मुस्लिम समाज के हित में है अदालती फैसला

पिछले दिनों पंजाब व हरियाणा हाईकोर्ट ने एक मामले में कहा था कि 16 वर्ष से ऊपर की मुस्लिम लड़की अपनी पसंद के व्यक्ति से कॉन्ट्रैक्ट ऑफ मैरिज (निकाह या वैवाहिक समझौता) कर सकती है। इस आदेश को बाल अधिकार सुरक्षा के लिए राष्ट्रीय आयोग (एनसीपीसीआर) ने सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दी है। विगत 17 अक्तूबर, 2022 को सुप्रीम कोर्ट ने इस अपील को सुनने के लिए अपनी मंज़ूरी दे दी। गौरतलब है कि हाईकोर्ट ने संबंधित लड़की को सुरक्षा प्रदान करने का भी आदेश दिया है; क्योंकि उसने अपने परिवार की मज़र्ी के खिलाफ शादी की थी। 
आयोग को इस बात पर कोई आपत्ति नहीं। दरअसल, उसका एतराज मुख्यत: दो बातों को लेकर है—एक, विवाह के बावजूद 18 वर्ष से कम की लड़की से यौन संबंध स्थापित करना पोक्सो एक्ट के तहत सेक्सुअल असाल्ट है, इसलिए हाई कोर्ट द्वारा एक नाबालिग के विवाह को मान्यता प्रदान करना नाबालिग मुस्लिम लड़कियों के अधिकारों पर प्रतिकूल प्रभाव डालेगा। दूसरा यह कि यह आदेश अन्य हाईकोर्ट्स के लिए भी नज़ीर बन जायेगा। इसलिए आयोग की तरफ  से न्यायाधीश संजय किशन कौल व न्यायाधीश अभय एस. ओका की खंडपीठ के समक्ष पेश होते हुए सोलिसिटर जनरल तुषार मेहता ने हाईकोर्ट के आदेश पर स्टे आर्डर दिये जाने की मांग की।
लेकिन खंडपीठ ने केवल इतना कहा कि वह आयोग द्वारा उठाये गये मुद्दे की जांच करेगा और उसने वरिष्ठ वकील राजशेखर राव को इस मामले में अदालत की मदद करने के लिए नियुक्त किया। हालांकि पहली नज़र में यह ओपन एंड शट केस जैसा प्रतीत होता है, लेकिन ऐसा है नहीं। यह बहुत जटिल मामला है। इस केस में मुस्लिम पर्सनल लॉ, भारतीय दंड संहिता (आईपीसी) के धर्मनिरपेक्ष प्रावधान, प्रोटेक्शन ऑफ चिल्ड्रेन फ्रॉम सेक्सुअल ओफेंसिस एक्ट (पोक्सो) और सुप्रीम कोर्ट के अपने ही कुछ निर्णयों से जुड़े कुछ दिलचस्प प्रश्न शामिल हैं। मुस्लिम पर्सनल लॉ बाल विवाह के तो विरुद्ध है और अगर किसी नाबालिग का केवल निकाह (रुखसती या विदाई नहीं) उसके अभिभावक कर देते हैं तो संबंधित लड़का/लड़की को खयार-उल-बलूग का अधिकार है यानि बालिग होने पर वे निकाह को निरस्त कर सकते हैं। लेकिन इसमें पेंच यह है कि मुस्लिम पर्सनल लॉ लड़की के मासिक चक्र आरंभ होते ही उसे बालिग मान लेता है। 
मासिक चक्र अमूमन 13-14 वर्ष की आयु में शुरू हो जाता है। कुछ में इसके बाद भी आरंभ होता है, इसलिए लड़की के बालिग होने की न्यूनतम आयु 16 वर्ष स्वीकार कर ली गई है।
इस पृष्ठभूमि में हाईकोर्ट ने 16 व 21 वर्ष की आयु के मुस्लिम जोड़े को उनके परिवारों के सदस्यों से सुरक्षा प्रदान करते हुए आदेश दिया कि 16 वर्ष से ऊपर की मुस्लिम लड़की अपनी पसंद के व्यक्ति से वैवाहिक समझौता करने के योग्य है। विभिन्न निर्णयों का संदर्भ देते हुए हाईकोर्ट ने कहा, ‘ऊपर उल्लेखित विभिन्न निर्णयों से कानून एकदम स्पष्ट है कि मुस्लिम लड़की का विवाह मुस्लिम पर्सनल लॉ के तहत होता है। सर दिनशाह फर्दुनजी मुल्ला की पुस्तक ‘प्रिंसीपल्स ऑफ मोहम्मडन लॉ’ के आर्टिकल 195 के अनुसार 16 वर्ष से ऊपर की आयु होने के कारण याचिकाकर्ता-दो अपनी पसंद के व्यक्ति से वैवाहिक समझौता करने के योग्य है... अत: दोनों याचिकाकर्ता मुस्लिम पर्सनल लॉ के तहत विवाह योग्य आयु के हैं।’ लेकिन भारतीय वयस्क कानून, 1875 की धारा 3(2) के तहत भारत में जन्मे व्यक्ति को उस समय वयस्क या बालिग समझा जायेगा जब वह अपने जीवन के 18 बसंत पूर्ण कर ले यानी 18 वर्ष का हो जाये।
इसके बावजूद 28 सितम्बर 1929 को इम्पीरियल लेजिस्लेटिव काउंसिल ऑफ इंडिया द्वारा पारित बाल विवाह प्रतिबंध अधिनियम,1929 में लड़कियों के विवाह की आयु 14 वर्ष और लड़कों की 18 वर्ष तय की गई, जिसे 1949 में लड़कियों के लिए 15 वर्ष निर्धारित की गई और फिर 1978 के संशोधन में इसे लड़कियों के लिए 18 साल व लड़कों के लिए 21 वर्ष कर दिया गया। अब लिंग समता को ध्यान में रखते हुए दोनों लड़के व लड़की के लिए विवाह की न्यूनतम आयु 21 साल करना प्रस्तावित है। बहरहाल, इस बात से भी इन्कार नहीं किया जा सकता कि सुप्रीम कोर्ट ने अपने अनेक निर्णयों में लिव-इन रिलेशनशिप या प्रेम में या विवाह में 16 वर्ष की लड़की द्वारा अपनी स्वतंत्र मर्जी से स्थापित यौन संबंधों को रेप नहीं माना है। आयोग की अपील से इन जटिल व विरोधाभासी स्थितियों के हल होने की राह हमवार होती है। 
भारत में लड़कों व लड़कियों दोनों के लिए विवाह व स्वेच्छा से यौन संबंध स्थापित करने की न्यूनतम आयु 21 वर्ष की होनी चाहिए, चाहे वह किसी भी धर्म या जाति से संबंधित हों। तो क्या यह अदालती प्रयास मुस्लिम पर्सनल लॉ में हस्तक्षेप होगा? नहीं। दरअसल, इस कानून के व्याख्याकारों ने बालिग होने को मासिक चक्र से जोड़कर बहुत बड़ी भूल की है। लड़कों को तो मासिक चक्र होता नहीं, तो उनके बालिग होने की आयु कैसे तय होगी? कुरआन (4/19) के अनुसार निकाह की पहली शर्त यह है कि दोनों लड़की व लड़का बिना किसी दबाव के, इरादे की पूर्ण स्वतंत्रता के साथ रज़ामंद हों। स्वतंत्र रज़ामंदी तभी संभव है, जब दोनों पक्ष बालिग हों, जिसे कुरआन (6/153, 17/34) ने जवानी की उम्र कह कर पुकारा है। जवानी की उम्र कुरआन (40/67) ने किशोरावस्था व बुढ़ापे के बीच की बतायी है।  
 

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