शहीदी दिवस पर विशेष  गुरु तेग बहादुर साहिब की शहादत ने बदली इतिहास की दिशा

नौवें गुरु, गुरु तेग बहादुर जी का जन्म मीरी-पीरी के मालिक गुरु हरिगोबिन्द जी और माता नानकी जी के घर  अप्रैल, 1621 ईस्वी (वैसाख सुदी 5, संवत 1678) को श्री अमृतसर में हुआ। गुरु हरिगोबिन्द साहिब के पांचवें और सबसे छोटे साहिबज़ादे के जन्म की खबर सुन कर पूरे शहर में खुशी की लहर दौड़ गई थी। गुर बिलास पातशाही छठी में गुरु तेग बहादुर जी के जन्म के समय की एक बड़ी ऐतिहासिक घटना का वर्णन मिलता है। पिता गुरु, गुरु हरिगोबिन्द पातशाह ने बालक गुरु तेग बहादुर जी के जन्म पर बड़ी खुशी व्यक्त की और बालक की बहुत सम्मान से वंदना की। जब भाई बिधि चंद ने हैरान होकर प्रश्न किया कि गुरु जी आप ने इस बालक की वंदना क्यों की है? तब गुरु जी ने भविष्यवाणी की थी कि यह बालक गुरु बन कर दीन की रक्षा करेगा और लोगों को संकट से मुक्ति दिलायेगा।
इतिहास गवाह है कि गुरु हरिगोबिन्द जी की यह भविष्यवाणी अक्षरश: सत्य साबित हुई थी और गुरु तेग बहादुर जी ने दीन धर्म की रक्षा के लिए, जनमानस के संकट दूर करने के लिए अपनी शहादत दी थी। 
गुरु साहिब की शहादत का वृत्तांत इतिहास के पृष्ठों पर गौरवमय ढंग से दर्ज है। इतिहास बताता है कि देश बड़े नाज़ुक दौर में से गुज़र रहा था। धर्म की, विचारों की आज़ादी लोगों से छीन ली गई थी। तअस्सुब और भेद-भाव का राज था। तिलक और जनेऊ जब्री उतारे जा रहे थे। इस पूरे हालात में कश्मीर के पंडित कृपा राम अपने सैकड़ों साथियों को साथ लेकर आनंदपुर साहिब में गुरु साहिब के दरबार में उपस्थित हुए थे। हिन्दू धर्म का नेतृत्व करने वाले इन सभी ब्राह्मणों के चेहरे उतरे हुए थे, मन बुझा हुआ था परन्तु एक आशा की किरण उनको गुरु के दरबार की ओर खींच लाई थी। ब्राह्मणों ने करुणा भरे स्वर में धर्म की आज़ादी पर आए संकट का पूरा विवरण सुनाया। सारी व्यथा सुन कर गुरु साहिब ने उत्तर दिया कि इस आज़ादी को बरकरार रखने के लिए किसी महान पुरुष के शीश की कुर्बानी की आवश्यकता है। उस समय नौ वर्षीय बालक, गोबिन्द राय ने उन ब्राह्मणों की भीगी आंखें देख कर कहा था, ‘गुरदेव पिता! आपसे बड़ा महान-पुरुष इस युग में और कौन हो सकता है? कौन इनके दुख दूर करने के लिए अपनी शहादत दे सकता है?’ गुरु तेग बहादुर साहिब बालक गोबिन्द राय के गंभीर वचन सुन कर बहुत प्रसन्न हुए। उनको विश्वास हो गया कि उनका गोबिन्द राय जन्म से बख्शिशें लेकर आया है और वह लोगों का सही मार्गदर्शन कर सकता है। गुरु साहिब ने अपने शीश की कुर्बानी देने का फैसला कर लिया और आखिरकार दिल्ली पहुंच कर चांदनी चौक में अपनी शहादत दे दी। इस पूरे वृत्तांत के हवाले से मुझे यहां एक समकालीन भट्ट की लिखीं ये पंक्तियां बड़ी शिद्दत से याद आती हैं :
बांहि जिन्हां दी पकड़ियै, 
सिर दीजै बांहि न छोड़ियै। 
तेग बहादुर बोलिया, 
धर पईयै धर्म न छोड़ियै।
पिता गुरु तेग बहादुर साहिब की शहादत को अपनी अकीदत भेंट करते हुए गुरु गोबिन्द सिंह जी ने कहा था-‘तिलक जंझु राखा प्रभ ताका, कीनो बड़ो कलू मै साका’। हकीकत है कि तिलक और जंझु की रक्षा के लिए अपनी शहादत देने वाले गुरु तेग बहादुर पातशाह, स्वयं तिलक और जंझु के धारणी नहीं थे अपितु यह भी एक ऐतिहासिक सच्चाई है कि प्रथम गुरु, गुरु नानक देव जी ने जंझु पहनने से इन्कार कर दिया था और उनके इस फैसले के पीछे एक बड़ी सैद्धांतिक विचारधारा थी। परन्तु जब तिलक और जंझु पर संकट आया और मामला धर्म की, विचारों की आज़ादी का बन गया तो नौवें गुरु, गुरु तेग बहादुर साहिब ने शहादत दे दी।
एक और अहम नुक्ते बारे यहां बात करना चाहता हूं। शहादत के संदर्भ में, गुरु तेग बहादुर पातशाह की वाणी-रचना के अंतरीव भाव को समझना भी आवश्यक है। जानी-पहचानी हकीकत है कि उनकी वाणी के प्रसार में बैराग की प्रधानता है। संसार नाशवान है, रेत की दीवार की तरह है। शरीर स्थिर रहने वाला नहीं, मनुष्य पानी के बुलबले की तरह उपजता है और नष्ट हो जाता है। दुनियावी रिश्तों का मोह झूठा है, इन तत्थों की ओर उनकी वाणी बार-बार संकेत करती है। परन्तु यहां यह स्पष्ट करना आवश्यक है कि गुरु तेग बहादुर साहिब का बैराग नकारात्मक नहीं, न ही हकीकत से बेगाना है। यह बैराग संसार से उपरामता नहीं, निराशता नहीं। यह बैराग ज़िम्मेदारी से भागना नहीं। इस सच्चाई को सदा याद रखना चाहिए कि अपनी ज़िम्मेदारी से भागना गुलामी का कारण बनता है। इतिहास साक्षी है, अपनी ज़िम्मेदारी दूसरों पर डाल देने की फितरत ने ही हिन्दोस्तान को सदियों तक गुलाम बनाए रखा। वास्तव में जिस त्याग की बात गुरु साहिब ने की है, वह ज़िम्मेदारी को निभाने का पैगाम देता है। ज़िम्मेदारी से भाग जाने और पलायन कर जाने की उसमें कोई गुंजाइश नहीं। गुरु साहिब ऐसे मानवीय जीवन को सार्थक मानते हैं जो ‘भय मुक्त’ जीवन जीता है। न किसी से भयभीत होता है, न ही किसी को भयभीत करता है। शांति और अहिंसा के नैतिक मूल्यों की रक्षा, मनुष्य भय से मुक्त होकर ही कर सकता है। गुरु साहिब का यह प्रमुख वाक्य पूरी मानवता का मार्गदर्शन करता है :
भै काहु कऊ देत नहि नहि भै मानत आन।।
कहु नानक सुनि रे मना ज्ञानी ताहि बखानि।।
 संक्षेप में कहा जा सकता है कि हक और सत्य पर पहरा देते हुए गुरु तेग बहादुर पातशाह ने जो शहादत दी उसकी गाथा इतिहास में सुनहरी अक्षरों में अंकित है। मानवता पर गुरु जी के बड़े उपकार को कलमबद्ध करना बहुत मुश्किल है।