भले आदमी हैं राहुल परन्तु राजनीति में मिसफिट !

राहुल गांधी में एक तरह की ईमानदारी और सच्चाई दिखती है। चूंकि अब वह राजनीति में हैं और राजनीति काजल की कोठरी है (बकौल राहुल गांधी, विष का प्याला है) तो उसमें सच्चाइयां और ईमानदारियां भी किन्हीं परिप्रेक्ष्यों में ही मौजूद होंगी और सर्वांग-सम्पूर्ण नहीं होंगी। उससे कमोबेश समझौते किए जाते रहेंगे। राहुल आज कोई पंद्रह सालों से सार्वजनिक जीवन में हैं और इतना समय किसी आदमी की परख करने के लिए बहुत होता है। राहुल में जो भोलापन और भलापन है, उसे उनके अनेक मित्र उनका बौड़म होना भी बतला सकते हैं। तिस पर मैं कहूंगा कि बौड़म होना भी कोई बुरी बात नहीं है। हां इससे आप एक अच्छे राजनेता नहीं बन सकते लेकिन राजनीति जीवन का एक आयाम भर है, पूरा जीवन नहीं है। राजनीति में विफल होने का मतलब जीवन में विफल होना नहीं है। इसका उलटा भी सही है। कोई राजनीति में बड़ा सफल होकर भी मनुष्य के रूप में विफल रह सकता है। ऐसे उदाहरणों की भी कमी नहीं।
राहुल का मामला जरा अजीब है। भला कौन राजनेता सार्वजनिक रूप से सत्ता को जहर बताकर उसके प्रति अरुचि जतलाता है किन्तु यह अन्यमनस्कता राहुल के व्यक्तित्व का केंद्रीय हिस्सा बन चुकी है। वह अनमने रहते हैं। क्या वह सच में ही राजनेता बनना चाहते थे या चाहते हैं? क्या कोई दूसरा कॅरियर उनके लिए बेहतर नहीं हो सकता था? यह प्रश्न असंख्य बार पूछा जा चुका है किन्तु आप भी मानेंगे कि आपमें से भी बहुतों ने कई बार यह अपेक्षा की होगी कि इतनी हार, इतने उपहास और इतने अपमान के बाद अब तक क्या राहुल गांधी को कहीं भाग नहीं जाना चाहिए था? मैं यह कहूंगा, उनकी विरोधी पार्टी वाले भी मन ही मन से यह बात जानते हैं कि यह आदमी भला है और राजनीति में मिसफिट है किन्तु ऐसा नहीं है कि राजनीति में भलमनसाहत हमेशा ही एक अयोग्यता साबित हो। जनता के मन का क्या भरोसा? जनता ने अगर कभी चतुरसुजानों और धूर्त्तों और कुटिलों से ऊबकर मन बदलने का निर्णय कर लिया तो? आखिर यही तो वह जनता थी जिसने महात्मा गांधी को उनकी भलाई के लिए ही अपना नेता माना था। वह किसी दूसरे ग्रह से तो नहीं आए थे।
बीते दिनों राहुल ने एक बड़ी भली बात कही। नेशनल हेरल्ड मामले में उनसे कई दिनों तक घंटों पूछताछ हुई। जब वह उससे फारिग हुए तो उन्होंने एक सभा में कहा कि किसी ने मुझसे पूछा, राहुलजी आपने इतने धीरज से इस सबका सामना कैसे किया? मैंने कहा, भैया, मैं कांग्रेस में काम करता हूं, धीरज तो आ ही जाएगा। मुझे याद नहीं आता मैंने कब आखिरी बार किसी राजनेता के मुंह से ऐसी ईमानदार स्वीकारोक्ति, स्वयं पर किया गया ऐसा कटाक्ष और वह भी किसी आत्मदया के बिना सुना था। मैं इस बात की इज्ज़त करता हूं। यहां मैं इस पर चर्चा नहीं कर रहा कि क्या राहुल देश के प्रधानमंत्री बनने के योग्य हैं , या क्या उन्हें प्रधानमंत्री बनना चाहिए? मैं एक व्यक्ति के रूप में राहुल का मूल्यांकन कर रहा हूं, क्योंकि नेता वो हों न हों, व्यक्ति तो अवश्य  हैं। व्यक्ति होने की अस्मिता उनसे कोई नहीं छीन सकता, नाकाम नेता कहकर मखौल भले कोई जितना उड़ा ले।
आज हम मान चुके हैं कि राज-काज के लिए टेढ़ा आदमी होना जरूरी है। इसमें कुछ गलत नहीं है क्योंकि हालात ही विकट हैं। भारत कोई स्कैंडिनेवियाई कंट्री नहीं है या आस्ट्रेलिया-न्यूजीलैंड सरीखा प्रशान्ति का प्रखण्ड नहीं है। यह दुरभिसंधियों की भूमि है और शत्रुओं से घिरी है—बाहर से भी और भीतर से भी। राहुल को बाहर के शत्रुओं की खबर भले हो किन्तु भीतर के शत्रुओं के प्रति उन्होंने गहरी समझ प्रकट नहीं की है। वह अक्सर प्यार और सौहार्द जैसे शब्दों का उपयोग करते हैं मानो आमजन प्यार और सौहार्द से भरा हो और राजनीति ने ही उसे बांट रखा हो। सच्चाई यह है कि आमजन में कुंठाएं, भेदभाव, मूर्खताएं, क्रूरताएं, घृणा और अलगाव पैठा हुआ है। राजनीति तो केवल इन नकारात्मक भावनाओं का अपने पक्ष में दोहन करती है। राहुल यह नहीं समझते कि राष्ट्रीय सुरक्षा एक बड़ा प्रश्न है। चुनावी-नतीजों को एकतरफा रूप से बदल देने की क्षमता रखने वाला प्रश्न है। देश के लोगों ने मान लिया है कि लोहा ही लोहे को काटता है। राहुल लोहा नहीं हैं। घी टेढ़ी उंगली से ही निकलता है। राहुल की उंगली तो सीधी है। लातों के भूत बातों से नहीं मानेंगे। राहुल बातें बना लेंगे परन्तु जो लोग मन ही मन उनको पसंद करते हैं, वे भी उनको वोट नहीं देंगे किन्तु प्रश्न वोट का है ही नहीं। प्रश्न तो परिप्रेक्ष्य को समझने का है। क्या ही अचरज है कि जिस व्यक्ति को शहजादा कहकर पुकारा गया और जो वंशवादी राजनीति का प्रतीक बना दिया गया, वह आज सड़कों पर उतरा है और जन-मन से घुल-मिल रहा है। 1951 में नेहरूजी भी इसी तरह से सड़कों पर उतरे थे और पूरे देश की परिक्रम की थी। वह उनकी भारत की दूसरी खोज थी। आज देश के नेताओं ने लोगों से वैसे मिलना कब का बंद कर दिया। वे उनसे फासले से मिलते हैं। देश के नेतागण तो आज पत्रकारों का सामना करने से भी डरते हैं।  राहुल गांधी उन तमाम प्रश्नों का सामना करते हैं और यह जानकर करते हैं कि वे धरे जाएंगे क्योंकि प्रश्न टेढ़े होते हैं और राहुल में देश की अनेक जटिल समस्याओं की गहरी समझ नहीं है।  (अदिति)