बढ़ता जाता है ड्रैगन की दुष्टता का चक्र-व्यूह

भारत और चीन के बीच जो लद्दाख से अरुणाचल प्रदेश तक की 3,488 किमी की विवादास्पद वास्तविक नियंत्रण रेखा (एलएसी) है, उस पर चीन अपनी सैन्य उपस्थिति में वृद्धि कर रहा है। पीपुल्स लिबरेशन आर्मी (पीएलए) के लिए अधिक शेल्टर्स का निर्माण किया जा रहा है और सैन्य पोजीशनिंग को मजबूत करते हुए भारत की ओर रुख करने वाले एयर बेसों को अपग्रेड किया जा रहा है। जवाब में भारत ने भी अपने इन्फ्रास्ट्रक्चर में सुधार करते हुए एडवांस्ड हथियारों के साथ सेना की तैनाती में इजाफा किया है। जमीनी क्षेत्रों में के-9 सेल्फ-प्रोपेल्ड होइत्जर तोपें लद्दाख में तैनात की गई हैं ताकि मारक क्षमता को बढ़ाया जा सके। इस स्थिति में भारत के सेना प्रमुख जनरल मनोज मुकुंद नरवणे का यह बयान स्वाभाविक था कि ‘यह चिंता का विषय है कि पिछले साल (जब सीमा विवाद उठा था) बड़े पैमाने पर सेनाओं की जो तैनाती हुई थी, वह अब भी जारी है। इस प्रकार की तैनाती को बरकरार रखने के लिए चीन की तरफ  बराबर का इन्फ्रास्ट्रक्चर विकसित हुआ है। इसका अर्थ यह है कि वह, वहां ठहरना चाहता है। हम घटनाक्रम पर करीबी निगाह रख रहे हैं लेकिन अगर वह, वहां रुकना चाहता है तो हम भी वहां रुक सकते हैं।’
जनरल नरवणे का यह बयान भारत और चीन के बीच 13वें चक्र की वार्ता से एक दिन पहले आया था। उनके बयान से ही स्पष्ट हो गया था कि चीन पूर्वी लद्दाख में एलएसी विवाद को हल करने की बजाय उसे अधिक उलझाने के मूड में है, इसलिए इस विवाद को विस्तृत सीमा विवाद से जोड़कर गोल पोस्ट बदल रहा था, जैसा कि बीजिंग में भारत के राजदूत विक्त्रम मिस्री ने कहा। इस पृष्ठभूमि में यह आश्चर्य की बात नहीं है कि 10 अक्तूबर को चुशूल-मोल्डो सीमा के मीटिंग पॉइंट पर सुबह 10:30 से शाम 7 बजे तक हुई उच्च स्तरीय सैन्य वार्ता के 13वें  चक्र में भी कड़वा गतिरोध बना रहा। वार्ता में भारत का नेतृत्व 14 कोर कमांडर लेफ्टिनेंट-जनरल पीजीके मेनन ने किया था और चीन का नेतृत्व साउथ झिनजियांग मिलिट्री डिस्ट्रिक्ट के प्रमुख मेजर जनरल झाओ झिदान ने किया था। गौरतलब है कि 24 जनवरी 2021 को नवें चक्त्र की वार्ता में दोनों पक्षों ने तय किया था कि एलएसी पर जो टकराव के बिंदु हैं, वहां से फ्रंटलाइन सेना को जल्द हटाया जायेगा। इस समझौते के बाद डिसइंगेजमेंट शुरू हुआ भी, लेकिन चीन ने उसे बीच में ही रोक दिया। 13वें चक्त्र की वार्ता से उम्मीद थी कि हॉट स्प्रिंग्स-गोगरा-कोंगा ला क्षेत्र में पेट्रोलिंग पॉइंट-15 (पीपी-15) पर रुका हुआ डिसइंगेजमेंट पुन: आरंभ हो जायेगा, लेकिन इस संदर्भ में चीन एक इंच भी हटने के लिए तैयार नहीं हुआ। 
हालांकि इस वार्ता में गतिरोध बने रहने के लिए बीजिंग ने भारत की ‘अनुचित मांगों’ को कारण बताया है, लेकिन वास्तविकता यह है कि चीन अपनी भूमि विस्तारवादी नीति व विवादों में उलझाये रखने की रणनीति के चलते नई दिल्ली के ‘रचनात्मक सुझावों’ को भी स्वीकार नहीं कर रहा है और साथ ही पूर्वी लद्दाख में लगभग 17-माह पुराने सैन्य टकराव को खत्म करने के लिए कोई ‘प्रगतिशील सुझाव’ भी नहीं दे रहा है। दूसरे व स्पष्ट शब्दों में गतिरोध के लिए पूर्णत: चीन की हठधर्मिता दोषी है। इसका अर्थ यह है कि भारत व चीन ने पूर्वी लद्दाख में जो अपने-अपने 50,000 से 60,000 सैनिक तैनात किये हुए हैं, वे पिछले वर्ष की तरह इस साल भी बर्फीली ठंड बर्दाश्त करने के लिए मजबूर होंगे। सैनिकों को रोटेट अवश्य किया जाता है, लेकिन पूर्वी लद्दाख की कठिन भौगोलिक स्थितियों का निरंतर सामना करना प्रशिक्षित जवानों के लिए भी आसान नहीं होता है। ध्यान रहे कि पूर्वी लद्दाख में जाड़ों में तापमान माइनस 30 डिग्री तक गिर जाता है और ऑक्सीजन की भी जबरदस्त कमी हो जाती है।
चूंकि चीन पीपी-15 से भी हटने के लिए तैयार नहीं हुआ, बावजूद इसके कि उसने 9वें चक्र की वार्ता में वायदा किया था, इसलिए डेमचोक व डेपसांग के चार्डिंग निनग्लुंग नाला (सीएनएन) ट्रैक जंक्शन पर जो बड़ी समस्या है, उसका इस समय तो समाधान मुश्किल ही लग रहा है, खासकर इसलिए कि चीन ने अपना मुख्य वार्ताकार भी बदल दिया है। 12वें चक्त्र तक की वार्ता चीन ने मेजर जनरल (अब लेफ्टिनेंट जनरल) लिऊ लिन के नेतृत्व में की थी। 13वें चक्र की वार्ता के लिए नये पीएलए मेजर जनरल झाओ झिदान आये। बहरहाल, वार्ता में यह गतिरोध ऐसे समय आया है, जब पीएलए ने उत्तराखंड व अरुणाचल प्रदेश में भी एलएसी के पास अपनी घुसपैठ गतिविधियां बढ़ा दी हैं। इस गतिरोध में कड़वाहट का अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि दोनों पक्षों ने वार्ता के अगले दिन अलग-अलग सख्त वक्तव्य जारी किये, जबकि अतीत में वार्ता के उपरांत संयुक्त वक्तव्य जारी किया जाता था। संयुक्त वक्तव्य से यह आशा बनी रहती थी कि इस बार नहीं तो अगली बार समस्या का समाधान हो जायेगा यानी देर के बावजूद सही दिशा में आगे बढ़ा जा रहा है। 
लेकिन अलग-अलग सख्त वक्तव्य जारी करना यह संकेत दे रहा है कि स्थिति सुधरने की बजाय अधिक बिगड़ने की तरफ  बढ़ रही है। अब तो चीन की हरकतों की वजह से पूरी 3,488 किमी एलएसी पर ही तनाव है। भारत द्वारा जारी वक्तव्य में कहा गया है, ‘भारतीय पक्ष ने बल दिया कि शेष क्षेत्रों का समाधान करने से द्विपक्षीय संबंधों में प्रगति का मार्ग प्रशस्त होगा। इसलिए भारतीय पक्ष ने सकारात्मक सुझाव दिए, लेकिन चीनी पक्ष सहमत नहीं था और उसने कोई प्रगतिशील सुझाव भी पेश नहीं किये। अत: शेष क्षेत्रों के समाधान का बैठक में कोई नतीजा नहीं निकला।’ दूसरी ओर चीन के सैन्य प्रवक्ता ने भारत पर आरोप लगाया कि ‘वह अनुचित व अतार्किक मांगों पर बल देता रहा, जिससे वार्ता में कठिनाइयां बढ़ीं’। 
पीएलए के वक्तव्य से स्पष्ट है कि वह फरवरी में पेंगोंग त्सो-कैलाश रेंज क्षेत्र और अगस्त में महत्वपूर्ण गोगरा पोस्ट के निकट पीपी-17ए पर हुए डिसइंगेजमेंट से आगे जाने के लिए तैयार नहीं है। यहां यह बताना आवश्यक है कि पिछले साल अगस्त के अंत में गजब की बहादुरी दिखाते हुए भारतीय सैनिकों ने कैलाश रेंज की ऊंचाइयों पर कब्जा कर लिया था। इससे भारत अपनी शर्तों पर वार्ता करने की स्थिति में हो गया था लेकिन केवल पेंगोंग त्सो डिसइंगेजमेंट के बदले में भारत ने कैलाश रेंज को खाली कर दिया था। अब बाद के घटनाक्रम से ऐसा प्रतीत होता है कि भारत से यह बहुत बड़ी चूक हो गई है। उसे समस्या के पूर्ण समाधान तक कैलाश रेंज नहीं छोड़नी चाहिए थी। इसके अतिरिक्त गलवान घाटी में पीपी-14, गोगरा के निकट पीपी-17ए और पेंगोंग त्सो में जो डिसइंगेजमेंट के बाद नो-पेट्रोल बफर जोन 3 से 10 किमी का बना है, वह भी मुख्यत: उसी क्षेत्र में बना है जिसे भारत अपना कहता है। विशेषज्ञों के अनुसार, ये बड़ी चूकें हैं, जिनकी नई दिल्ली भरपाई तो कर लेगी, लेकिन समय लगेगा।
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