कांग्रेस के घटनाक्रम ने बिगाड़े कई पार्टियों के राजनीतिक समीकरण

वैश्वीकरण, निजीकरण तथा उदारीकरण के इस दौर में राजनीतिक पार्टियों के लिए चुनाव जीतना एक बड़ी चुनौती बनता जा रहा है। क्योंकि निजीकरण के क्रियान्वयन के साथ कारोबार के अधिकतर क्षेत्र बड़े कार्पोरेट घरानों के हाथों में चले गये हैं। ये घराने अधिक पूंजी निवेश तथा अधिक आधुनिक तकनीक से व्यापक स्तर पर उत्पादन करके देश-विदेश के बाज़ारों में भेज कर लाभ कमाते हैं, परन्तु इस अमल से छोटे व्यापारी तथा छोटे दुकानदारों एवं जन-साधारण के हितों को नुकसान पहुंचता है, क्योंकि इस विकास मॉडल से रोज़गार के अधिक अवसर पैदा नहीं होते। शिक्षा तथा स्वास्थ्य जैसे क्षेत्रों में भी सरकारों द्वारा निजीकरण को उत्साहित करने से इन क्षेत्रों में भी जहां रोज़गार के अवसर कम हुए हैं, वहीं जन-साधारण की पहुंच से भी शिक्षा एवं स्वास्थ्य सेवाएं निकलती जा रही हैं। लोगों को महंगे शिक्षा तथा स्वास्थ्य संस्थानों से सेवाएं लेने के लिए विवश होना पड़ता है। इस कारण निजीकरण पर आधारित कार्पोरेट विकास मॉडल को रोज़गार रहित विकास मॉडल भी कहा जाता है।
ऐसी परिस्थितियों में जब राजनीतिक पार्टियां लोगों के मूलभूत मामले हल करने में असफल होते हैं तो उन्हें ऐसे मुद्दों की तलाश होती है, जिनके आधार पर वह मतदाताओं का ध्रुवीकरण करके आसानी से चुनाव जीत सकें तथा लोगों का ध्यान अपने मूलभूत मुद्दों से हटा सकें। इस उद्देश्य के लिए राजनीतिक पार्टियों द्वारा ़गरीब लोगों को जहां मामूली सुविधाएं देकर उनको भ्रमाने का प्रयास किया जाता है, वहीं धर्म तथा जाति के आधार पर भी उनको बांट कर मत हासिल करने का प्रयास किया जाता है, चाहे इससे समाज में हिंसा और ऩफरत का प्रसार ही क्यों न हो जाए। सामाजिक न्याय या ‘सोशल इंजीनियरिंग’ का नाम भी दिया जाता है, राष्ट्रीय जनता दल, जनता दल (यू), समाजवादी पार्टी तथा बसपा आदि क्षेत्रीय राजनीतिक पार्टियों द्वारा भी सामाजिक न्याय के नारे तले ऐसी राजनीति करती रहती हैं परन्तु आधुनिक समय में इस क्षेत्र में भाजपा बेहद तेज़ी के साथ आगे बढ़ रही है। उसके द्वारा देश भर में धर्म तथा जाति के आधार पर मतदाताओं का ध्रुवीकरण करने के लिए हर हथकंडा अपनाया जा रहा है। भाजपा ने 2014 के चुनावों में ज्यादातर विकास को मुद्दा बनाया था। चाहे इसके साथ-साथ धर्म आधारित ध्रुवीकरण के लिए भी प्रयास किये गये थे परन्तु 2019 के लोकसभा चुनावों में उसके द्वारा धर्म तथा जाति के आधार पर ध्रुवीकरण  की प्रक्रिया को और तेज़ी से आगे बढ़ाया गया। अब तो स्थिति यह हो गई है कि हर प्रदेश के चुनाव में भाजपा द्वारा धर्म तथा जाति के आधार पर ध्रुवीकरण हेतु विशेष तौर पर बल दिया जाता है एवं इस उद्देश्य के लिए मुस्लिम अल्प-संख्यकों को विशेष तौर पर निशाना बनाया जाता है। आगामी वर्ष के आरम्भ में होने वाले पांच राज्यों के चुनाव जीतने के लिए भी भाजपा इसी रणनीति का सहारा लेती प्रतीत हो रही है। कुछ माह पूर्व प्रधानमंत्री श्री नरेन्द्र मोदी द्वारा अपने मंत्रिमंडल में जो फेरबदल किया गया है, उसमें भी इसी रणनीति को प्राथमिकता दी गई है। इसी कारण केन्द्रीय मंत्रिमंडल में दलित तथा अलग-अलग पिछड़ी जातियों से संबंधित सांसदों की बड़ी संख्या को मंत्रियों के पद देकर नवाज़ा गया है। वर्तमान केन्द्रीय मंत्रिमंडल में दलितों के अलावा अन्य पिछड़ी जातियों के 27 के लगभग मंत्री शामिल हैं।
पंजाब में भी आगामी वर्ष के शुरू में विधानसभा चुनाव होंगे। इस उद्देश्य के लिए अलग-अलग राजनीतिक पार्टियों द्वारा अपनी-अपनी रणनीति तैयार की जा रही है। चाहे आन्दोलन कर रहे किसान संगठनों ने राजनीतिक पार्टियों को  ज्यादा चुनावी गतिविधियां न करने के आदेश दिए हुए हैं परन्तु इसके बावजूद राजनीतिक पार्टियां अपने-अपने ढंग से लगातार चुनाव की तैयारी कर रही हैं। पंजाब में विशेष तौर पर भाजपा के लिए हालात असुखद हैं, क्योंकि भाजपा की केन्द्र सरकार द्वारा बनाए तीन कृषि कानूनों के विरुद्ध आन्दोलन कर रहे किसान संगठन प्रदेश में भाजपा की गतिविधियां का तीव्र विरोध कर रही हैं। इन स्थितियों में चुनाव लड़ने के लिए राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ तथा भाजपा ने दलित कार्ड खेलने का मन बनाया था तथा इसी सम्दर्भ में भाजपा द्वारा घोषणा की गई कि पंजाब का मुख्यमंत्री किसी दलित नेता को बनाया जाएगा। भाजपा तथा संघ की नीति यह थी कि प्रदेश में 31.94 प्रतिशत के लगभग दलित मतदाता हैं तथा 31.3 प्रतिशत के लगभग अन्य पिछड़े वर्गों के मत हैं तथा इस तरह कुल मिला कर यह 61 प्रतिशत मतदाताओं के आधार पर वोट बैंक बनता है और यदि भाजपा इन वर्गों को भ्रमाने में सफल हो जाती है तथा इसके साथ अपने प्रभाव वाले हिन्दू वोट बैंक को जोड़ने में सफल हो जाती है तो वह किसान आन्दोलन के प्रभाव से नाराज़ हुए सिख समुदाय तथा जट्ट किसानों को पीछे करके असुखद परिस्थितियों में भी सत्ता के सिंहासन  तक पहुंच सकती है। भाजपा की इस आशा का एक कारण यह भी था कि हरियाणा में 2014 में हुए चुनावों के दौरान जब पहली बार मनोहर लाल खट्टर मुख्यमंत्री बने थे तो उस समय भाजपा ने ऐसे फार्मूले पर काम करते ही हरियाणा के जाट भाईचारे को अलग करके सत्ता के गलियारों से बाहर निकाल दिया था। उन चुनावों के दौरान भाजपा ने उच्च श्रेणियों के हिन्दू वोट बैंक के साथ छोटी पिछड़ी जातियों के मतों को जोड़ा था। भाजपा की इसी रणनीति को मुख्यमंत्री रखते हुए अकाली दल ने भाजपा से अलग होने के बाद बसपा के साथ समझौता किया ताकि भाजपा के दलित कार्ड का मुकाबला किया जा सके। इसी कारण ही अकाली दल के अध्यक्ष सुखबीर सिंह बादल द्वारा यह घोषणा की गई थी कि यदि उनकी पार्टी की सरकार बनती है तो वह एक दलित नेता को उप-मुख्यमंत्री बनाएंगे। 
इस तरह की घोषणाओं से राज्य की राजनीतिक गतिविधियां दलित मतों के इर्द-गिर्द घूमती दिखाई दे रही थीं कि गत दिवस पंजाब कांग्रेस के विवाद ने एक ऐसा मोड़ अपनाया कि कांग्रेस हाईकमान अपने नौजवान दलित नेता चरणजीत सिंह चन्नी को मुख्यमंत्री बनाने हेतु मजबूर हो गई। इससे राज्य में भाजपा और अकाली-बसपा गठबंधन की चुनाव रणनीतियां गड़बड़ा गईं। सबसे अधिक झटका भाजपा को लगा है। चरणजीत सिंह चन्नी को मुख्यमंत्री बनाए जाने के बाद अधिक प्रतिक्रम इसी पार्टी की ओर से आए हैं। पंजाब भाजपा के चुनाव प्रभारी दुष्यंत गौतम ने आरोप लगाया है कि कांग्रेस ने दलित वोट लेने के लिए ही उन्हें मुख्यमंत्री बनाया है। वैसे कांग्रेस दलितों की भलाई के लिए प्रतिबद्ध नहीं है। महिलाओं संबंधी केन्द्रीय आयोग की चेयरपर्सन रेखा शर्मा ने चरणजीत सिंह चन्नी को मुख्यमंत्री बनाने की आलोचना करते हुए कहा कि उन्होंने एक आई.ए.एस. महिला अधिकारी को अश्लील संदेश भेजे थे। ऐसे नेता को मुख्यमंत्री बनाना शर्म की बात है। उनके इस बयान में भी भाजपा की चरणजीत सिंह चन्नी को मुख्यमंत्री बनाने संबंधी परेशानी की झलक मिलती है। पंजाब भाजपा के वरिष्ठ नेता तरुण चुघ ने भी हरीश रावत के बयान कि 2022 के चुनावों के लिए नवजोत सिंह सिद्धू पार्टी का चेहरा होंगे, का हवाला देते हुए यह कहा है कि कांग्रेस ने चरणजीत सिंह चन्नी को सिर्फ कुछ महीनों के लिए ही मुख्यमंत्री बनाया है। 2022 के चुनावों के बाद उन्हें मुख्यमंत्री नहीं बनाया जाएगा। ऐसा सिर्फ दलितों के वोट लेने के लिए ही किया जा रहा है, जो कि दलितों के साथ एक धोखा होगा। पंजाब के राजनीतिक विशेषज्ञों का भी यह विचार है कि कांग्रेस हाईकमान ने चाहे पंजाब कांग्रेस में पैदा हुए विवाद को सुलझाने के लिए ही चरणजीत सिंह चन्नी को मुख्यमंत्री बनाया है परन्तु इसके साथ भाजपा की चुनाव रणनीति पर पानी फिर गया है और उसे समझ नहीं आ रहा कि वह इस स्थिति का  मुकाबला कैसे करे। अकाली दल और बसपा नेता भी इस पक्ष से परेशान नज़र आ रहे हैं। अकाली दल के एक दलित नेता ने बयान दिया है कि आगामी चुनावों में कांग्रेस यदि हार गई तो हार की ज़िम्मेदारी चरणजीत सिंह चन्नी पर ही डाली जाएगी। उन्हें बलि का बकरा बनाया जाएगा। यहां तक कि बसपा की अध्यक्ष मायावती ने भी इस पर टिप्पणी करते हुए कहा है कि दलितों को कांग्रेस की इस चाल में नहीं फंसना चाहिए।  इस पूरी चर्चा के मध्य जागरूक दलित भाईचारे के लोग यह महसूस करते हैं कि इन्हें सामाजिक न्याय मिलना चाहिए। स्वास्थ्य, शिक्षा और रोज़गार के अवसर मिलने चाहिएं परन्तु उन्हें सिर्फ वोट बैंक ही नहीं समझा जाना चाहिए। 
इस पूरे घटनाक्रम से यह समझा जा सकता है कि कांग्रेस द्वारा चरणजीत सिंह चन्नी को पंजाब का मुख्यमंत्री बनाए जाने से फिलहाल राजनीतिक पार्टियों द्वारा दलित वोट के इर्द-गिर्द बनाए जा रहे राजनीतिक समीकरणों में काफी गड़बड़ उत्पन्न हो गई है। उन्हें इस पूरे घटनाक्रम के बाद 2022 के चुनावों के लिए कई पहलुओं से नई रणनीतियां बनानी पड़ेंगी और नये मुद्दों की तलाश करनी पड़ेगी परन्तु यह अहम प्रश्न अपने स्थान पर खड़ा है कि क्या चरणजीत सिंह चन्नी को मुख्यमंत्री बनाने से कांग्रेस का आंतरिक विवाद समाप्त हो जाएगा या पंजाब कांग्रेस के अध्यक्ष नवजोत सिंह सिद्धू और मुख्यमंत्री चरणजीत सिंह चन्नी दोनों मिल कर 2022 के चुनावों तक प्रभावशाली ढंग से कार्य कर सकेंगे? अभी इस प्रश्न में भी लोगों की दिलचस्पी बनी रहेगी कि कैप्टन अमरेन्द्र सिंह का अगला कदम क्या होगा और उसका पंजाब के राजनीतिक माहौल पर क्या प्रभाव पड़ेगा?