भारतीय भाषाओं में भी होनी चाहिए विज्ञान और गणित की पढ़ाई

 

क्या मेडिकल और इंजीनियरिंग की पढ़ाई हिन्दी और अन्य भारतीय भाषाओं में नहीं होनी चाहिए? आम तौर पर इस सवाल का उत्तर हां में मिलेगा, लेकिन, इस ‘हां’ पर संदेह करने वाले भी हैं। वे यह मानते हैं कि इसकी ज़रूरत ही नहीं है। भाषा से मेडिकल और इंजीनियरिंग का क्या ताल्लुक? कोई भी भाषा हो, क्या फर्क पड़ता है। इसलिए अंग्रेज़ी ही ठीक है। दरअसल, ऐसे लोग भारत में अंग्रेज़ी की विकृत भूमिका को या तो समझने के लिए तैयार नहीं हैं, या समझ कर भी नासमझ बने रहना चाहते हैं। 
अंग्रेज़ी की भूमिका स्पष्ट करने के लिए यहां मैं एक उदाहरण देना चाहता हूं। उत्तर प्रदेश के एक अर्धग्रामीण क्षेत्र में मैं पांचवीं कक्षा तक गणित की पढ़ाई हिन्दी में करता था। मसलन, मैं कहता था—दो जमा दो बराबर चार। जब मैं छठी कक्षा में आया तो मैं कहने लगा—टू प्लस टू इज़ ईक्वल टू फोर। यानि, ‘बराबर’ की जगह ‘इज़ ईक्वल टू’ आ गया। मेरी कक्षा में गिने चुने छात्र ही ऐसे थे जिनकी पारिवारिक पृष्ठभूमि में अंग्रेज़ी का कुछ स्थान था। केवल वे ही ‘इज़ ईक्वल टू’ को समझते और साफ तौर पर सही बोल पाते थे। बाकी छात्र इसे हिन्दी के ही एक शब्द के तौर पर ‘इजूकल्टू’ बोलते थे। बहुत आगे जा कर उनके मुख से ‘इज़ ईक्वल टू’ निकलना शुरू हुआ। लेकिन, जब ये छात्र स्नातक कक्षाओं में पहुंचे तो अंग्रेज़ी में कमज़ोर होने के कारण उनके लिए गणित की कक्षा में छह महीने टिकना भी मुश्किल हो गया। इस उदाहरण को एक रूपक के तौर पर देखना चाहिए। विज्ञान और गणित पढ़ने वाले छात्रों की शुरुआती बौद्धिक ऊर्जा का आधे से ज़्यादा हिस्सा अंग्रेज़ी में सहज होने में खप जाता है। विषय का ज्ञान प्राप्त करना दूसरे नम्बर पर चला जाता है। ऐसी सूरत में स्नातक स्तर पर फेल होने वालों के प्रतिशत में ज़बरदस्त उछाल आता है। अगर इन छात्रों को इनकी अपनी भाषा में गणित पढ़ाया जाए तो उनकी समस्त ऊर्जा विषय को समझने में ़खर्च होगी। कमज़ोर जातियों के छात्र अंग्रेज़ी की इस समस्या से अधिक प्रभावित होते हैं। लेकिन, ऊंची जातियों में भी इस तरह के छात्रों की कमी नहीं है। 
गृह मंत्री द्वारा आयुर्विज्ञान (मेडिकल साइंस) की पुस्तकों को हिन्दी में जारी करने से शुरू हुई बहस ने डॉ. लोहिया की याद दिला दी है। डॉ. लोहिया ने प्रस्ताव रखा था कि गर्मियों की छुट्टी में सारे अध्यापकों को अनुवाद के काम में लगा देना चाहिए ताकि अंग्रेज़ी की किताबों को हिन्दी में फटाफट तैयार किया जा सके। वह चाहते थे कि ऐसा करने से अंग्रेज़ी को शिक्षा के माध्यम से हटाने का रास्ता खुल जाएगा। शिक्षा जैसे ही अंग्रेज़ी के शिकंजे से निकलेगी, वैसे ही ज्ञान के लोकतंत्रीकरण का रास्ता खुल जाएगा। भारतवासियों की प्रतिभा प्रस्फुटित हो उठेगी। लोहिया द्वारा इस आशय की बात पिछली सदी के साठ के दशक में कही गई थी। उन दिनों भी अंग्रेज़ी का प्रकोप था, पर आज के मुकाबले उसकी तीव्रता कम थी। अंग्रेज़ी में पढ़ाने वाले अध्यापकों की हिन्दी भी अच्छी होती थी। अगर कराया जाता, तो शायद वे हिन्दी में अनुवाद कर सकते थे। आज स्थिति बदल गई है। अंग्रेज़ी की किताबों से और अंग्रेज़ी में पढ़ाने वाले अध्यापक हिन्दी का इस्तेमाल केवल कामचलाऊ ढंग से कर पाते हैं। अपनी ही भाषा का ज्ञानात्मक इस्तेमाल करने की उनकी क्षमता का पूरी तरह से क्षय हो चुका है। 
लेकिन, परिस्थिति का एक नया पहलू यह है कि अनुवादकों का एक समुदाय बाज़ार में आ चुका है। यह अलग बात है कि अनुवाद से रोज़ी कमाने वाले ये लोग पढ़ाई-लिखाई की दुनिया के सर्वाधिक शोषित और कमतर समझे जाने वाले हिस्से हैं। इनके बारे में माना जाता है कि इनका हाथ अंग्रेज़ी में तंग है। इसलिए ये अंग्रेज़ी में मूल लेखन नहीं कर सकते। अनुवादक बनना इनके लिए मजबूरी है यानि, जिसे अंग्रेज़ी आती होगी, वह अनुवादक नहीं बनेगा। नतीजतन, अंग्रेज़ी के मूल लेखकों और हिन्दी के अनुवादकों की दो श्रेणियां बन गई हैं। एक उच्चतर है, एक कमतर है। चूंकि मेडिकल और इंजीनियरिंग की पुस्तकों का हिन्दी में मूल लेखन होता ही नहीं है, इसलिए अनुवादक दूसरी पायदान पर रहने के लिए अभिशप्त हैं। जो हिन्दी के लिए सच है, वह तमिल और बंगाली जैसी भारतीय भाषाओं के लिए भी उतना ही सच है। 
भारत सरकार पिछले कई सालों से एक ट्रांसलेशन मिशन नाम की संस्था चला रही है। अजीम प्रेमजी विश्वविद्यालय भी कई वर्षों से अनुवाद सम्पदा नामक कार्यक्रम का संचालन कर रहा है। मुझे लगता है कि इन दोनों का ज़ोर विज्ञान और तकनीक की पुस्तकों पर नहीं है। अगर भौतिक शास्त्र, रसायन शास्त्र, जीव विज्ञान, वनस्पति शास्त्र, गणित और यांत्रिकी जैसे विषयों के ज्ञान को हिन्दी और अन्य भारतीय भाषाओं में लाना है तो सरकार को ऐसी संस्थाएं बनानी होंगी जो विज्ञान के अनुवाद के लिए समर्पित हों। दिन-रात इसी बारे में सोचें, भाषाई जद्दोजहद करें, और आसान से आसान भाषा में रोचक ढंग से अनुवाद का सिलसिला आगे बढ़ाएं। इन संस्थाओं में अच्छे अनुवादकों को नौकरी मिल सकती है। सरकार यह संस्थागत प्रयास दो तरह से कर सकती है। अनुवाद की संस्थाएं अलग से गठित की जाएं, या उन्हें मौजूदा शोध-संस्थानों और विश्वविद्यालयों का अंग बनाया जाए। मेरे ख्याल से दूसरा रास्ता पहले के मुकाबले बेहतर है। ऐसी बात नहीं कि विश्वविद्यालयों में ट्रांसलेशन के विभाग नहीं हैं, पर उनमें अनुवाद के ऊपर अकादमीय पढ़ाई होती है। यहां ज़रूरत व्यावहारिक अनुवाद करने की है, न कि अनुवाद और उसकी प्रक्रिया का अकादमीय अर्थ ग्रहण करने की। दरअसल, ये संस्थाएं अनुवाद की फैक्टरियों की तरह काम करेंगी। इससे बड़े पैमाने पर अनुवाद सम्पन्न हो सकेगा। भारत जैसी बड़ी आबादी वाले देश में करोड़ों छात्रों को भारतीय भाषाओं में पुस्तकों की ज़रूरत है। इसकी आपूर्ति इसी तरीके से हो सकती है। 
गृह मंत्री के इस काम के आलोचकों ने सीधे या घुमा-फिरा कर उन पर हिन्दी थोपने का आरोप लगाया है। यह भी कहा गया है कि अगर हिन्दी वाले हिन्दी में मेडिकल की पढ़ाई करेंगे तो तमिल वाले भी तो यह मांग कर सकते हैं कि उन्हें तमिल में पुस्तकें चाहिएं। लेकिन, अगर तमिल वाले ऐसा करते हैं तो इसमें ़गलत क्या है? उन्हें ऐसा करना ही चाहिए। मेडिकल और इंजीनियरिंग की किताबें हिन्दी में ही नहीं, सभी भारतीय भाषाओं में तैयार की जानी चाहिएं। दूसरे, हमें यह भी ध्यान रखना चाहिए कि अगर अंग्रेज़ी की कोई किताब एक बार हिन्दी या किसी दूसरी भारतीय भाषा में प्रामाणिक रूप से अनूदित हो जाती है तो फिर उसका अन्य भारतीय भाषाओं में अनुवाद करना बहुत आसान हो जाता है। विज्ञान की किताब कविता की किताब नहीं है जिसमें पाठ की गुणवत्ता उतनी बार प्रभावित होती है जितनी बार अनुवाद होता है। अगर एक बार अनुवाद सही हो गया, तो हर बार नये भाषांतरण के दुरुस्त होने की गारंटी की जा सकती है। लेकिन, ये सभी काम केवल तभी सुनिश्चित हो सकते हैं जब इन्हें एक संस्थागत बंदोबस्त में सुनियोजित तरीके से दूरगामी उद्देश्यों के तहत किया जा रहा हो।   
(लेखक अम्बेडकर विश्वविद्यालय, दिल्ली में प्रोफेसर और भारतीय भाषाओं में अभिलेखागारीय अनुसंधान कार्यक्रम के निदेशक हैं।)