पहचान का सुख

(क्रम जोड़ने के लिए पिछला रविवारीय अंक देखें)
‘भानु बनाम उर्मिला...भानु बनाम उर्मिला हाज़िर हों।’
उर्मिला चौंक कर उठ खड़ी हुई। भानु उसे धकेलता हुआ अन्दर घुसा तो वह एक ओर हट गई और उसके पीछे.पीछे चलने लगी। गवाहों के बयान के बाद उर्मिला और भानु को कटघरे में बुलाया गया। उर्मिला के वकील ने ही पहले प्रश्न किया, ‘हाँ तो मिस्टर भानु, आपका कहना है कि आपकी माँ उर्मिला ने आपके हिस्से की ज़मीन बेच खाई है?’
‘इसमें कोई शक लगता है आपको’! भानु तुनक गया।
फाईल पर झुके जज ने सिर उठाकर भानु की ओर देखा, और बोले ‘आपसे जितना पूछा जाए उसका जवाब दीजिए।’ भानु के वकील ने उसे टोका और विरोधी वकील ने सवाल दोहराया तो भानु ने सिर झुका कर कहा, ‘जी हाँ।’
‘क्या किया इन्होंने साढ़े छ: लाख रुपयों का?’ अब की बार जज ने सवाल किया। वह बड़े     ़गौर से उर्मिला को देख रहा था। गम्भीर चेहरे वाली उर्मिला ने बिल्कुल साधारण से कपड़े पहन रखे थे। गले में एक पतली सी चेन और कानों में छोटे-छोटे टाप्स थे।
 ‘अपनी किताबें छपवाती हैं और सेमिनारों में जाती हैं। घूमने-फिरने पर खर्च कर देती हैं और क्या करेंगी।’
 ‘आर यू ऑथर?’ अब की बार जज ने उर्मिला से सवाल किया था।
‘जी हाँ। यह अपराध तो मुझसे हुआ है।’
‘क्या लिखती हैं आप?’
‘कहानी, कविता सभी कुछ।’ उर्मिला हैरान थी कि मेरे लेखन से केस का क्या सम्बंध है?
‘आपके गवाह पूरे हो गए मिस्टर ठाकुर?’ जज ने मुड़कर उर्मिला के वकील से प्रश्न किया।
‘जी नहीं, अभी चार हुए हैं।’
‘और कितने हैं....?’
‘चार और हैं सर।’ वकील ने उत्तर दिया।
‘बस काफी हैं।’ कहकर जज ने फाईल बंद कर दी।
बाहर कान्ता इंतज़ार में खड़ी थी। रिश्तेदार होने के नाते वह अन्दर नहीं आ सकती थी। बाहर आने पर वकील ने कहा, ‘मैं डेट लेकर आप को बता दूँगा। आप घर जाइए।’
कुछ दिन बाद केस का फैसला भी हो गया। उर्मिला को निर्दोष कहा गया और भानु का दावा खारिज कर दिया गया। जज ने अपने फैसले में यह भी लिखा था कि उर्मिला चाहे तो भानु पर मानहानि का दावा कर सकती है, परन्तु उर्मिला ने वह सब नहीं किया और मुकद्दमा समाप्त होने पर सुख की साँस ली। अब वह चिन्तामुक्त होकर फिर से अपने लेखन को जारी रख सकती थी।
उर्मिला के सेमिनार, कवि-सम्मेलन चालू ही थे। वह शिमला बस अड्डे पर खड़ी अपनी बस के आने की प्रतीक्षा कर रही थी कि एक लम्बी-सी लग्ज़री गाड़ी उसके पास आकर रुकी और एक सौम्य सा स्वर उसकी ओर उछला, ‘नमस्ते उर्मिला जी।’
उर्मिला ने चौंक कर देखा तो, कार की पिछली सीट से एक चेहरा बाहर झाँक रहा था।
वह एक बार फिर चौंक गई, इस व्यक्ति को कहीं देखा तो है। प्रकट में उसने बड़ी शालीनता से दोनों हाथ जोड़कर नमस्कार का उत्तर दिया और हैरान सी उस मूर्ति को देखने लगी।
‘कहाँ जा रही हैं आप? आइए मैं छोड़ दूँ।’
‘जी नहीं, धन्यवाद! मेरी बस आने वाली है, मुझे चण्डीगढ़ जाना है।’
‘सेमिनार है क्या?’
‘जी हाँ मुशायरा है।’
‘तो आइए न, मैं भी चण्डीगढ़ जा रहा हूँ।’ इतनी देर तक भी उर्मिला उस सौम्य मूर्ति को पहचान नहीं पाई थी।
‘लगता है, आप मुझे पहचान नहीं रही हैं।’
‘आप ठीक कह रहे हैं।’ उर्मिला थोड़ा लज्जित हो रही थी।
‘तब आप मुझे यह बताइए कि आपने अपने बेटे भानु पर मानहानि का दावा किया या नहीं?’
‘अरे आप? जज साहब?’  उर्मिला की आँखें नम हो आईं।
‘उर्मिला जी, मैं वास्तव में ही जज हूँ। मां-बाप ने बहुत सारा पैसा मेरी पढ़ाई पर लगाया है। आदमी को देखते ही पहचान जाता हूँ कि सच्चाई क्या है। इससे मुझे न्याय करने में सुविधा होती है और यही मैंने आपके केस में किया है। अब तो आ जाइए।’ उसने दूसरी ओर का दरवाजा खोल दिया था। (समाप्त)