देश की वर्तमान स्थितियों में अकाली दल की भूमिका क्या हो ?

शिरोमणि अकाली दल का देश की आज़ादी से पहले तथा देश का आज़ादी के बाद की राजनीति में विशेष योगदान रहा है। देश की आज़ादी से पहले शिरोमणि अकाली दल सिख पंथ के धार्मिक सरोकारों के लिए 1920 में अस्तित्व में आया था और इसने अंग्रेज़ों के समर्थन से गुरु घरों पर काबिज़ भ्रष्ट महंतों से गुरु घरों को मुक्त कराने के लिए एक लम्बा तथा ऐतिहासिक संघर्ष किया। इस संघर्ष के दौरान ननकाना सहिब, गुरु का बाग तथा जैतो के मोर्चे में अकाली आन्दोलनकारियों ने बड़ी जानी तथा माली कुर्बानियां दीं। बेहिसाब शहीदियां प्राप्त कीं और जेलों की कड़ी सज़ाएं भी भुगतीं। अप्रत्यक्ष ढंग से इस अकाली लहर ने देश की आज़ादी के संघर्ष में बड़ा योगदान डाला। इसीलिए जब अंग्रेज़ प्रशासन से अकाली दल ने हरिमंदिर साहिब परिसर की चाबियां प्राप्त की थीं तो महात्मा गांधी ने अकाली दल के नेताओं को बधाई देते हुए यह कहा था कि ‘बधाई हो, आज़ादी की पहली जंग जीत ली गई है।’
इसके बाद जब आज़ादी की लहर के साथ-साथ देश में मुस्लिम लीग ने पाकिस्तान की प्राप्ति के लिए आन्दोलन तीव्र कर दिया तो सिख पंथ के धार्मिक तथा राजनीतिक सरोकारों के लिए कार्य कर रहे अकाली दल के समक्ष यह प्रश्न उत्पन्न हो गया था कि वह इस्लाम धर्म के आधार पर बन रहे पाकिस्तान का भाग बने या धर्म-निरपेक्षता के आधार पर बन रहे भारत का भाग बने। चाहे सिख पंथ के अधिकतर ऐतिहासिक तथा धार्मिक अस्थान पश्चिमी पंजाब में थे तथा सिखों की अधिकतर सम्पत्तियां भी इसी क्षेत्र में थीं, इसके बावजूद दूरदर्शिता से काम लेते हुए अकाली दल के उस समय के नेतृत्व ने भारत के साथ रहना चुना क्योंकि अकाली दल का नेतृत्व यह महसूस करता था कि धर्म-आधारित राष्ट्र में अल्पसंख्यक भाईचारे को उतनी धार्मिक तथा राजनीतिक आज़ादी प्राप्त नहीं हो सकेगी, जितनी कि एक धर्म-निरपेक्ष देश भारत में प्राप्त होने का उसका विश्वास था। उस समय आज़ादी का संघर्ष चला रहे कांग्रेस के नेतृत्व ने भी इस संबंधी अकाली दल के नेताओं के साथ इस संबंध में बड़े वायदे किये थे तथा आश्वासन दिये थे। यह अलग बात है कि बाद में कांग्रेस नेतृत्व इन आश्वासनों से पीछे हट गया और आज़ाद भारत में भी सिख भाईचारे को वह मान-सम्मान तथा आज़ादी नहीं मिल सकी, जिस प्रकार की यह भाईचारा आशा रखता था। इसके बावजूद हमारी यह राय है कि उस समय अकाली दल के नेतृत्व ने भारत में रहने का जो ऐतिहासिक फैसला किया था, वह काफी सीमा तक सही था। 
चाहे हम देश के विभाजन को एक भयानक तथा मूर्खतापूर्ण फैसला समझते हैं, फिर भी जब विभाजन होना तय हो गया था तो अकाली दल ने अंग्रेज़ों पर अपने दबाव तथा प्रभाव का इस्तेमाल करके पंजाब का विभाजन करवाया, जिससे वर्तमान पंजाब, हरियाणा, चंडीगढ़ तथा हिमाचल का बड़ा भाग भारत को प्राप्त हुआ। यदि अकाली दल का नेतृत्व पाकिस्तान के साथ रहने का फैसला कर लेता तो यह सभी क्षेत्र आज पाकिस्तान का भाग होने थे तथा पाकिस्तान की सीमा दिल्ली के साथ होनी थी। ये क्षेत्र भारत को अकाली दल के नेतृत्व का ही तोहफा है। चाहे वर्तमान केन्द्र सरकार तथा इस क्षेत्र के अन्य राजनीतिज्ञ अकाली दल के इस बड़े योगदान को आज मानने से इन्कार करते हैं या उन्हें इसका एहसास ही नहीं है। 
परन्तु यदि देश की आज़ादी के बाद की राजनीति में अकाली दल की भूमिका की बात करें तो यह बहुत-से प्रश्नों के घेरे में है। अकाली दल ने पंजाबी सूबा का स्थापना के लिए कड़ा संघर्ष किया। आपात स्थिति के खिलाफ शानदार मोर्चा लगाया, जिसका उसे देश भर में यश मिला। पंजाब के अधिकारों-हितों के लिए भी अकाली दल ने लम्बे तथा कड़े संघर्ष किये, जिनमें धर्म-युद्ध मोर्चा भी शामिल था। चाहे  बाद में यह मोर्चा अकाली दल के हाथों निकल कर हिंसक रूप धारण कर गया, जिससे पंजाब तथा सिख पंथ को बड़े संकटों का सामना करना पड़ा। इसके बाद 1997 से 2002 तक, 2007 से 2017 तक लगभग अकाली दल को 15 वर्ष राज्य पर शासन करने का अवसर मिला। इस समय के दौरान बहुत-से अच्छे कार्य भी अकाली दल-भाजपा गठबंधन की सरकार ने किये परन्तु राज्य की आर्थिकता तथा राज्य के प्राकृतिक संसाधनों का उचित इस्तेमाल करने तथा राज्य में व्यापक स्तर पर उद्योग स्थापित करवा कर नई पीढ़ी के लिए रोज़गार के अवसर पैदा करने में अकाली दल के नेतृत्व वाली सरकारें बुरी तरह असफल रहीं। शराब, रेत-बजरी, नशे तथा अन्य क्षेत्रों में माफिया तथा गैंगस्टरों का बोलबाला अकाली दल की गलत नीतियों का ही परिणाम था। पंजाब के दरियायी पानी, राजधानी चंडीगढ़ तथ अन्य मुद्दों के स्थायी तथा न्यायपूर्ण समाधान करवाने में भी अकाली दल का नेतृत्व बुरी तरह असफल रहा। धार्मिक मामलों, विशेषकर श्री गुरु ग्रंथ साहिब की बेअदबी के मुद्दे को भी सही प्रकार से न सुलझाया जा सका। इसके परिणामस्वरूप राजनीतिक तथा धार्मिक क्षेत्र में अकाली दल अपना विश्वास गंवाता चला गया। 2014 के लोकसभा चुनावों में अकाली दल को 4 सीटें प्राप्त हुईं। 2017 के विधानसभा चुनावों में 15 सीटें प्राप्त हुईं। 2019 के लोकसभा चुनावों में अकाली दल को सिर्फ 2 सीटें प्राप्त हुईं। अब 2022 में हुए विधानसभा चुनावों में अकाली दल को सिर्फ 3 सीटें प्राप्त हुईं। इस समय अकाली दल की राजनीतिक क्षेत्र में स्थिति सबसे अधिक कमज़ोर है। इतनी कम सीटें अकाली दल को कभी भी प्राप्त नहीं हुईं। इस कारण अकाली दल नेतृत्व तथा अकाली दल के कैडर में गहन निराशा तथा बेचैनी पाई जा रही है परन्तु अकाली दल का शीर्ष नेतृत्व इन परिस्थितियों में भी न तो अपनी गलतियों के लिए खुले मन से विश्लेषण करना चाहता है और न ही नेतृत्व की ज़िम्मेदारी छोड़ कर नये नेतृत्व को आगे आने का अवसर देने के लिए तैयार है। 2022 के विधानसभा चुनावों में अकाली दल की हुई नमोशीजनक हार संबंधी जनमत एकत्रित करने के लिए जत्थेदार इकबाल सिंह झूंदां के नेतृत्व में एक कमेटी बनाई गई थी, जिसने कई सप्ताह पहले अपनी रिपोर्ट भी दे दी है परन्तु इसके बावजूद अकाली दल के प्रभावी नेतृत्व ने खुल कर न तो उस पर विचार किया है और न ही उसमें दिये गये सुझावों पर क्रियान्वयन किया है। इसके परिणामस्वरूप अब अकाली दल में से बगावती स्वर उठने लग पड़े हैं। कुछ असंतुष्ट नेताओं ने चंडीगढ़, अमृतसर तथा कुछ अन्य स्थानों पर बैठकें करके अकाली दल के भविष्य बारे तथा देश को दरपेश चुनौतियों बारे चर्चा करनी शुरू कर दी है। 
नि:संदेह वर्तमान में देश को राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ तथा भाजपा जिस ढंग से चला रहे हैं तथा जिस प्रकार देश के धर्म-निरपेक्ष तथा लोकतांत्रिक ढांचे को आघात पहुंचाया जा रहा है, जिस प्रकार भाजपा तथा संघ से अलग सोच रखने वाले बुद्धिजीवियों तथा राजनीतिक नेताओं को निशाना बनाया जा रहा है, उस कारण देश के अल्पसंख्यक भी अपने भविष्य को लेकर तथा अपनी धार्मिक एवं राजनीतिक आज़ादी को लेकर गहन चिन्ता में हैं। एक प्रकार से अन्य अल्पसंख्यकों के साथ-साथ सिख पंथ के समक्ष भी 1947 की भांति दुविधा की स्थिति उत्पन्न होती जा रही है। उनके मन में अपनी सुरक्षा को लेकर भी आशंकाएं हैं तथा इस संबंधी भी आशंकाएं हैं कि क्या देश धर्म-निरपेक्ष या लोकतांत्रिक रहेगा या यह भी पाकिस्तान की तरह एक धर्म-आधारित राष्ट्र में परिवर्तित हो जाएगा? इस संबंधी भी गंभीर आशंकाएं हैं कि क्या देश के भिन्न-भिन्न भाईचारों के बीच अमन एवं सद्भावना बनी रह सकेगी या यहां अब स्थाई तौर पर साम्प्रदायिक टकराव होते रहेंगे? प्र्रत्येक क्षेत्र में इस सरकार द्वारा अपनाई जा रही कार्पोरेट पक्षीय नीतियां भी किसानों, मज़दूरों के लिए नई समस्याएं उत्पन्न कर रही हैं और उनकी रोज़ी-रोटी के मामले गंभीर होते जा रहे हैं। इस कारण किसानी में भी बेहद बेचैनी है। इसी कारण भी नई पीढ़ी के लोग किसी न किसी ढंग से यहां से बाहर जाने के लिए प्रयासरत हैं, विशेषकर पंजाब में यह रुझान बेहद ज़ोर पकड़ चुका है। ऐसी परिस्थितियों में पंजाब तथा पंथ का नेतृत्व करने वाले अकाली दल का मज़बूत तथा प्रभावी होना बेहद ज़रूरी है। चाहे अकाली दल राजनीतिक क्षेत्र में बेहद कमज़ोर हो चुका है, फिर भी देश के लोगों के एक बड़े भाग तथा विशेषकर पंजाब के लोगों की नज़रें सिख पंथ तथा इसके राजनीतिक संगठन अकाली दल की ओर हैं। उनकी यह इच्छा है कि अकाली दल मज़बूती पकड़े और सरबत के भले पर आधारित सिख सिद्धांत को लेकर देश भर में विचरण करे तथा देश की अन्य धर्म-निरपेक्ष तथा लोकतांत्रिक ताकतों को उत्साहित तथा प्रेरित करे। देश की धर्म-निरपेक्षता एवं लोकतंत्र को मज़बूत बनाने के लिए आपातकाल के समय की भांति ही खड़ा हो।  
परन्तु यह बड़ी भूमिका अकाली दल तभी अदा कर सकता है यदि देश की वर्तमान राजनीतिक परिस्थितियों में अकाली दल स्पष्ट सोच लेकर चले और अपने संगठनात्मक ढांचे को प्रभावी बनाए। इसके साथ ही अकाली दल को गत समय में की गईं गलतियों का भी खुले मन से विश्लेषण करना चाहिए तथा उन गलतियों को सार्वजनिक तौर पर स्वीकार भी करना चाहिए। अकाली दल को यह बात भी स्पष्ट तौर पर समझ लेनी चाहिए कि गत लम्बे समय में जिस नेतृत्व की अगुवाई में ये गलतियां हुई हैं या की गई हैं, लोग उस नेतृत्व की रहनुमाई को फिलहाल पुन: स्वीकार नहीं करेंगे। इसलिए यह बेहतर होगा कि वह नेतृत्व स्वयं ही त्याग का प्रकटावा करते हुए नये नेतृत्व को आगे आने का अवसर प्रदान करे। यदि ऐसा नहीं होता तो अकाली दल की दूसरी पंक्ति के नेताओं, सदस्यों तथा समर्थकों को नेतृत्व में परिवर्तन लाने के लिए सक्रिय होना पड़ेगा। ऐसी कठिन परिस्थितियों में से उभर कर ही अकाली दल, पंथ तथा पंजाब का खोया हुआ विश्वास पुन: प्राप्त करने में समर्थ हो सकेगा। अब देखना बनता है कि अकाली दल समय के साथ चल कर अपनी आंतरिक, देश तथा पंजाब को दरपेश चुनौतियों का सही ढंग से सामना करने में किस सीमा तक सफल होता है?