चानू ने देशवासियों को सिखाया खेलों और जीवन में वापसी का सबक

यदि किसी ने जीवन या खेलों में वापसी करने का सबक सीखना है तो उसके लिए भारत की महिला वेटलिफ्टर मीरा बाई चानू से बेहतर कोई मिसाल नहीं हो सकती। उसने टोक्यो ओलम्पिक के 49 किलो भार वर्ग में रजत पदक जीत कर अपना सपना पूरा किया। इस जीत पर चानू ने खुशी साझी करते हुए कहा कि आज उसका सपना पूरा हुआ है परन्तु इसे पूरा करने के लिए उसे प्रतिदिन एक न एक मुश्किल को पार करना पड़ा और वह रियो ओलम्पिक खेलों में निराशाजनक प्रदर्शन को पीछे छोड़ने में भी सफल रही। चानू द्वारा इस पदक को जीतने के बाद पूरे देश ने उसे पलकों पर बिठा लिया परन्तु उसने इस मुकाम तक पहुंचने के लिए गरीबी को भी मात दी और प्रतिदिन जीवन में आ रही मुस्किलों को भी बाखूबी पार किया। इंफाल से लगभग 20 किलोमीटर दूर नोगपोक काकचिंग गांव में पैदा हुई चानू 6 बहन-भाईयों के बाद सबसे छोटी है और उसका बचपन पहाड़ियों से लकड़ी काट कर इकट्ठा करने और आसपास के तालाब से पानी को घर लाने में ही व्यतीत  हुआ। मीराबाई के जज़्बे का अनुमान इस बात से लगाया जा सकता है कि वह लकड़ियां उठा कर 20 किलोमीटर पैदल चलती थी। चानू ने अपने जीवन में बहुत पहले यह फैसला किया था कि वह एक खिलाड़ी अवश्य बनेगी। एक दिन वह तीरंदज़ी के खेल केन्द्र गई परन्तु किस्मत को कुछ और ही मंज़ूर था क्योंकि जिस दिन वह तीरंदाज़ी के सैंटर गई उस दिन वह बंद था और मीराबाई साथ वाले वेटलिफ्ंिटग सैटर चली गई और अपने राज्य की दिग्गज वेटलिफ्टर कंजूरानी की उपलब्धियों को पढ़ कर बहुत प्रभावित हुई तथा इस खेल से जुड़ गई परन्तु इसका रास्ता भी आसान नहीं था क्योंकि परिवार की आर्थिक हालत बहुत बुरी थी। इसके अतिरिक्त प्रशिक्षण के लिए जाने हेतु उसे 22 किलोमीटर बस पर जाना पड़ता था परन्तु उसने हौसला नहीं छोड़ा और लगन के साथ अभ्यास करने लगी। उसने 2009 में पहला नैशनल पदक प्राप्त किया और फिर 2014 के राष्ट्रमंडल खेलों में रजत पदक प्राप्त किया और 2016 के ओलम्पिक खेलों में बड़ी दावेदार थीं परन्तु वह वाशआऊट हो गई। पर उसने हौसला नहीं छोड़ा और निराशा को आशा में बदला और 2017 की विश्व चैम्पियन शिप में स्वर्ण पदक जीतने वाली पहली महिला वेटलिफ्टर बनी और इसके बाद 2018 के राष्ट्रमंडल खेलों में भी स्वर्ण पदक जीता।  आज नि:संदेह भारत के प्रधानमंत्री सहित पूरे देशवासियों ने चानू को इस विलक्षण प्राप्ति पर बधाई दी है। 

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