व्यक्ति नहीं, विचारधाराएं हैं श्री राम और रावण

रामायण एवं दशहरा के नायक श्री राम महिला उद्धारक के रूप में उभरते हैं। शबरी के झूठे बेर खाकर वह जात-पात की बेड़ियां तोड़ते हैं और जटायु का तर्पण करके वह अपने प्रति निष्ठावान लोगों के लिए कृतज्ञता का भी परिचय देते हैं। रावण जहां अपनी शक्ति के मद में फूला हुआ रहने का आदी है, वहीं राम अधिक संसाधनों के न होने पर भी रावण जैसे महाबलि का वध करते हैं।  
मिथक के रूप में राम और रावण अयोध्या और लंका की संस्कृतियों के प्रतिनिधि हैं। उन्हें विनम्रता और अहंकार के प्रतीक के रूप में भी जाना जा सकता है। एक ओर राम हैं जो पिता की आज्ञापालन में राज्यारोहण को छोड़कर सहर्ष वन चले जाते हैं, तो दूसरी तरफ रावण है जो सब कुछ अपने कब्जे में रखने को सही गलत का भेद तक भूल जाता है। यहां तक कि उसे अपने भाई विभीषण की सलाह भी नागवार लगती है और वह उसे देश निकाला दे देता है। उसे केवल अपनी ही सम्पत्ति से संतुष्टि नहीं मिलती बल्कि औरों की सम्पत्ति लूटने, हड़पने को भी वह प्रयत्नशील रहता है। अपने धन व रुतबे को बढ़ाने के लिए अति निकृष्ट कृत्य करने से भी बाज नहीं आता। अपनी बहन शूर्पणखा के अपमान के बदले की आड़ में वह राम की पत्नी सीता का अपहरण करता है जिसे पाने में वह धनुष यज्ञ में सफल नहीं हो पाया था। यहां एक बार फिर सिद्ध होता है कि लक्ष्य प्राप्ति के लिए संसाधन नहीं वरन् एक दृष्टि, लगन, निष्ठा, ईमानदारी व शुचिता का होना कहीं ज्यादा ज़रूरी है। राम और रावण दोनों  दो अलग-अलग विचारधाराओं के प्रतिनिधि हैं। दोनों की सोच और प्रवृत्ति में ज़मीन आसमान का फर्क है। एक हठ का दूसरा नाम है तो दूसरा दृढ़ संकल्प का प्रतीक है।  एक सब कुछ हड़प व छीन लेना चाहता है तो दूसरा अपना सर्वस्व राष्ट्र की समृद्धि और शांति के लिए त्याग देता है। उसके लिए अपना सुख कम और अपनों का सुख ज्यादा मायने रखता है।
 राम सत्, सत्य व त्याग तथा न्याय के पक्ष में खड़े होने वाली प्रवृत्ति के द्योतक हैं तो सीता हर पग पर उनके साथ चलने वाली जीवनसंगिनी हैं। सीता का चरित्र कलिकाल में पति व पत्नी के संबंधों को एक आदर्श रूप में रूपायित करता है। यदि सीता राम की आधी ताकत हैं तो आधी ताकत उनके भाई हैं, जो लक्ष्मण, भरत व शत्रुघ्न के रूप में हर पग पर उनके हितरक्षक व अनुचर बने रहते हैं। सिंहासन का लालच उन्हें डगमगा नहीं पाता तो बिना पितृ आज्ञा के भी लक्ष्मण केवल इसलिए वन जाते हैं कि  कहीं राम अकेले या कमज़ोर न पड़ जायें। भरत राज पाकर भी संन्यासी की तरह असंपृक्त रहकर राज करते हैं और वन से आते ही राम को उनकी धरोहर वापस करने में एक पल भी नहीं लगाते। सच कहें तो राम राज्य की नींव भरत ही रखते हैं।
समय भले ही कितना क्यों न बदल गया हो पर दशहरे का पर्व यही संदेश देता है कि अंतत: जीत सच व सतोगुण की ही होती है। भय, लालच, शोषण, अन्याय, पापकर्म व परपीड़न हर हाल में हारते ही हैं। स्त्री का अपमान करने वाला अंतत: विनाश का शिकार होता है, और अपयश का भागी होता है। प्रजा के लिए राजा के प्रति व राजा के लिए प्रजा के प्रति सम्मान व हितरक्षा का संदेश भी देता है दशहरा। (युवराज)