पर्यावरणीय संरक्षण हेतु जन-प्रतिबद्धता ज़रूरी

देश की नदियों का हाल बेहद खराब है। नदियां अपने तटवर्ती नगरों का मलिन जल तो ढोती ही हैं, यहां स्थित चमड़ा, रसायन, कागज, चीनी, इस्पात संयंत्र, उर्वरक, खाद्य प्रसंस्करण, रंगाई-छपाई आदि उद्योगों का अपशिष्ट जल भी इसमें गिराया जाता है। योजना आयोग की स्वीकृति है कि ‘उत्तर की डल झील’ से लेकर दक्षिण की पेरियार और चालियार नदियों तक, पूरब में दामोदर तथा हुगली से लेकर पश्चिम की ढाणा नदी तक जल प्रदूषण की स्थिति भयावह है।’ नदी जल का तापमान, क्षारीयता, कठोरता, क्लोराइड की मात्रा, पी.एच. मान, बी.ओ.डी. आदि में लगातार असंतुलन पैदा हो रहा है। अब यह न्यूनतम स्तर से बहुत अधिक और जटिल हो चुका है। हुगली, दामोदर, चम्बल, तुंगभद्रा, वरुणा, सोन, कावेरी, हिंडन, गोमती, सई, तमसा जैसी कई नदियों में मत्स्य प्रजातियां, जलीय जीव और शैवाल सदैव के लिए समाप्त होते जा रहे हैं। विभिन्न अध्ययनों के अनुसार, इनमें कई नदियां मौत की दिशा में अग्रसर हैं। 
देश की सर्वाधिक पवित्र समझी जाने वाली गंगा नदी में नवें दशक के आस-पास प्रदूषण खतरनाक स्तर तक पहुंच गया था। तब सामाजिक कार्यकर्ताओं, बुद्धिजीवियों और स्वयंसेवी संगठनों ने ‘गंगा बचाओ’ की ज़ोरदार गुहार की थी। परिणामत: जून, 1985 में पर्यावरण मंत्रालय द्वारा ‘गंगा कार्ययोजना’ के अन्तर्गत ‘गंगा सफाई प्राधिकरण’ का गठन किया गया। 14 जून, 1988 को तत्कालीन प्रधानमंत्री राजीव गांधी ने वाराणसी के राजेन्द्र प्रसाद घाट से 260 करोड़ रुपये वाली गंगा कार्य योजना का क्रियान्वयन किया। इसके अन्तर्गत गंगा के तटवर्ती क्षेत्रों में मलोपचार संयंत्रों की स्थापना, टेनरियों आदि के अपशिष्ट जल के उपचार, शवदाह गृहों का निर्माण, आबादी के पास ढलानों पर सामुदायिक शौचालयों का निर्माण, समय-समय पर नदी जल व जल-जीवों का पर्यवेक्षण एवं गुणवत्ता का प्रयास जैसी कई परियोजनाएं संचालित हैं। 
इसके अलावा भी नदियों के जल प्रदूषण को कम करने के लिए अनेक कार्यक्रमाें का संचालन हो रहा है। इसी के तहत केन्द्र सरकार द्वारा 3 जुलाई, 1995 को देश की 18 नदियों के सफाई के एक व्यापक ‘राष्ट्रीय नदी कार्यक्रम’ की शुरुआत की गई है। नदियों में प्रदूषण निवारण हेतु ‘जल प्रदूषण निरोधन एवं नियंत्रण अधिनियम-1974’ एवं ‘जलकर (प्रदूषण नियंत्रण) अधिनियम-1979’ जैसे कानून देश में थे, मगर इनके सशक्त क्रियान्वयन का सदैव अभाव रहा है। बाद में ‘पर्यावरण (रक्षण) अधिनियम 1986’ आया जो परवर्ती कानूनों से व्यापक और कठोर है। इसके जरिए औद्योगिक इकाइयों के प्रदूषणकारी बहिर्स्रावों को नदियों में प्रवाहित करने पर रोक लगा दी गई है। मोदी सरकार द्वारा ‘नमामि गंगे मिशन’ का प्रस्ताव करते हुए वित्तमंत्री अरुण जेटली ने वर्ष 2014-15 के बजट में इसके लिए 2073 करोड़ रुपये की धनराशि का प्रावधान किया था। गंगा के निर्मलीकरण के लिए प्रवासी भारतीय समुदाय को प्रोत्साहित करके वित्त संग्रह का प्रयास भी चला।’
विगत अढ़ाई दशक के बीच पर्यावरण की सुरक्षा और पारिस्थितिकी तंत्र की संरक्षा की चेतना काफी हद तक जागृत हो चुकी है। देश में पर्यावरण मंत्रालय ने प्रदूषण नियंत्रण के लिए राष्ट्रीय नीति की घोषणा की है। इसके अनुसार औद्योगिक प्रतिष्ठानों को अनिवार्य रूप से वार्षिक पर्यावरण परीक्षण कराना होगा। साथ ही वायुमंडल में प्रसारित होने वाले प्रदूषकों को इनके स्रोत पर ही रोक देने वाली तकनीक, यथा इलेक्ट्रोस्टैटिक प्रेसिपिटेटर युक्त चिमनी वगैरह पर वित्तीय प्रोत्साहन का प्रावधान है। 
सन् 1972 में संयुक्त राष्ट्र संघ के तत्वावधान में स्टाकहोम में पर्यावरण पर प्रथम सम्मेलन आयोजित हुआ था। इसे बौद्धिक वर्ग में भी खास तवज्ज्जो नहीं मिली थी। यह मात्र आभिजात्य वर्ग की बैठकों की चर्चा का विषय बनकर रह गया था। किन्तु बीस साल बाद सन् 1992 में रियो-डि-जानिरो में सम्पन्न ‘पृथ्वी शिखर सम्मेलन’ मेंब पर्यावरण के संरक्षण, संवर्द्धन और संपोषण के मुद्दे को जन सामान्य के बीच जिस प्रकार की चर्चा और स्वीकृति मिली थी, यह शुभ लक्षण है। वास्तव में पर्यावरण संरक्षा के कितने भी कानून बनाए जाएं, कैसी भी कल्याणकारी योजनाओं की उद्घोषणा हो, जन सामान्य की प्रतिबद्धता के अभाव में यह अर्थहीन ही रहेगी। किन्तु आज की तारीख में नई विश्व व्यवस्था के निर्माण और जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में पर्यावरण के सवाल को जैसा महत्व मिल रहा है, वह आने वाली उम्मीदों भरी नई सुबह का आ़गाज़ है।
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