कभी न खत्म होने वाले सपनों का बॉयस्कोप

छक्कन कई दिन के बाद मिले। मिलते ही बोले, ‘आज तुम्हें आशीर्वाद देने को जी चाहता है।’  आजकल के ज़माने में कोई किसी को दिल से आशीर्वाद दे, ऐसा तो कम ही देखा है। पहले तो लोग हमारे पीठ फेरते ही हमें गाली देते थे। आजकल तो मिलते ही हमारे सामने ही उनकी मुखमुद्रा बताने लगती है, कि हमें देख कर उन्हें असीम कष्ट हुआ है। उनकी मुखमुद्रा, चढ़ी हुई भवें, माथे के गहरे तेवर बताने लगते हैं, कि उन्हें अभी भी हमें ज़िन्दा देख कर असीम कष्ट हुआ। 
उन्हें उम्मीद थी कि रियायती गेहूं मिलने वाले गेहूं के डिपो की कतार में लगातार खड़े होने या धनकुबेरों द्वारा आयोजित साझी रसोई में मुफ्त लंगर खाने के धक्कों के बाद हम इहलोक से अपनी लीला समाप्त करके परलोक सिधार चुके होंगे। परलोक में भी कौन सा स्वर्ग हमारी प्रतीक्षा कर रहा है? वहां भी कुम्भीपाक नर्क ही हमारे लिए द्वार खोल कर हमारी प्रतीक्षा कर रहा है। हमारी धृष्टता देखिए, कि वहां जा कुम्भीपाक नर्क का मानद सदस्य बनने की बजाय हमने धरती पर रह कर ही अपना बकाया जीवन यूं ही जीने का फैसला कर लिया। ‘जो शेष है, वही विशेष है,’ हम अपने बुझे हुए मन को दिलासा देते हैं। जैसे कटी वैसी ही कट जाये तो भी इसे विशेष मान लें लेकिन वैसी ही कटती हुई भी नज़र नहीं आती। पहले सोचते थे, महामनीषी मंचों से चिल्लाते हैं, ‘देखो अच्छे दिन आने वाले हैं। बस करीब ही समझो।’ आज़ादी का अमृत महोत्सव तुमने मना लिया है। बस अपने भाग्य को दुआएं दो कि पिछले दो बरस के कोरोना काल से बच निकले। रैमडेसिविर के नाम पर तुमने पानी के टीके नहीं लगवाये। मुफ्त लगने थे, तब तो दो कोरोना निरोधी टीके लगवा आये। तीसरा एहतियाती टीका नहीं लगवाया, क्योंकि अब मोल चुका कर टीका लगता है। इंतज़ार कर रहे हैं कि कब कोरोना संक्रमण बढ़े, सरकार इस टीके को भी मुफ्त लगाने की घोषणा कर दे, तो हम बचे खुचे लोग जिनकी तादाद हर आंकड़ा सर्वेक्षण के साथ बढ़ती जा रही है, अपना बाजू आगे करके टीका लगवा लें। 
इस बीच छक्कन ने हमें आशीर्वाद दे दिया, ‘जीवेम शरदम शतम।’ रियायती अनाज की तलाश के इस ज़माने में यूं ही सौ साल तक जीते चले जाने का आशीर्वाद एक बददुआ नहीं तो और क्या है? यूं वक्त बीतता गया। रोज़गार दफ्तर की मेज़ों पर खीसे निपोरते, रोज़गार मेलों की ़खाक छानते, और मनरेगा में काम धंधे का भ्रम पालते हुए हमने आज़ादी की पौन सदी बिता दी। रियायती गेहूं के रहमोकरम पर जीते हुए हमने पौन सदी गुज़ार दी, और इसे नाम दिया अमृत महोत्सव। अब इच्छा तो आज़ादी का शतकोत्सव मनाने की है, जिसका निहितार्थ हमें बताता है कि वहां सब अच्छा ही होगा। तब सबके अच्छे दिन आ चुके होंगे, सबको रुचि के मुताबिक काम मिलेगा। हक का भर पेट एक भोजन मिलेगा, लंगर का नहीं। और पूरा देश एक ठोस मूलभूत ढांचा बना कर इस उपलब्धि का जश्न मनाने में मशगूल होगा।  इसी संदर्भ में छक्कन ने हमें सौ साल ज़िन्दा रहने का आदेश दे दिया। इस आदेश को आशीर्वाद की चाश्नी में डुबो दिया। हम चौंके नहीं। यहां तो सदा ही ऐसा होता है। अच्छे दिनों की उम्मीद में अभी तक तो फिसड्डी दिन ही गले पड़े रहे हैं। दावों, घोषणाओं, और उपलब्धियों के मिथ्या आंकड़ों की चाश्नी में डूबे हुए ये दिन अब नोटबंदी के स्थान पर बरास्ता जनधन खातों धनकुबेरों के काले धन के सफेद हो जाने की खबरें मिली हैं। महामारी काल में करोड़ों लोगों ने अपनी रोज़ी खोई, सामाजिक अन्तर के नाम पर अकेले पड़ गये लोगों ने अपना मानसिक संतुलन खोया। लेकिन भैय्या, दस प्रतिशत आबादी देश की नब्बे प्रतिशत सम्पदा पर कब्ज़ा तो बनाये रख सकी।  असल में ‘जीवेम शरदम शतम’ तो उनके लिए कहना चाहिये था, और यहां छक्कन का सौ साल जीने का आशीर्वाद भटक कर हमारे अंधेरे ओसारे में चला आया। यहां रखा ही क्या है बन्धुवर! हमने उस आशीर्वाद की राह भूली तरंगों से पूछा, ‘आशीर्वाद शर्मिन्दा था। आज तक  तो वह बिन बुलाये बुलन्द इमारतों की फुनगियों पर ही बरसता रहा है। बदले में इन उपेक्षित और त्याज्य बस्तियों में दिलासाओं की बरसात करता है। 
यहां अच्छे दिनों के नाम पर सेना से लेकर सार्वजनिक जीवन तक में कच्ची आसामियों की बरसात है, और एक भरोसा है कि चार साल में अपनी चिरपरिचित ज़िन्दगी में लौटेंगे तो वहां न तीन में रहोगो न तेरह में। न तीन में न तेरह में दाखिला न बन पाना इस देश की आम आदमी की नियति है। वह तो बस एक निरन्तर बढ़ती भीड़ है, एक मामूली भीड़ का हिस्सा है। अभी एक सर्वेक्षण ने बताया कि यह भीड़ सबसे अधिक इस देश की सरकार पर विश्वास करती है। उन समाचारों की फेक न्यूज़ पर भरोसा करती है। यहां कभी रोज़ाना करोड़ों प्रार्थना-पत्र नौकरी के लिए पेश होते थे, अब अनुकम्पा के बढ़ते ग्राफ की चिरौरी के लिए पैदा होते हैं। यहां राष्ट्रीय कार्य दिवस नहीं, राष्ट्रीय अनुकम्पा दिवस मनाया जाता है। इसमें गद्गद् हो आम जनता जो जयघोष करती है, उससे नेताओं की गद्दी पीढ़ी दर पीढ़ी सुरक्षित हो जाती है। इस सुरक्षा को प्राप्त कर लेने के बाद वे परिवारवाद के विरुद्ध जंग छेड़ने का ऐलान कर देते हैं। जनता उन पर पूरा भरोसा करके पौन सदी के पूरी सदी में बदल जाने का इंतज़ार करती है। सपनों के बॉयस्कोप से चिपकी धैर्यवान जनता।