बूस्टर डोज़ हेतु हड़बड़ी करना ठीक नहीं होगा

सरकार ने साफ  कर दिया है कि भले ही दुनिया के अनेक देशों में कोविड-19 के वैक्सीन की बूस्टर डोज़ लगनी शुरू हो जाये पर हम इसके बारे में अगले साल से पहले नहीं सोचेंगे। यह नीति वैज्ञानिक, नैतिक, राजनीतिक, व्यावहारिक और रणनीतिक तौर पर बिलकुल सही है पर इसके लिये जो कारण बताये जा रहे हैं, वे और अधिक स्पष्ट और पारदर्शी हो सकते थे। वजहों को और संतुष्टिकारक बनाया जा सकता था, जिससे छोटी बड़ी आशंकाएं भी निर्मूल हो जातीं। जनता में साफ  संदेश जाता, संदेह के सारे स्रोतों का समापन हो जाता। कई स्पष्ट उत्तर न मिलने से शंकाओं-आशंकाओं का जन्म होता है और इन आशंकाओं से प्रसूत प्रश्न किसी भी सकारात्मक अभियान अथवा व्यवस्था के उद्देश्य को हानि पहुंचाते हैं। 
वैक्सीन के बारे उससे संबंधित प्रश्नों का यथेष्ट उत्तर नहीं मिलने से उसके बारे में अनेक अपुष्ट समाचारों, अफवाहों को फैलने का मौका मिला। इसके नकारात्मक प्रभाव दिखे। वैक्सीन के शुरुआती दौर में सूचनाओं और समझ की कुछ सीमाएं थीं। सूचनाओं की सीमितता तो बूस्टर के बारे में भी है पर वैक्सीन जितनी नहीं। बेहतर यही रहता कि सरकार और उसकी एजेंसियां पूरी साफगोई से देश में बूस्टर डोज लगने-लगाने और कबसे,किनको किन प्राथमिकताओं के आधार पर लगाना है, यह बात साफ  तौर पर बता देतीं। यह बात अब सभी जानते हैं कि देश में जिसने जो भी वैक्सीन लगवाई है या लगवाने जा रहे हैं, उसकी कुल मियाद छह महीने से एक साल तक ही है। समय बीतने के साथ-साथ वैक्सीन द्वारा कोरोना के खिलाफ  मिली प्रतिरोधक क्षमता क्षीण होती जाती है और इसको बढ़ाने या पहले से बेहतर करने के लिये बूस्टर डोज़ चाहिये। स्वास्थ्य प्रणाली से जुड़े लोगों को इस बात का भी इमकान है कि कोरोना का विषाणु लगातार रूप बदलता रहता है, उसके इस नयेपन से निबटने के लिये भी सुधरे हुये वैक्सीन डोज या बूस्टर का ही इस्तेमाल अपेक्षित है। वैक्सीन निर्माता यह जरूरत जान गए हैं और वे नए वैरिएंट पर कारगर रहने वाली और बेहतर सफलता दर वाली वैक्सीन का बूस्टर डोज़ बना रहे हैं। कोरोना वैश्विक महामारी है सो जो समस्या कंबोडिया या तुर्की में है, वही कमोबेश भारत, अमरीका और पाकिस्तान में भी होगी। 
इस मामले में सबकी समस्याएं तकरीबन साझा हैं। अगर ऐसा है तो जब संसार के सभी देश बूस्टर की ओर बढ़ चले हैं, भारत क्यों नहीं?  अमरीका में 20 सितम्बर से बूस्टर डोज़ का अभियान आरंभ हो रहा है। तुर्की ने फैसला किया है कि अगले महीने से 50 पार वालों को बूस्टर डोज लगायेगा। ब्रिटेन की स्वास्थ्य प्रणाली भी सितम्बर में बूस्टर डोज़ शुरू कर रही है। जर्मनी और फ्रांस ने भी सितम्बर को ही चुना है। महीने भर बाद एक्वाडोर भी तीन वैक्सींज़ के लिये बूस्टर डोज़ आरंभ करेगा। कम्बोडिया, कनाडा, थाईलैंड, आयरलैंड जैसे तमाम देश कुछ सवालों से जूझने के बावजूद अपने यहां बूस्टर डोज़ देने का अभियान शुरू कर सकते हैं, पर भारत में बूस्टर के बारे में कुछ भी साफ  नहीं किया है। अभियान चलायेंगे या नहीं? चलायेंगे तो कब और उसकी प्रक्रिया तथा प्राथमिकता क्या होगी?  
सरकार कह रही है कि अभी उसके पास पर्याप्त आंकड़े नहीं है, जिनके आधार पर बूस्टर डोज़ के बारे में कोई ठोस निर्णय लिया जाये। सवाल यह है कि दूसरे छोटे-बड़े देशों के पास जहां कोरोना संक्रमण और टीका अभियान लगभग हमारे साथ ही शुरू हुआ, उनके पास आंकड़े कैसे हैं और उन्होंने किस आधार पर निर्णय लिया? जिस ब्रांड की वैक्सीन का डोज़ लिया है बूस्टर उसी का हो या कोई दूसरा भी ले सकते हैं, इसको भी उलझन की वजह बताया जा रहा है। बहुत पहले ही बूस्टर में मिश्रित वैक्सीन को निरापद होने की बात आ चुकी है। तुर्की और उरुग्वे में सिनोवैक वैक्सीन लगाई गई थी, पर अब वे बूस्टर डोज़ के लिये फाइज़र को चुन रहे हैं। यही हाल कंबोडिया और थाईलैंड का भी है। संयुक्त अरब अमीरात और बहरीन सरीखे कुछ और भी देश ऐसा ही विकल्प अपना रहे हैं, फिर शंका की गुंजाइश कहां है? यह भी कह दिया गया कि अभी यह साफ  नहीं कि बूस्टर से फायदा होता ही है सो इसके लगाने का कोई औचित्य फिलहाल नहीं है। इसका जवाब इजरायल की शोध रिपोर्ट के इस दावे ने दिया कि बूस्टर डोज़ 60 से ऊपर वालों की प्रतिरोधक क्षमता न केवल 4 गुना बढ़ा दे रही है बल्कि इसके बाद गंभीर संक्रामक बीमारी से लड़ने की क्षमता भी पांच से छह गुना की बढ़ोत्तरी हुईं। 
बूस्टर से कोविड-19 संक्रमण की आशंका 86 फीसदी कम हुई तो दूसरे रोगों के गंभीर संक्रमण के खिलाफ  यह 92 फीसद तक प्रभावी पाई गई। अपने ही देश में कोविशील्ड वैक्सीन के निर्माता सीरम इंस्टिट्यूट  के सायरस पूनावाला ने अपनी दूसरी खुराक के छह महीने बाद न सिर्फ खुद बूस्टर डोज़ लिया बल्कि अपने 8 हज़ार कर्मचारियों को भी दिलवाया। विश्व स्वास्थ्य संगठन की असहमति का बहाना भी निराधार है। विश्व स्वास्थ्य संगठन की ने नैतिक सवाल उठाया है कि गरीब देशों में अक्तूबर तक कम से कम 10 फीसदी लोगों को पहली डोज़ लग जाये, तब अमीर देश अपनी तीसरी डोज़ आरंभ करें वरना वैक्सीन विभेद की खाई और गहरी हो जायेगी। उसने न इसे रोका न अनावश्यक बताया। इन लचर बहानों के बावजूद भारतीय रणनीति बेहतर है। हमें देखादेखी की हड़बड़ी और होड़ में आने की आवश्यकता नहीं है। सघन टीकाकरण अभियान के बीच बूस्टर का दौर आरंभ करने से कभी तेज, कभी धीमे चलने वाला टीकाकरण अभियान डगमगा सकता है, उसे नुकसान पहुंचेगा। अभी भी हम दूसरी डोज़ के लिये वैक्सीन की किल्लत से उबरे नहीं हैं इस बीच तीसरी डोज़ को शामिल करना उचित नहीं, किसी भी तरह की दुर्गति से थोड़ी देर भली। सितम्बर के पहले हफ्ते में दूसरी डोज़ के बाद बूस्टर संबंधी चिकित्सकीय जांच परिणाम आने को है। इसके बाद निर्णायक तौर पर परिणाम आने में नवम्बर तक का समय है। 
अगले साल फरवरी से इनको लगाना आरंभ करने से टीकाकरण अभियान भी काबू में होगा। तब हम बूस्टर का दौर बड़े पैमाने पर आरंभ कर सकते हैं। तब जबकि इस बारे में संभावना व्यक्त की जा रही है कि अगर हमने कोरोना प्रोटोकॉल का कड़ाई से पालन किया, टीकाकरण अभियान अपने पूरी क्षमता और तेजी से चला तो तीसरी लहर नहीं आएगी ऐसे में अपनी अवसंरचना, बूस्टर डोज़ की उपलब्धता, उसकी खरीद, इन सबमें आने वाली अड़चनें तथा ऐसी बातों का भी भी खुलासा किया जाना चाहिये कि बूस्टर डोज़, दूसरे डोज के आठ दस महीने या साल भर बाद उस समय लगाना फायदेमंद होता है जब शरीर से कुछ एंटीबॉडीज कम हो जायें। 
-इमेज रिफ्लेक्शन सेंटर