महंगाई और बेरोज़गारी

पिछले दिनों जारी किये गए सरकारी आंकड़ों के मुताबिक महंगाई गत आठ वर्षों में सबसे ऊंची दर पर
है। एक अनुमान के अनुसार पिछले साल के मुकबाले कीमतों में 7.79 प्रतिशत इजाफा हो चुका है।
बढ़ती कीमतों का आम आदमी पर मनोवैज्ञानिक दबाव इतना अधिक है कि जब अगली बार कोई किसी
दुकान पर ज़रूरी सामान लेने जाता है तो दुकानदार से उसी चीज़ का पहले से अधिक दाम बताने पर
सहज ही मान लिया जाता है कि दाम बढ़ गया होगा। आम आदमी की जेब पर बढ़ते बोझ को देख कर
उसे एक बार सोचना ज़रूर पड़ता है कि सरकार इस तरफ ध्यान क्यों नहीं देती? फिर आगे कि क्या यह
वही कल्याणकारी सरकार है, जिसके बारे में किताबों में पढ़ता रहा है। क्या होता है कल्याणकारी राज्य?
किसका और कैसा कल्याण हो रहा है? यह सवाल उसे परेशान करने लगता है, क्या हमारी अधिकांश
जनता अनपढ़ है, जो ठीक से समझ नहीं पा रही? जिसके लिए पुरुषोत्तम अग्रवाल ने सही शब्द दिया
था ‘अर्बन इंडियन’ जो अपने क्षेत्र में खूब पढ़े-लिखे, मोटी पगार पाने वाले ऐसे लोग हैं जो जानकर भी
अन्जान बने रहते हैं, जिनका इतिहास, संस्कृति, अर्थ-नीति से कोई वास्तविक रिश्ता नहीं और केवल
फेसबुक, व्हाटसएप तक सीमित रहते हैं। इनके अलावा बड़ी जनसंख्या वह है जिसे बढ़ती कीमत चुभती
है। रोज चुभती है परन्तु वे असहाय हैं। सीनियर सिटीज़न जिन्हें बैंकों से पहले से कम ब्याज मिलता है
परन्तु महंगी होता दवाइयां खरीदना मज़बूरी होती है और भी परेशान होते हैं। पैट्रोल-डीज़ल, घरेलू गैस
की कीमत लगातार छलांग लगाती नज़र आती है। दाल-आटे का भाव भी अच्छी तरह मालूम हो रहा है।
आंकड़े बताते हैं कि एक साल में चीनी, दूध, चाय पत्ती को छोड़ भी दिया जाये तब भी बाकी सारा
सामान सरकारी हिसाब के मुकाबले काफी महंगे हैं। सरकार के पास बहाना हो सकता है कि कोविड
महामारी के तहत हालात ज्यादा बदहाल हुए हैं। कोविड के कारण जब लाखों लोग बेरोज़गार हुए तब
ज़रूरत थी कि लोगों को आमदमी मुहैया करवा कर अर्थ-व्यवस्था के ठहराव को खोलने का प्रयास किया
जाता परन्तु नवउदारवादी व्यवस्था ने इसे सम्भव होने नहीं दिया।
एक तरफ बढ़ती महंगाई, दूसरी तरफ बढ़ती बेरोज़गारी ने जीना मुश्किल कर दिया। स्टेट फॉर मानिटरिंग
इंडियन इकोनामी (सी.एम.आई.ई.) के अनुसार दिसम्बर 2021 में बेरोज़गारी दर 7.9 प्रतिशत थी, परन्तु
इन आंकड़ों से वास्तविकता का पता नहीं चलता। क्योंकि देश में गरीबी के चलते बहुत-से लोग जो भी
काम मिला करने को मजबूर होते हैं। वे ठेला चला लेंगे, बोझ उठा लेंगे, दिहाड़ी मिली तो दिहाड़ी कर
लेंगे और यह मान लिया जाएगा कि उन्हें रोज़गार मिल गया। बहुत-से लोग तो काम न मिलने पर काम
मिलने की आशा ही छोड़ बैठते हैं। यानी बेरोज़गारी दर में इज़ाफा हुआ है जो दिखाई नहीं देता।
पंजाब की स्थिति और भी खराब है। माता-पिता बच्चों को विदेश भेजने के लिए ज़मीन, घर, आभूषण
सब कुछ बेच रहे हैं। पहले विदेश गये लोग गांव को पैसे भेजते थे, जिससे किसानी को उन्नति करने में
सहयोग मिलता था। अब वहां का पैसा वहीं खर्च हो जाता है। पहले गाड़ी, फिर घब बनाने के लिए। फिर
लोन की किश्तें, एक बोझ बना रहता है। इस चक्र में पंजाब की कमाई विदेश जाती तो है वहां से रिटर्न
नहीं होती। फिर बहुत से लोग कृषि से तौबा भी करने लगे हैं। सो काम एक चक्र जो तलता था,
छिन्न-भिन्न हो गया है। कृषि आधारित लेबर में भी कमी आई है। अन्य कई देशों की तरह तीन आयात
हमारे लिए अनिवार्य हो गये हैं पैट्रोल, रासायानिक खाद और खाद्य तेल। विश्व भर में इनके दाम में
बढ़ोतरी हुई है। वित्त वर्ष 2023 में कच्चे तेल की औसत कीमतों में 101 डॉलर प्रति बैरल के अनुसार
आई.सी.आर (एक शोध संस्था) ने घोषणा की है कि तेल आयात बिल 225-230 अरब डॉलर तक पहुंच
सकता है, जोकि वित्त वर्ष 2022 के बिल से 42 प्रतिशत अधिक होगा।