अतीत की ओर लौटती हुई तरक्की

लोग खुश थे कि देश तरक्की कर गया है। यहां इस खुशी को बढ़ाने वाले बहुत से बाज़ार थे। एक बाज़ार में तो शेयर बेचे और खरीदे जाते हैं। उन बाज़ारों में खुशी खुलती है। सरकार की पैसा लगाने वाली नीतियों के बारे में कोई और टैक्स छूट या राहत की घोषणा के साथ उनका दिल बल्लियों उछलने का सामां हो जाता है। ऐसे बाज़ारों की खबर अखबारों में छपती है। रोज़ सुबह वे अगर आसमां छू लें, तो अट्टालिकायें आकाश छूने लगती हैं। गिर कर धराशायी हो जायें तो इन प्रासादों की बत्तियां बुझ जाती हैं। लेकिन इन आंकड़ों का कोई सम्बंध फुटपाथी लोगों से नहीं होता। उनसे पूछने जाओ तो वे शायद इन शेयर प्रमाण-पत्रों को पहचानें भी नहीं। वे तो अपने राशन कार्डों को पहचानते हैं, जिनका रंग कभी बदल कर पीला और फिर बढ़ती भीड़ के कारण न चलने पर काला हो जाता है। 
इन लोगों की ज़िन्दगी आधार कार्ड की पहचान और खैराती कार्ड के एहसास के बीच लटकी रहती है। उन्हें भला इन शेयर प्रमाण-पत्रों से क्या लेना? हां, भई केवल अपने दो बार कोविड निरोधी टीका लगवा लेने के  प्रमाण-पत्रों को न भूलना, नहीं तो एक शहर से दूसरे शहर में जाना कठिन हो जाएगा। लेकिन एक शहर से दूसरे शहर में जाकर करेंगे भी क्या? कोरोना वायरस जब धूर्त्त होकर रंग बदल लेता है, तो कभी गांवों से शहरों में पेट की आग बुझाने और अपने परिवारों को ज़िन्दा रखने के लिए आये कामगारों के हुज़ूम वापस अपने गांवों का रुख करते हैं, दूसरे शहरों का नहीं। जी हां, वही कामगार जो अच्छे दिनों की तलाश में कभी इन शहरों में आये थे, कि यहां उन्हें भरा हुआ टिफिन मिलेगा, और उनके बच्चे को भरी हुई पुस्तकों का बस्ता। यही उनके वे ‘अच्छे दिन’ थे कि जिनका वायदा उनसे हर वर्ष तिरंगा फहराने के साथ लाल किले की प्राचीर से किया जाता था। तिरंगा फहराता रहा, लोग भावुक होकर चिल्लाते रहे, ‘झंडा ऊंचा रहे हमारा।’ आंकड़ा शास्त्रियों ने सदा इस देश भक्त भाषण को दुलराया। उनके वक्तत्य कहते हैं, ‘कोरोना काल के आर्थिक तोड़-फोड़ के दिन खत्म हुए।’ धर्म स्थानों के उत्सव, पहाड़ों पर जुटती भीड़ और बाज़ारों से लेकर होटलों तक लौटे बेनकाब लोग आज महीनों बाद मिली मुक्ति का स्वागत करते हैं। 
देश जागरूकता और विकास की राह पर लौट गया है... सरकारी विज्ञप्तियों ने हमें बताया है। शेयर मार्किटों के सूचकांक उछल कर नये शिखर छूने लगे हैं। गोता लगाती हुई विकास दर न केवल तल पर लौटी बल्कि एक नये ज्वार का शुबहा पैदा कर रही है। सूचकांक कहते हैं, विकास दर की उछाल सम्पन्न पुराने दिनों को वापस ला रही है। इन्टरनैट के रोज़गारों को देखो, नौकरियां अधिक और काम करने वाले कम हैं। कार बाज़ारों में जाकर देख लो, छोटी कारों की बिक्री आशातीत बढ़ रही है। बेकारी की वृद्धि दर में कमी आई है। महंगाई का शोर मचाने वालो, तनिक देखो तो। अब न तो परचून कीमतों के सूचकांक, और न ही थोक कीमतों का उछाल इतना भयावह लगता है। लगता है, देश कोरोना मुक्त ही नहीं हुआ, तरक्की के आंकड़े भी गिरावट मुक्त हो गये। जल्द ही कोरोना से पैदा हुई आर्थिक तोड़-फोड़ की मरम्मत कर दी जाएगी। देश अच्छे दिन आने के सपनों की लीक पर लौट आयेगा। स्वप्नजीवी लोग उत्सवधर्मी हो रहे हैं। त्योहारों का मौसम है, खुले पवित्र दिनों की आमद है, लाखों की भीड़ आस्था और धर्म के दरबारों में जुटने लगी है। 
तरक्की के सपने देखना अच्छा लगता है, लेकिन विश्व में प्रसारित हुए उस नये भुखमरी सूचकांक का क्या करें जो यह बता रहा है कि दुनिया में भूख से मरने वाले देशों की इस सूची में अपना देश कुछ सीढ़ियां और नीचे उतर गया। आप कहते हैं, कीमतों पर नियन्त्रण हो रहा है, खाद्य पदार्थों के और सस्ता हो जाने की उम्मीद है और उधर इन खाद्य पदार्थों को ढोने वाले वाहनों में डलने वाला पैट्रोल और डीज़ल नित्य महंगा हो गया। हर नई सवेर उसकी एक और छलांग की खबर ले आती है। सरकार भी क्या करे? उस पर लदा है आयल बांड का कज़र्, उसके ब्याज का भुगतान, मुंह चिढ़ाता हुआ राजस्व का खाली खज़ाना और बेचारी पैट्रोल कम्पनियां। पहले कोरोना में उनका तेल नहीं बिका, अब बढ़ती कीमतों ने इसकी बिक्री के हाथ बांध दिये। इनकी भी तो सुध लेनी है।
इस लिए पैट्रोल उत्पाद की कीमतें घटा कर उन उद्योगों पर वज्रपात कैसे कर दें। वज्रपात होना है तो शहरों से गांवों की ओर पलायन करते हुए इन कामगारों पर होना है, जहां उनके लड़खड़ाते खेत उन्हें संभालते नहीं। मध्यम, लघु और कुटीर उद्योगों की घोषणायें केवल नाम पट्टों तक सीमित रहती हैं, उनकी जिन्दगी में उतरती नहीं, लेकिन इसमें विसंगति क्या? अगर लौटता है देश में चलाने के लिए साइकिल युग और जलाने के लिए उपला युग तो यह अच्छा ही है न! अपना अतीत से जुड़े रहना अच्छा होता है, ऐसा हमारे बड़े बूढ़ों ने भी तो सदा सिखाया है।