पंजाब में अधिकाधिक हाकी एस्ट्रोटर्फ मैदानों की ज़रूरत

एस्ट्रोटर्फ मैदान अब हाकी के खेल से पूरी तरह जुड़ चुका है और अब घास के मैदानों पर खेलना संभव नहीं लगता। यूरोपियन देशों के पास बेशुमार ऐसे मैदान हैं और जिन देशों का हाकी के क्षेत्र में बहुत बुलंद स्थान है, उन देशों के खिलाड़ियों को यदि घास के मैदान पर हाकी खेलने को कहा जाए तो शायद ही वह कोई अंतर्राष्ट्रीय मैच अच्छी तरह खेल सकें। याद रहे कि 1976 में पहली बार नकली घास (एस्ट्रोटर्फ) का मैदान हाकी के लिए तैयार किया गया। उसके बाद हाकी का पूरा रूप ही बदल गया। ऐसे मैदान पर 3-4 करोड़ से लेकर 6-7 करोड़ रुपये तक का भी खर्च आता है। जालन्धर, अमृतसर, पटियाला, लुधियाना, चंडीगढ़, बंगलौर, लखनऊ, दिल्ली, मुम्बई, चेन्नई, कोलकाता, भोपाल, ग्वालियर, हैदराबाद आदि शहरों में यह मैदान हैं। अनेक शहरों में इनका अभी भी नामो-निशान नहीं। पंजाब के कई शहर हाकी को अभी भी अपना अमूल्य योगदान दे सकते हैं, यदि अधिक से अधिक  एस्ट्रोटर्फ मैदानों का प्रबंध हो। इस तरह के बहुत से शहर हैं जिन्होंने भारतीय हाकी की झोली में अंतर्राष्ट्रीय हाकी खिलाड़ी डाले परन्तु आज वहां एस्ट्रोटर्फ मैदानों की आवश्यकता है, इनकी कमी से हाकी प्रतिभा अलोप होती जा रही है। अमृतसर, जालन्धर, लुधियाना जैसे शहरों में कम से कम तीन-चार तो एस्ट्रोटर्फ मैदान चाहिएं, जिनका हाकी के क्षेत्र में बहुत बड़ा योगदान है। हालैंड जैसा देश जो भूगोलिक क्षेत्र और आबादी के लिहाज से पंजाब से कहीं छोटा है, में 500 से अधिक एस्ट्रोटर्फ मैदान हैं। इस समय हमारे देश में दूसरे देशों के मुकाबले मैदानी सुविधाएं काफी कम हैं। हम यदि यह उम्मीद रखें कि दूसरे देशों के मैदानों में जाकर भारत का तिरंगा लहराएं, हमें यह बात बनती नज़र नहीं आती। यह बात बड़े दुख के साथ कहनी पड़ती है कि हमारे नौनिहाल हाकी खिलाड़ी एस्ट्रोटर्फ मैदानों की कमी के कारण खास के मैदानों पर खेलना शुरू कर देते हैं। अल्प आयु में बच्चा जो सीख रहा होता है और जिस प्रकार उसे सिखाया जाता है, वह उसकी खेल शैली बन जाती है। एस्ट्रोटर्फ मैदानों की कमी का यही नुक्सान हमें हो रहा है।

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