह एक प्रतिबंधित प्रतीकात्मक कुंभ के आयोजन का मन बना चुका थे।
बहरहाल, कोरोना मोर्चे पर न केवल विफल होने, बल्कि दूसरी लहर के प्रसार के लिए लिए भी ज़िम्मेदार होने के बाद वह राज्यों के जिलाधिकारियों से विडियो कॉन्फ्रैंसिंग कर वार्ता करने लगे, जो वार्ता कम, बल्कि उनकी भाषणबाज़ी ज्यादा थी। उसमें मुख्यमंत्री भी शामिल होते थे। ममता बैनर्जी ने इस बात पर आपत्ति की कि जब मुख्यमंत्री को बोलने की इजाज़त ही नहीं, तो फिर उन्हें उस विडियो कॉन्फ्रैंसिंग वाली बैठक में बुलाया ही क्यों गया। यह  सवाल जायज़ था, वैसे प्रधानमंत्री द्वारा जिलाधिकारियों के साथ उस तरह की बैठक भी हमारे देश के संवैधानिक ढांचे के खिलाफ  थी। यह अलग मामला है, लेकिन उस बैठक में अपनी उपेक्षा से और मुख्यमंत्री को जिलाधिकारियों के बराबर करके देखने की प्रधानमंत्री के रवैये से ममता नाराज़ हो गईं।
नाराज़गी को उन्होंने यास तूफान से हुए विघ्वंस पर प्रधानमंत्री द्वारा बुलाई गई समीक्षा बैठक का बहिष्कार करके निकाला। उनका यह फैसला गलत था, लेकिन उन्होंने प्रधानमंत्री को मुख्यमंत्री की हैसियत का अंदाज़ा कराने के लिए वैसा किया। प्रधानमंत्री ने भाजपा विधायक सुवेन्दु अधिकारी को प्रस्तावित बैठक में आमंत्रित कर ममता को और भी नाराज़ कर दिया। जब मोदी राज्य सरकार के साथ समीक्षा बैठक कर रहे थे, तो उसमें विपक्ष के नेता को बुलाने की क्या ज़रूरत थी? कहते हैं कि ममता ने राज्यपाल को पहले ही कह दिया था कि सुवेन्दु को बैठक में नहीं होना चाहिए। इसके बावजूद प्रधानमंत्री ने सुवेन्दु को प्रस्तावित बैठक में बुला रखा था। इसने ममता को मौका दे दिया और उन्होंने मोदी का अपमान कर दिया। यह चुनावी हार के बाद मोदी की दूसरी हार थी।
तीसरी हार को मोदी ने बंगाल के मुख्य सचिव अलपन बंद्योपाघ्याय के खिलाफ  कार्रवाई करके खुद आमंत्रित किया। ममता के साथ उनको भी बैठक में शामिल होना था, लेकिन मुख्यमंत्री के आदेश पर वह भी उनके साथ ही बैठक से बाहर चले गए। यह बैठक 28 मई को होनी थी। वह 31 मई को रिटायर हो रहे थे। केन्द्र सरकार ने राज्य सरकार की सिफारिश पर 3 महीने के लिए मुख्य सचिव के पद पर उनको सेवा विस्तार दे रखा था। ममता द्वारा किए गए अपमान से क्षुब्ध मोदी ने अपना गुस्सा उन पर निकाला और आदेश आ गया कि वह 31 मई को दिल्ली में हाज़िर हों। ममता ने कहा कि वे उन्हें उनके वर्तमान पद से नहीं छोड़ेंगी और वह 31 मई को दिल्ली नहीं जायेंगे। अलपन के रिटायरमेंट का वही दिन था और उन्होंने रिटायरमेंट ले लिया। अब मोदी सरकार के अनुशासन से वह बाहर हो चुके हैं।
बंगाल की हार को प्रधानमंत्री मर्यादा के साथ स्वीकार कर लें, उनके और बंगाल के हित में यही होगा। यदि उन्होंने अपना यह रवैया जारी रखा तो, वह बंगाल के ट्रैप में फंसते जाएंगे और उन्हें कुछ भी हासिल नहीं होगा। (संवाद)