जनता उम्मीद में है

हमारे देश में सबसे आसान काम अगर कोई है तो वो है जनता में उम्मीद जगाना। जनता बस तैयार बैठी रहती है उम्मीद लगाने के लिए। बस एक-दो मुद्दे तबीयत से उछालो। दो-चार बार गरीब-गरीबी, शोषित-पीड़ित, बैंक दिवाला- सरकारी घोटाला, मंदिर-मस्जिद, रोजगार-भ्रष्टाचार आदि का जाप करिए। वंशवाद-तानाशाही को गाली दीजिये, चाय वाले और खोमचे वाले की बात करिए। कभी जनता के दुखों पर टसुए बहाइए, कभी विकास का घंटा बजाइए। बस फिर क्या? जनता उम्मीद लगाने लगता है। पिछले सत्तर सालों से हर चुनाव में जनता उम्मीद से हो जाती है और चुनाव का परिणाम आते ही उसकी उम्मीदों की, भ्रूण हत्या  हो जाती है लेकिन हमारे भाग्य विधाता, तब कोई और नई उम्मीद जगा देते हैं और जनता फिर उम्मीद करने लगती है। पहले प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू ने 50 के दशक में चीन के साथ दोस्ती की उम्मीद, ‘हिन्दी-चीनी भाई भाई‘ कह कर जगाई लेकिन हुआ इसका उल्टा और हालात इतने खराब होते चले गए कि भारत-चीन युद्ध भी हो गया और जनता की उम्मीद टूट गयी। फिर शास्त्री जी ने ‘जय-जवान, जय-किसान‘ कहकर देश के किसानों और जवानों में उम्मीद जगाई लेकिन अब तो हालात ये हो गए हैं कि ऐसा कोई दिन नहीं गुजरता जब कोई किसान आत्महत्या न करे। कोई हफ्ता नहीं गुजरता जब हमारा कोई जवान शहीद न हो रहा हो।
कभी कांग्रेस ने ‘गरीबी हटाओ’ कह कर उम्मीद जगाई। जनता आज तक नहीं समझ पाई कि गरीबी किसकी हटी? कांग्रेसी नेताओं की या जनता की। हालांकि उस समय जनता अपनी गरीबी हटाने को सोचकर उम्मीद लगती थी लेकिन उसकी उम्मीद पचास साल बाद भी पूरी नहीं हुई। एक बार फिर जनता की उम्मीद टूटी। इन्दिरा को हटाकर बाबा जय प्रकाश नारायण ने ‘संपूर्ण क्र ांति, इन्दिरा हटाओ, देश बचाओ’ से जनता में उम्मीद जगाई लेकिन इन्दिरा को हटाते हटाते खुद ही हट गए, बिखर गए और जनता की उम्मीद फिर टूट गयी। 
कभी समाजवादियों ने, ‘धन और धरती बंट के रहेगी, भूखी जनता चुप न रहेगी’, ‘जिंदा कौमें पांच साल तक इंतजार नहीं करतीं‘, ‘महंगाई को रोक न पाई, यह सरकार निकम्मी है,’ जो सरकार निकम्मी है, वह सरकार बदलनी है’, ‘संसोपा ने बांधी गांठ, पिछड़े पावें सौ में साठ’ आदि कहके जनता की उम्मीद जगाई थी लेकिन 95 प्रतिशत से ज्यादा जनता आजतक धन और धरती के बंटने के इंतजार में है। पाँच साल तो छोड़ो, अब तो सरकारें पचास साल तक फिक्स होना चाहती हैं। सौ में साठ की उम्मीद लगाने वाले अभी और 60 साल तक इसी उम्मीद में रहेंगे। 
कम्युनिस्ट नेताओं ने देश आजाद होने के बाद यह कहकर जनता में उम्मीद जगाई थी कि ‘देश की जनता भूखी है, यह आजादी झूठी है’ और बाद में, ‘लाल किले पर लाल निशान, मांग रहा है हिंदुस्तान’ कहकर जनता में उम्मीद जगाई लेकिन देश की जनता आज सत्तर साल बाद भी 5 किलो चावल और एक किलो चने के लिए लाइन लगाए खड़ी है। जनता तब भी भूखी थी, अब भी भूखी है। जनता की उम्मीद तब से लेकर अब तक झूठी है।
कभी किसी राजा ने ‘राजा नहीं फकीर है, देश की तकदीर है’ से जनता में उम्मीद जगाने वाले भी जनता की तकदीर न बदल पाये। नेता और जनता सालों से वही लकीर के फकीर बने रहे। चुनावी मौसम में जनता उम्मीद से होती है और नेताओं के राजा बनते ही जनता की उम्मीद फिर ढह जाती है। 
बीजेपी ने ‘अबकी बारी, अटल बिहारी’ से उम्मीद जगाई लेकिन जनता अब भी मारी मारी फिर रही है। फिर कांग्रेस ने ‘कांग्रेस का हाथ, आम आदमी के साथ’ के साथ दुबारा उम्मीद जगाई, लेकिन कांग्रेस का हाथ, जनता के गाल पर ऐसा पड़ा कि जनता आज तक सहला रही है। इसी बीच अन्ना ने जनता की तमन्ना जगाई, जनता ने फिर उम्मीद लगाई। लोकपाल पाने और भ्रष्टाचार मिटाने के सपने सजाने वाली जनता, आजकल अपने देश के ही एक समूह को टाइट करने में बिजी हो गई। उसके सपनों को सच करने के लिए सपनों के सौदागर प्रकट हुये। 
लोग कहते हैं कि काठ की हांडी बार-बार नहीं चढ़ती लेकिन जनता की उम्मीद की हांडी बार-बार हर चुनाव में, हर पार्टी से चढ़ जाती है। हर चुनाव में जनता में उम्मीद जगती है कि इस बार उसके मुद्दे हल होंगे। सबको समान शिक्षा और स्वास्थ्य की व्यवस्था होगी। उनके बच्चों को सम्मान-जनक काम धंधा मिलेगा लेकिन हर बार चुनाव में नई उम्मीद जागना क्या कम है। जनता की इसी उम्मीद पे ही तो लोकतंत्र कायम है।  (युवराज)