कानूनों एवं अदालतों के माध्यम से आगे बढ़ रहा है हिंदुत्व

भाजपा और संघ परिवार की आलोचना करने वाले बुद्धिजीवियों और उनके ़िखलाफ खड़ी राजनीतिक शक्तियों की यह समझ में नहीं आ रहा है कि वे बनारस के ज्ञानवापी प्रकरण या मथुरा के कृष्ण जन्मस्थान से जुड़े विवादों से कैसे निबटें? ऊपर से देखने पर सरकार और भाजपा इन प्रकरणों में आधिकारिक रूप से शामिल नहीं हैं। अयोध्या मसले पर सुप्रीम कोर्ट का फैसला आने के बाद नरेंद्र मोदी और मोहन भागवत ने स्पष्ट रूप से कहा था कि राम मंदिर के मसले के अलावा उनकी दिलचस्पी और किसी धर्मस्थल से जुड़े विवाद में नहीं है। यानी, यह राजनीति और उसकी दावेदारियां अयोध्या के दायरे से बाहर नहीं जाएंगी। अब जब ये दोनों प्रकरण कानूनी ज़मीन पर घटित हो रहे हैं, और संघ परिवार की तरफ से यह कहा जाने लगा है कि सच्चाई सामने आनी चाहिए, तो इस अंदेशे पर ़गौर करना ज़रूरी है कि क्या यह हिंदुत्ववादियों की कोई विशिष्ट रणनीति तो नहीं है। दरअसल, समस्या केवल काशी और मथुरा तक सीमित नहीं है। कोई कहता है कि इस तरह के धार्मिक विवाद दस हज़ार से ज़्यादा हैं, तो कोई कहता है कि इनकी संख्या तीस हज़ार या साठ हज़ार से ऊपर है। ज़ाहिर है कि यह बर्र के छत्ते के समान है। अगर हिंदुत्ववादी चाहें तो अनंतकाल तक इस तरह के विवादों को हवा देते रह सकते हैं।  
स्पष्ट रूप से इन मसलों पर कोई लोकप्रिय जनगोलबंदी नहीं की जा रही है। इन्हें चुनावी मसला बनाने का प्रयास नहीं है। अगर होता तो हाल ही में सम्पन्न हए उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव में इन मुद्दों को आजमाया जा सकता था। यह भी एक ह़क़ीकत है कि 2019 के लोकसभा चुनावों से ठीक पहले संघ परिवार ने मोदी सरकार पर दबाव डाला था कि वह संसद से कानून बना कर राम मंदिर बनाने का रास्ता स़ाफ करे। संघ परिवार ने इस सवाल पर सुप्रीम कोर्ट पर दबाव बनाने के लिए रामलीला मैदान में गोलबंदी भी की थी। लेकिन, 2020 की पूर्व संध्या पर नरेंद्र मोदी ने दबाव में आने से इन्कार करते हुए कह दिया था कि संसद इस मसले पर हस्तक्षेप नहीं करेगी। इसे सर्वोच्च अदालत ही हल करेगी, भले ही इसमें कुछ देर क्यों न हो। कुल मिला कर इस प्रश्न पर प्रधानमंत्री की ही चली। संघ परिवार ने अपना आंदोलन वापिस ले लिया। समीक्षकों ने इसे भागवत के ऊपर मोदी की जीत की संज्ञा दी। जो भी हो, इस प्रकरण से यह स्थापित हो गया कि इस तरह के मसलों पर हिंदुत्ववादी पक्ष अदालत और सेकुलर ़कानून के ज़रिये जीत हासिल कर सकता है। चूंकि इस समय देश में हिंदुत्ववादियों की ही सरकार है, उसका सिक्का जम चुका है, और निकट भविष्य में चुनावी ज़मीन पर उनकी पराजय होने की कोई संभावना नहीं दिखती, इसलिए मोदी के नेतृत्व में भाजपा और भागवत के नेतृत्व में संघ ऐसे विवादों पर राजनीतिक गोलबंदी करने से परहेज़ करते हुए दिख रहे हैं। उनका फोकस इन प्रश्नों को अदालत और ़कानून के माध्यम से निबटाने पर प्रतीत हो रहा है। 
ध्यान रहे कि न तो अदालतों को धार्मिक श्रेणी में डाला जा सकता है, और न ही कानून को। औपचारिक रूप से कहें तो ये दोनों सेकुलर या ़गैर-धार्मिक श्रेणी में ही आती हैं, लेकिन हिंदुत्ववादी पक्षकारों को पक्का यकीन है कि अंतत: अदालत और कानून द्वारा उनकी बात ही सही मानी जाएगी। उनका यह विश्वास यूं ही नहीं है। इसके पीछे एक घटनाप्रद इतिहास है। एक ऐसा इतिहास जिसके तहत हिंदुत्ववादी राजनीति और चिंतन के मर्म को सेकुलर कानून द्वारा चली प्रक्रियाएं पुष्ट करती नज़र आती हैं।  विधि का क्षेत्र किस तरह हिंदू बहुसंख्या को बहुसंख्यकवादी रूप देता है, इसका एक बहुत बड़ा सबूत अयोध्या प्रकरण से जुड़े मुकद्दमे से ही मिल सकता है। रत्ना कपूर ने अपनी दो विश्लेषणात्मक रचनाओं में दिखाया है कि भारतीय हाई कोर्टों और सुप्रीम कोर्ट के कई फैसले साठ के दशक के बाद से ही दो रास्ते खोलते हुए दिखाई पड़ते हैं—पहला, वे हिंदू धर्म को एक समरूप शास्त्रोक्त संहिता के तहत परिभाषित करने की गुंजाइशें बनाते हैं और अयोध्या प्रकरण आते-आते यह प्रक्रिया अपने चरम पर पहुंच कर हिंदुत्ववादी दावेदारियों को मज़बूत करती हुई दिखती है। दूसरा, हमारी ऊंची अदालतें धर्म की स्वतंत्रता के प्रश्न पर होने वाली बहस में जाने-अनजाने हिंदुत्ववादी एजेंडे को सुदृढ़ करती हैं। बहुचर्चित हिंदुत्व मुकद्दमे में वे ‘हिंदुत्व’ और ‘हिंदू धर्म’ के बीच अंतर करने से इन्कार करती हैं, और फिर अयोध्या के मसले पर हिंदुत्ववादी पक्ष की यह दलील मान लेती हैं कि हिंदुओं के लिए धार्मिक स्वतंत्रता का मतलब उपासना की व्यक्तिगत स्वतंत्रता ही नहीं है, बल्कि एक ़खास जगह पर सामूहिक रूप से पूजा करने का अधिकार भी उनके धर्म का अनिवार्य अंग है। ़खास बात यह है कि अल्पसख्यक समुदायों के संदर्भ में हिंदुत्व का आग्रह यह होता है कि धार्मिक स्वतंत्रता का अधिकार सामूहिक नहीं बल्कि व्यक्तिगत होना चाहिए। भाजपा अपने संविधान में धार्मिक स्वतंत्रता की परिभाषा इसी तरह से करती है, लेकिन अयोध्या मसले पर उसके पक्षकार अपना रवैया बदल कर सामूहिक रूप से पूजा करने के अधिकार की वकालत करने लगते हैं। इस तब्दीली पर सवालिया निशान लगाने के बजाय कानून हिंदुत्ववादी हाथों में खेलता नज़र आता है। 
यह उदाहरण काशी और मथुरा के विवादों से सीधा जुड़ता है। लेकिन, अगर हम अपने विमर्श को यहीं तक सीमित रखेंगे तो पूरी बात समझ में नहीं आएगी। मसला बहुत पेचीदा है। जैसे, भीमराव अम्बेडकर किसी भी मायने में हिंदू राष्ट्रवादी नहीं थे, लेकिन कानून मंत्री के तौर पर उनके बनाये गए हिंदू विवाह कानून के कारण हिंदुत्ववादियों को आज ‘हिंदू’ दायरे का ज़बरदस्त विस्तार करने का मौका मिल गया है। सावरकर की यह थीसिस कि जिनकी पुण्य भूमि और पितृ भूमि भारत है, वे सभी हिंदू हैं—हिंदू होने की कानूनी परिभाषा में साकार होती हुई दिख रही है। 1955 के हिंदू विवाह कानून और 1956 के हिंदू उत्तराधिकारकानून के दायरे में न केवल स्वयं को सनातनी, आर्यसमाजी, वैष्णव, शाक्त, शैव मानने वालों के साथ-साथ द्विज और शूद्र जातियां आती हैं, बल्कि इस दायरे में सभी अनुसूचित जातियां और अनुसूचित जनजातियां भी आती हैं। केवल इतना ही नहीं, यह दायरा बौद्धों, जैनों और सिखों को भी अपने आगोश में ले लेता है। इन ़गैर-हिंदू धर्मों (जिनकी पुण्य भूमि और पितृ भूमि भारत है) का पारिवारिक जीवन हिंदू ़कानून से ही संचालित होता है। 
यहां यह देखना दिलचस्प होगा कि डॉ. अम्बेडकर ने इस विषय पर क्या कहा था : ‘जब कानून मंत्री डॉ. अम्बेडकर ने पहली बार 1951 में हिंदू कोड बिल पेश किया तो सिखों के प्रवक्ता सरदार हुकुम सिंह ने उस विधेयक को ‘हिंदुओं द्वारा सिखों को भी अपने दायरे में समा लेने वाले संदिग्ध प्रयास के रूप में देखा’। इस पर डॉ. अम्बेडकर का जवाब था, ‘सिखों, बौद्धों और जैनों पर हिंदू कोड लागू करना एक ऐतिहासिक विकासक्रम का परिणाम है और इस पर समाजशास्त्रीय दृष्टि से आपत्ति बहुत देर से की जा रही है। जब बुद्ध ने वैदिक ब्राह्मणों से असहमति व्यक्त की थी, तो उन्होंने ऐसा केवल धर्मसार (क्रीड) के संदर्भ में किया था। उन्होंने हिंदू कानूनी ढांचे को वैसा का वैसा ही रहने दिया था। उन्होंने अपने अनुयायियों के लिए अलग से कानून का प्रवर्तन नहीं किया था। महावीर और दसों सिख गुरुओं के मामले में भी ऐसा ही है। 1830 में प्रिवी काउंसिल ने भी फैसला दिया था कि सिख हिंदू ़कानून से ही शासित होंगे।’ 
(लेखक अम्बेडकर विश्वविद्यालय, दिल्ली में प्रोफैसर और भारतीय भाषाओं में अभिलेखागारीय अनुसंधान कार्यक्रम के निदेशक हैं)