कोरोना की मार-शिक्षा बदहाल

कोरोना की दूसरी लहर को जब काफी हद तक मंद पड़ता हुआ देखा जा रहा है तब तीसरी लहर की आशंका भयभीत ज़रूर करती है। पहली और दूसरी लहर में जिस तरह कहीं बदइंतज़ामी और कहीं जीवन रक्षक दवाईयों के अभाव में तड़पते-भटकते जान देते लोगों की डरा देने वाली खबरें सामने आती रही हैं। हम सब ज़रूर चाहेंगे कि आम आदमी अब ज़रूर सुरक्षित रहे। अर्थ-व्यवस्था चौपट, बेरोज़गारी, कारोबार में गिरावट ऐसी मुश्किलें हैं जिनसे जन-जीवन अभी संघर्षरत है परन्तु शैक्षणिक संस्थान जो पिछले लम्बे समय से बंद रहे हैं, बच्चों और उनके पालनहारों के लिए चिन्ता का विषय हैं। एक सम्पादकीय में वीरेश कुमार सिंह ने इसे गंभीरता से लेते हुए कहा—घरों में बंद बच्चे मानसिक रूप से अनेक समस्याओं से भी दो-चार हो रहे हैं। बच्चों पर किये गये एक शोध में यह बात सामने आई है कि  42.3 फीसदी बच्चे चिड़चिड़ेपन के शिकार हो गये हैं और 30 फीसदी से ज़्यादा बच्चों में कहना न मानने या आनाकानी करने की समस्या उत्पन्न हुई है। जिन बच्चों ने अपने परिजनों को खोया है या अनाथ हुए हैं, उनमें सामाजिक असुरक्षा की भावना निश्चित ही अपनी जड़ जमा रही होगी और यदि समय रहते उन्हें आश्वस्त नहीं किया गया तो उनके गलत दिशा में जाने की संभावना बढ़ जायेगी। उन्होंने यह भी बताया कि बहुत सी राज्य सरकारें इस संदर्भ में गम्भीरता से प्रयास कर रही हैं और अनाथ बच्चों के पुनर्वास के लिए योजनाएं चलाई जा रही हैं। 
असल में पच्चीस करोड़ बच्चों के लिए यह सवाल काफी गम्भीर है कि स्कूल-कालेज या विश्वविद्यालय कब पूरी तरह खुलेंगे? कब उनमें सामान्य ढंग की पढ़ाई, आपसी मेल-मिलाप, अनुशासन और गम्भीरता के साथ चहल-पहल का माहौल सजीव हो उठेगा? कोविड महामारी का तूफानी झटका ही था जिसने दो सौ पचास मिलियन बच्चों को स्कूल के वातावरण से बिल्कुल अलग अपने-अपने घरों की चारदीवारी में कैद कर दिया। जहां दोस्त-मित्र नहीं, अध्यापक का सीधा साक्षात्कार नहीं, हंसी-मज़ाक नहीं, मैत्री पूर्ण सहयोगी नहीं।  एक सीमित, सिमटी हुई सी दुनिया। पढ़ाई के नाम पर वैकल्पिक व्यवस्था-एक फोन या कम्प्यूटर। जिनके पास वह भी नहीं तो क्या करें। मां-बाप की रोज़ी-रोटी कमाने की क्षमता भी सीमित। कहां से लाकर दें स्मार्ट फोन?
समय रुकता नहीं, बीतता चला जाता है। लगभग डेढ़ साल से उनकी पढ़ाई प्रश्नों के घेरे में है। साल खराब न हो इसकी भी चिन्ता रही। स्कूल के स्तर पर तय हुआ कि बच्चों को अगली कक्षा में बिना परीक्षा के प्रमोट किया जाये जिसका औचित्य समझ आये न आये। 
प्रश्न बहुत वाजिब है—क्यों नहीं लिखते-पढ़ते हमारे बच्चे? क्यों पढ़ने-लिखने की संस्कृति सिरे से खत्म है? प्रतिभाएं हैं तो चमकती क्यों नहीं? नब्बे प्रतिशत से ज़्यादा अंक हासिल करने वाले बच्चे भी अंधेरे में क्यों खो जाते हैं? कुछ पढ़े-लिखे-सीखे बिना कैसे डिग्रियां हासिल कर लेते हैं? क्यों तमाम सुविधाओं के बावजूद पढ़ाई अधूरी छूट जाती है? क्यों हाशिये के मेहनतकश तबकों के बच्चों के  समान और गुणवत्ता वाली शिक्षा नहीं है? क्या मिड-डे-मील की खिचड़ी शिक्षा और आनलाइन क्लास से सबको शिक्षा और रोज़गार के समान अवसर मिलेंगे? बिना परीक्षा दसवीं-बारहवीं तक पास करते रहने के बाद डिग्रियां बटोर कर उन डिग्रियों का क्या करेंगे बच्चे?
इन सबके चलते प्राइवेट अध्यापकों की दशा और भी चिंताजनक है। कामर्स की ट्यूशन देने वाले एक अध्यापक डिप्रैशन में देखे गये। पहले पूरा दिन बच्चों के आने-जाने का सिलसिला बना रहता था। अब बहुत कम बच्चे आ रहे हैं। घर का किराया ट्यूशन सैंटर का किराया देना भी मुश्किल लग रहा है। 
कोविड के कारण शिक्षा में भारी परिवर्तन आये हैं परन्तु हमें हर सूरत में बच्चों के भविष्य के बारे में सोचना है।