अधमरे वायरस (क्रम जोड़ने के लिए पिछला रविवारीय अंक देखें)


 लेकिन किशोर दिगंत पर इसका कोई फर्क ही नहीं पड़ता, वह इस पूरी रौद्र मुद्रा से ऐसे बेफिक्र रहते मानो यह कंप्यूटर में तैयार कोई डिजिटल ग्राफिक हो। पथराई आँखों वाले किशोर दिगंत में डर का एक रेशा भी न दीखता, उलटे रोमांच से सराबोर एक आत्मघाती कौतुक दीखता कि उड़ा दो, देखें तो धड़ से सर उतर जाए तो कैसा लगता है? कुछ भी हो सकने वाले उन भयावह पलों में किशोर दिगंत अपनी जगह से टस से मस भी न होते, मानो पिता के गुस्से को चुनौती दे रहे हों कि हिम्मत हो तो मार के दिखाओ। हर बार उनके पिता को ही हार माननी पड़ती। कई बार तो गर्दन और गडांसे के बीच महज एक सूत का फासला बचता। तब इस तमाशे को लगभग रोज़ देखने वाले भी एक पल को कुछ भी हो जाने के अंदेशे से सिहर उठते, कईयों के मुंह से तो बकायदा चीख निकल जाती। लेकिन किशोर दिगंत किसी भावहीन जंगली पशु की तरह न आँखें बंद करते, न चीखते और न ही डरने का कोई चिन्ह प्रकट करते। उन पलों में उनका भावहीन चेहरा जिंदगी से बिल्कुल ऊबे और हताश इंसान का सा लगता, मानो जो खुद ही चाह रहा हो कि गर्दन उड़ाओ और इस पीड़ा से मुक्ति दो।
बचपन से अब तक की अपनी ऐसे ही डरावनी हरकतों और विचित्र सी फीलिंग्स को फेसबुक पर पोस्ट करने के बाद दिगंत सर को उनके अनुमान के उलट, तुरत फुरत में कोई रिस्पोंस नहीं मिला. जबकि वह मान रहे थे कि उनकी पोस्ट के फ्लैश होते ही कुछ लोग आश्चर्यों की तो कुछ अपने भी ऐसे ही एहसासों की झड़ी लगा देंगे, लेकिन ऐसा कुछ भी नहीं हुआ। शुरु में करीब एक सवा घंटे तक तो लोगों ने मशीनी अंदाज में उनकी पोस्ट को बस लाइक भर किया। कुछ ने तो लाइक के साथ दिल की इमोजी भी लगा दी। जाहिर है इन सबने पोस्ट पड़ने की जरूरत नहीं समझी थी। इनमें से ज्यादातर लोग दिगंत सर के दोस्त थे, कुछ ऑफलाइन दुनिया के मगर ज्यादातर यहीं फेसबुक के। लग रहा था उनकी पोस्ट पर प्रतिक्रिया करके ये सब लोग महज तू मेरी, में तेरी पीठ खुजलाने का फर्ज भर निभा रहे थे, क्योंकि शुरु में जिन तमाम लोगों ने लाइक की झड़ी लगाई थी, उन्होंने अगर उनकी वाकई पोस्ट पड़ी होती तो लाइक करने के पहले उनमें से कुछ झिझकते, बिना लाइक के आगे बड़ जाते, कुछ सोचते और कई जो कि उनकी वास्तविक दुनिया के सालों पुराने दोस्त हैं, वो तो जरूर उन्हें फोन भी करते। मगर ऐसा कुछ नहीं हुआ। पोस्ट को लाइक करके दिल की इमोजी लगाने वालों में एक तो उनका बचपन का दोस्त भी था।
ये सब देखकर दिगंत सर को अंदर से गुस्सा भी आ रहा था और इस हकीकत का पता भी चल रहा था कि आभासी दुनिया कितनी गैर जिम्मेदार और मशीनी है। उनके एक पुराने सहकर्मी ने तो हद ही कर दी थी। उसने दिगंत सर की पोस्ट पर ऐसा कमेंट लिखा कि उन्होंने अपना सर पीट लिया। लेखनी को चापलूसी के शहद में डुबोकर उसने लिखा। ‘आपकी लेखनी में जादू है दिगंत सर। अपने शब्दों से आप मन मोह लेते हैं। आपको जब भी पड़ता हूं मन में उमंग की जादुई लहर दौड़ जाती है.... लव यू।’ दिगंत सर को अपने इस 20 साल पुराने पत्रकार मित्र पर इस समय इतना गुस्सा आ रहा था कि सामने होता तो झिंझोड़कर पूछते क्या है ये सब?
लेकिन सिर्फ बिना पड़े लाइक और टिप्पणियां ही नहीं आयीं। जैसे-जैसे समय गुजरा कई वास्तविक टिप्पणियां भी आयीं। कुछ ने ऐसी फीलिंग्स को बहुत डरावनी तो कुछ ने साफ-साफ कहा कि मेंटल हॉस्पिटल जाओ। कुछ ने बिना कोई सुझाव दिए हरकतों पर राय व्यक्त की और साफ कहा पागलपन है। कई ने यह भी लिखा कि ऐसा तो होता ही है डोंटवरी। लेकिन एक मैडम ने अपने कमेंट में लिखा, दिनेश्वर दिगंत जी आपके अंदर अधमरे वायरस हैं। यह बात मैं इसलिए जानती हूँ क्योंकि एक समय तक मुझमें भी एक ऐसा वायरस था। मैं अब उसका इलाज कर चुकी हूं और बिल्कुल ठीक हूं। लेकिन मैं अपना अनुभव आपसे यहां शेयर नहीं करूंगी। इसके लिए आपको मैसेंजर पर आना होगा।
दिगंत सर को इस कमेंट ने चौंका दिया। यह वाकई सबसे अलग था। इसने उनके अंदर कई तरह की उत्सुकताएं जगा दीं। इसे पड़कर उनके दिल को तसल्ली भी मिली कि चलो कोई तो है, जिसमें अपने जैसी ही ऊटपटांग भावनाएं सिर उठाती हैं। लेकिन इस कमेंट का सबसे ज्यादा ध्यान खींचने वाला शब्द था, ‘अधमरे वायरस’। दरअसल आज तक उन्होंने कभी किसी के मुंह से अधमरा वायरस शब्द नहीं सुना था। वायरस या तो जिंदा होता है या मरा। 

अधमरा वायरस क्या हुआ.... और यहां तो अधमरा भी नहीं, ‘अधमर’ थे? इन सब बातों ने उन्हें वाकई बेचैन कर दिया। वह फटाफट मैसेंजर पर आये, जहां वाकई उन मैडम ने उनके लिए अपनी लंबी चौड़ी कहानी लिख रखी थी। दिगंत सर उन मैडम को ऑफलाइन की दुनिया में तो नहीं जानते थे, लेकिन ऑनलाइन उन मैडम के साथ उनकी कई सालों से हाय हैलो थी। दिगंत सर ने जब अपना फेसबुक एकाउंट बनाया था, तभी से केण्राधिका उनकी फेसबुक फ्रैंड थीं। कई बार फेसबुक में किसी बहस के दौरान प्रतिक्रियाओं के रूप में उनमें आपसी संवाद भी होता था, लेकिन कभी फोन पर बात नहीं हुई थी और न ही वर्चुअल दुनिया के अलावा वह उनके बारे में कुछ जानते थे। उन्हें तो यह भी नहीं पता था कि मैडम के नाम के आगे के. लिखने का मतलब कुमारी से है या के का मतलब कुछ और है।
बहरहाल यह सब जानने की जरूरत भी नहीं थी। इस समय तो दिगंत सर में जबर्दस्त उत्सुकता राधिका मैडम की लंबी-चौड़ी कहानी पढने की थी, जिसमें उन्होंने लिखा था, ‘एक दौर में मेरे अंदर आप से ज्यादा नकारात्मक फीलिंग्स आती थीं। यह शर्मसार करने वाली बात लग सकती है, लेकिन मेरे मन में ख्याल आया करते थे कि मेरे साथ कुछ इतना बुरा घट जाए, जिसकी आजतक कल्पना भी न की गयी हो।’ राधिका मैडम ने आगे लिखा था, ‘दिनेश्वर दिगंत जी मैं उम्मीद करती हूं कि आप मेरी इन फीलिंग्स को अपने तक ही रखेंगे, इन्हें सोशल मीडिया में सार्वजनिक नहीं करेंगे, इसी भरोसे से आपको बता रही हूं कि कई बार जब मेरे हसबैंड मुझे दफ्तर में लेट हो जाने पर रात में रेलवे स्टेशन लेने आते थे तो मैं बाहर से भले खुश दिखती थी, लेकिन अंदर से मुझे बिल्कुल नहीं अच्छा लगता था।  क्योंकि उन पलों में मेरे अंदर बेहद नकारात्मक और खौफनाक विचारों की झड़ी लगी होती थी कि काश किसी दिन, देर रात दफ्तर से निकलते हुए मेरा अपहरण हो जाये और फिर कई लोग मेरे साथ बहुत ब्रूटली रेप करें..... उफ्फ.....!!! मैं बता नहीं सकती कि मैं इसके आगे और क्या क्या सोचती थी।’
दिगंत सर यह सब पड़कर सचमुच हतप्रभ रह गये। इस सबके सामने तो उन्हें अपनी नकारात्मकता बहुत बचकानी और सहज लगने लगी। उन्हें यह समझ नहीं आ रहा था कि वह के.राधिका की दिल दहला देने वाली कुंठाओं का विश्लेषण उन्हें किस खांचे में रखकर करें। के. राधिका ने अपनी पोस्ट के अंत में अपना फोन नंबर भी लिखा था। जाहिर है वह सोच रही थीं कि पोस्ट पड़ने के बाद दिगंत सर के दिलो दिमाग में सवालों के तूफान उठेंगे और वो चाहेंगे कि मुझसे बात करके और भी बहुत कुछ जानें। शायद इसीलिए उन्होंने कमेंट के अंत में अपना नंबर भी लिख दिया था और जब उस नंबर पर दिगंत सर ने वाकई फोन लगा दिया तो दूसरी तरफ  न केवल बड़े इत्मिनान से बल्कि इसी विश्वास के साथ फोन उठाया गया था कि फोन करने वाले मिस्टर दिनेश्वर दिगंत ही होंगे।  के. राधिका ने फोन उठाने के बाद न हैलो कहा, न हाय। यह भी नहीं पूछा कि आप कौन हैं, बिल्कुल किसी रिकार्डेड टेप की तरह बजने लगीं, ‘दिगंत जी मुझे पता था कि आप अपनी पोस्ट पर मेरी प्रतिक्रिया पड़ने के तुरंत बाद फोन करेंगे। क्योंकि मुझे अंदाजा था कि मेरी प्रतिक्रिया आपके दिलो दिमाग में उथलपुथल मचा देगी..... खैर मैं अपनी बात शुरू करती हूँ। आपकी तरह एक दौर में, मैं भी खुद के लिए जितना बुरा सोच सकती थी, सोचती थी। अगर मेरे साथ कुछ बुरा नहीं होता था, तो खुद से खिन्न सी हो जाती थी। कुछ बुरा घटता तो कल्पना करती कि वह अपनी पराकाष्ठा से गुजर जाए। तब मैं भी इसी निष्कर्ष पर पहुंचती थी कि मैं मानसिक रूप से बीमार हूं। ऐसा था भी। लेकिन न तो व्यक्तिगत रूप से मुझमें इतनी हिम्मत थी कि मैं अपनी मानसिक स्थिति को स्वीकार कर लूं और न ही इसका कोई फायदा था, क्योंकि स्वीकार न करने की बात भी कहां थी। मैं न भी चाहूं तो भी स्वीकार तो किये ही थी।
क्योंकि हमारा जब कोई बहुत नज़दीकी मरता है, तो वह अकेले कहां मरता है, थोड़ा हमें भी मार जाता है। वह जिस संक्रमण का शिकार होता है, उससे बहुत नहीं तो थोड़ा हम भी संक्रमित हो चुके होते हैं, चाहे हम इस बात को जानें या न जानें। मैं उस वायरस के मानसिक संक्रमण की चपेट में थी, जिसके भयानक संक्रमण में मेरी मां ने तड़प तड़पकर दम तोड़ा था। यह पिछली सदी के आखिरी दिनों की बात है। लेकिन मां के बीमारी के इस चक्रव्यूह में फंसने की कहानी करीब 15 साल और पीछे से शुरू होती है। यह 90 के दशक के शुरुआती दिन थे। तब के बंबई शहर में मेरे मम्मी पापा एक ऐसे जोड़े थे, जो हो तो सकते थे, लेकिन वैसे जोड़ों की कल्पना नहीं की जा सकती थी। क्योंकि वे सहज अनुमान या किसी भी स्वाभाविक समीकरण में फिट नहीं बैठते थे। मेरी मम्मी कर्नाटक के चिकमंग्लुरु ज़िले के एक छोटे से गांव की थीं। जब वह अभी पूरी सत्रह की भी नहीं हुई थीं कि एक रात उन्हें बॉलीवुड का सपना आया। वैसे यह सपना उनके ऊपर सवारी करने की फिराक में तो दो साल पहले से ही था, लेकिन जब राजकपूर की फिल्म ‘प्रेम रोग’ आयी और उसने उत्तर से लेकर दक्षिण तक अपना डंका बजाया तो इस सपने के लिए मां से दूर रह पाना संभव नहीं रह गया। आखिरकार वह उन पर सवार ही हो गया। उसी के इशारे पर एक दिन मां बाया कुडूर रानी चेनम्मा एक्सप्रेस में बैठ बंगलुरु पहुँच गयीं और फिर वहां से बंबई।
मम्मी को लग रहा था कि हिंदी फिल्म प्रोड्यूसर स्टेशन में उनका इंतजार करते मिलेंगे। बेचारा सपना.... इसके बाद उनके साथ भी वही सब हुआ, जैसा हमने बहुत सी कहानियों में सुन रखा है। उनसे भी इस बेवखूफी की कीमत उनका तन और मन कुचल कुचलकर वसूली गयी। यह कीमत चुकाकर मम्मी में जीने की इच्छा नहीं बची। लेकिन पराई दुनिया में मरना भी तो पराये हाथ में ही होता है। रेल की पटरी से अंतिम क्षणों में धक्का देकर उन्हें दो सिक्यूरिटी गार्डों ने बचा लिया। उन दो में से बाद में एक मेरे पापा बने। लेकिन मम्मी-पापा की कहानी यहीं से शुरू नहीं हुई इसके लिए कई महीनों की जलालत का एक दलदल अभी पार करना शेष था। मम्मी को दोनों सिक्यूरिटी गार्डों ने जब बचाया था, तब वह बेहोश थीं। पास के एक अस्पताल में एक घंटे में उन्हें होश आ गया। डॉक्टर ने कहा चिंता की कोई बात नहीं है, भूख से हुई बेहोशी है, खाना खिलाओ पिलाओ सब ठीक हो जाएगा। अस्पताल से सिक्यूरिटी गार्डों द्वारा मम्मी को सिक्यूरिटी कम्पनी के मालिक बनर्जी दादा के घर पहुंचा दिया गया।
....और यहीं से मम्मी की जिंदगी एक अंधेरे रेगिस्तान में भटक गई और इसका ब्लैकहोल अंतत: उन्हें लील गया और  मुझे बीमार कर गया। पिछली सदी के 80 के दशक में बंबई में, चकाचौंध की एक तिलस्मी दुनिया होती थी, जिसे ‘बीयर बार’ कहते थे, पूरी मुंबई में सैकड़ों बीयर बार थे। इनमें एक खास चेन टोपाज की थी। बनर्जी दादा यूं तो सिक्यूरिटी सर्विस की कंपनी चलाता था, लेकिन इसकी आड़ में वह टोपाज के लिए नेपाल और बंगाल से लड़कियां लाकर सप्लाई करता था। मम्मी तो मानो दादा को राह में पड़ी सोने की थैली मिल गयी थी। मम्मी खूबसूरत तो थी हीं, बला का डांस भी कर लेती थीं। दादा को टोपाज से उनके लिए काफी आकर्षक रकम मिली। मम्मी को आम ग्राहकों के लिए नाचना होता और खास ग्राहकों को अपने जिस्म की थाली परोसनी होती। एक दिन बीयर बार की छत से नीचे कूदकर वह इस सिलसिले को खत्म करना चाहती थीं। लेकिन वह जम्प लगाने वाली ही थीं कि उन्हें पीछे से पापा ने पकड लिया। दरअसल उसी बार में सिक्यूरिटी गार्ड, पापा उस समय छत में रखी टंकियों में पानी की क्या स्थिति है, यह देखने आये थे। लेकिन मम्मी किसी भी कीमत पर मरना चाहती थीं। अंत में वह इसी शर्त पर जीने को तैयार हुईं कि मेरे पापा उनको उसी समय वहां से भगाकर कहीं ले जाएं। पापा ने कहा एक दो दिन का मौका दो व्यवस्था बनाता हूं। मम्मी मान गयीं और नीचे जाकर रोज की तरह शाम की तैयारी में जुट गयीं। 
अब सुनो मेरे पापा की कहानी। मेरे पापा यानी बिरेन्द्र बागची बंगाली तो थे, लेकिन उन्होंने कभी बंगाल नहीं देखा था, बंगाली उन्हें बस टूटी फूटी ही बोलनी आती थी। क्योंकि वह बंगाल में नहीं, मध्यप्रदेश के होशंगाबाद में पैदा हुए थे। शायद पांच या उससे भी कम पड़े थे। एक दिन बाया नागपुर भागकर मुंबई आ गये। जाहिर है किसी होटल में हेल्पर या सिक्यूरिटी गार्ड की नौकरी की ख्वाहिश लेकर। मम्मी से छत में किये गए वायदे के चलते वह तीसरे दिन उन्हें लेकर गायब हो गए। मुंबई तब भी बहुत बड़ा शहर था। उन्हें उम्मीद थी कि वे कभी पकड़े नहीं जाएंगे, लेकिन जब काम की सीमाएं हों और पेट के लिए नौकरी के अलावा कोई दूसरा रास्ता न हो तो दुनिया गोल हो जाती है। पापा के लिए दुनिया गोल थी। दूसरी जगह भी उन्हें सिक्यूरिटी गार्ड की ही नौकरी मिली। दो तीन महीने दोनो के, उस जमाने में बंबई के जंगल कहे जाने वाले जोगेश्वरी इलाके की एक झोपड़ पट्टी में बिना हो हल्ला कट गये, उन्हीं दिनों की निशानी मैं हूं। लेकिन एक दिन बनर्जी दादा ने पापा को देख लिया। हुआ यह कि पापा जिस वर्मा सिक्यूरिटी कंपनी में काम करते थे, उस कम्पनी के मालिक देशराज वर्मा अपनी कंपनी, बनर्जी को बेच दी। क्योंकि वर्मा उसे चला नहीं पा रहा था। इसी सौदे को अंजाम देने के सिलसिले में बनर्जी उस कंपनी के गार्ड कहां-कहां काम कर रहे हैं, वो सब कौन हैं, उनका एक डाटा बनवाने के लिए सबसे मिल रहा था। जब पापा ने अपने सामने बनर्जी को देखा तो वह बहुत डर गये। बनर्जी को भी बहुत गुस्सा आया, लेकिन मौके की नजाकत कहो या किसी क्रूर योजना का हिस्सा, उसने अपना गुस्सा चुपचाप पी लिया और पापा से बोला ‘बिरेन्द्र डरने की कोई बात नहीं है तू जैसे नौकरी कर रहा है, वैसे करता रहेगा। पापा को लगा कि शायद बंगाली-बंगाली के समीकरण का उसे फायदा मिला है। उसे क्या मालूम जानलेवा वायरस किसी जाति धर्म का नहीं होता। उसकी एक ही जाति और एक ही धर्म होता है.किसी का भी खून चूस चूसकर उसकी जान ले लेना।
      करीब एक महीने गुजर गए थे, पापा को लगा शायद सचमुच बनर्जी दादा ने उन्हें माफ कर दिया है। इसलिए एक दिन पापा बनर्जी दादा के पास ऑफिस पहुंच गये, एक हफ्ते की छुट्टी के लिए। बनर्जी ने पूरी बात सुनी और बैठने का इशारा किया। उसका व्योहार दोस्ताना था। शाम को बनर्जी ने पापा को अपनी जीप में बैठाया और पवई लेक आ गया। लेक के पास ऊपर पहाड़ी में एक कोठी बनी हुई थी। यह सालों से बंद थी। उसका मालिक लंदन में रहता था और करीब दस सालों से इस कोठी की देखरेख की जिम्मेदारी बनर्जी को मिली हुई थी। बनर्जी का एक गार्ड पवई झील के कई सौ फीट ऊपर बिल्कुल सुनसान पहाड़ी टीले में बनी इस कोठी में सोता था और खुद बनर्जी अक्सर किसी आसामी को बड़ी खातिरदारी के लिए यहां लाया करता था। पापा वहां पहले भी कई शाम किसी खास मेहमान को पहुंचाने जा चुके थे। लेकिन आज बनर्जी उन्हें खुद किसी मेहमान की तरह लाया था। पापा को खूब पिलाया और फिर उस रात पापा को घर छोड़ने के नाम पर बनर्जी तीन लोगों के साथ हमारे घर आया। वह रात बहुत काली रात थी। पापा बेहोश थे और बनर्जी गुस्से में बदला लेने के लिए तड़प रहा था। मम्मी के साथ बनर्जी और उसके साथ आये दो गुर्गों ने खूब क्रूरता से बदला लिया। फिर जाते जाते कह गये सयानी बनने की कोशिश मत करना, पुलिस के पास गयी तो क्या होगा तुझे मालूम है? मम्मी ने बनर्जी के आतंक की कई कहानियां सुन ही नहीं देख और भुगत भी रखी थीं, उन्हीं कहानियों के भय से वह सब कुछ जज्ब कर गईं।
पापा की सुबह तक बेहोशी जैसी हालत थी। लेकिन जब होश में आये तब भी मम्मी ने उनसे वह सब नहीं बताया, जो कहर उन पर टूटा था या फिर कह सकते हैं, उनकी पूछने की हिम्मत ही नहीं हुई। धीरे-धीरे यह सब हर हफ्ते या पखवाड़े का किस्सा हो गया। मम्मी की आत्मा ही नहीं शरीर भी अब रोज़ रोज़ टूटने वाले इन कहरों से पथरा गया था। लेकिन एक दिन नशे में पापा ने बनर्जी और उसके गुर्गों को वह सब बोल दिया जो कई महीनों से सीने में दबा रखा था। नतीजा अंदाजे से ज्यादा खौफनाक रहा। बनर्जी के इशारे पर एक गुर्गे ने पापा को पहाड़ी से सीधे कई सौ फीट नीचे फैंक दिया। यह बात मम्मी को कई सालों बाद पता चली। पहले वह यही मानती थीं, जो कुछ बनर्जी की कंपनी ने उन्हें बता रखा था कि पापा जिस कॉम्प्लेक्स में रात के गार्ड के रूप में ड्यूटी करते थे, वहां के एक दफ्तर में चोरी की थी और उसी कंपाउंड में रहने वाले एक दूसरे चौकीदार की औरत को लेकर भाग गये थे। कई बार पुलिस और वह दूसरा गार्ड भी उनके घर पूछताछ के लिए आये थे। जब मम्मी को पापा के साथ हुए असली हश्र का पता चला तो वह यह सोचकर भी कांप गईं कि गीता के साथ क्या हुआ होगा, जिसको लेकर भागने का आरोप उसके पति यानी मेरे पापा पर था। लेकिन सब कुछ जानकर भी मम्मी में यह हिम्मत नहीं हुई कि वह बनर्जी से कुछ कहतीं या करतीं।
  क्योंकि एक बार अपने गांव से निकलने के बाद मम्मी की वहां दुबारा जाने की कभी हिम्मत नहीं हुई थी। हां, पापा के गायब हो जाने के बाद जरूर एक बार हम दोनों उनके गांव गए थे। लेकिन वहां से यह कहकर हमें मारकर भगा दिया गया  कि हम लोग बहुरुपिये हैं, ठगी करने आये हैं। मम्मी ने इसे अपनी किस्मत पर चोट के ऊपर एक और चोट मानकर स्वीकार कर लिया। क्योंकि मेरी मम्मी सबूतों और साक्ष्यों के पैमाने पर पापा की ब्याहता भी तो नहीं थीं। इस जीवन में शादी जैसी औपचारिकता का कभी कोई मौका ही नहीं आया था। मम्मी को इस शहर में आये अब तक 15 साल हो चुके थे। शहर बंबई से मुंबई हो चुका था। मैं भी करीब चौदह साल की हो गयी थी। एक सरकारी स्कूल में पढ़ती थी। मम्मी मेरे लिए ही सब कुछ सह रही थीं। लेकिन एक दिन उनकी सब्र का बांध टूट गया। उन्होंने मुझे अपनी बत्तीस साल की जिंदगी की पूरी कहानी सुनाई। वह बहुत लंबी रात थी। पूरी रात हम दोनों मां-बेटी खूब गले से लगकर रोईं। सुबह लग रहा था, हम दोनों कुछ हल्का महसूस कर रहे हैं। मां ने मेरे लिए टिफिन बनाया और मेरे स्कूल जाने से पहले एक बार फिर बहुत जोर से छाती से चिपका लिया। लेकिन न रोईंएन कुछ कहाण्बस उन पलों में हम दोनों की आँखें भरी हुई थीं।
शायद मैं समझ नहीं पायी वह विदा और बिछुड़ने का दिन था। जब मैं स्कूल से लौटी को मां जा चुकी थी, रोज-रोज तिल-तिल करके मरने की जलालत से बहुत दूर। लेकिन अपनी जान देकर भी मां बनर्जी का कुछ भी बिगाड़ नहीं पायीं। हम जिस चाल में रहते थे, वहां एक सोशल वर्कर रहती थीं। आशा दाभोलकर, उन्हीं की बदौलत मैं नारी निकेतन एनजीओ पहुंची और बाद की जिंदगी के दस साल गुजारे। नारी निकेतन ने ही मुझे बीए तक पढ़ाया और उन्होंने ही मेरी रमन के साथ शादी कराई। रमन बहुत अच्छे इंसान हैं। उन्होंने अपनी संवदेनशीलता के कारण मुझ जैसी लड़की से शादी की और मुझे वह सब कुछ दिया, जिसकी मैं कल्पना भी नहीं कर सकती थी। मुझे अब सब कुछ भूल जाना चाहिए था। आखिरकार मेरे टूटे फूटे अतीत को रमन ने एक खुशनुमा वर्तमान बना दिया था। लेकिन यह पता नहीं कैसा मनोविज्ञान था कि मुझे न अपना सुख अच्छा लगता थाए न सुरक्षा अच्छी लगती थी। न खुशी, न खुशियों से भरा जीवन। मेरे अंदर तिलतिलकर ढही और मरी मम्मी और उसका अधमरा वायरस जो घुसा था। यह वायरस मुझे किसी खुशी, किसी सम्मान का सुख नहीं लेने देता था। जब भी मुझे यह एहसास होता मैं बहुत सुरक्षित हूं तो पता नहीं क्यों इस सुरक्षा से बगावत करने लगती। क्या यह मेरे अंदर मौजूद मम्मी थी, जो इस खुशी से इस सुरक्षा से बगावत कर रही थी? पता नहीं.... लेकिन जब इस मुंबई शहर में मुझे सुरक्षा का एहसास होता तो एक बीमार मन मेरे अंदर उन्मादित होने लगता। दिल असुरक्षित होने के जख्मों की ख्वाहिशें करने लगता। मैं बहुत दिनों तक सोचती रही कि ऐसा क्यों है? मुझे लगा शायद घर में रहने के कारण ऐसा होता है, तो मैंने नौकरी कर ली। संयोग से जिस कंपनी में एक क्लर्क के रूप में काम कर रही थी, वहां से बनर्जी का ऑफिस दूर नहीं था। एक दिन मैं उसके ऑफिस पहुंची। वह मुझे पहले तो पहचान नहीं पाया फिर मैंने मम्मी पापा का नाम बताया तो उसने पहचानने की कोशिश की और तुरंत कर भी लिया।
फिर तो उसने मेरी तारीफ भी की कि मैं अपनी मम्मी से कम सुंदर नहीं हूं। जब उसे लगा कि मेरे अंदर कोई गुस्सा, तनाव या मम्मी की मौत को लेकर उसके विरूद्ध कोई गिला शिकवा नहीं है तो वह मेरे साथ न सिर्फ सहज हो गया बल्कि अधेड़ से ज्यादा होने के बाद भी मुझ पर डोरे डालने लगा। मैंने उससे कहा आपके बहुत बड़े-बड़े कांटेक्ट हैं, मैं बीए पड़ी हूं। मेरी कहीं अच्छी जगह नौकरी लगवा दीजिए। उन दिनों मुंबई में हीरानंदानी डेवलपर्स की तूती बोलती थी। मुझे मालूम था कि मुंबई में बीयर बार बंद होने के बाद बनर्जी का सारा काम सिक्यूरिटी का ही है और हीरानंदानी में भी सिक्यूरिटी का ठेका उसी का है। मेरी फरमाइश ने उसके अंदर एक कहानी की नींव डाल दी। बड़ी तेज़ी से वह कल्पना का जाल बिछाते हुए मेरी नौकरी लगवाने के लिए तैयार हो गया। उसने मेरी मम्मी के किये पर अफसोस भी जताया और अगले दिन शाम को आने के लिए कहा। मैंने कहा मैं कल नहीं शनिवार को आ पाऊंगी। वह मान गया। मैं दो दिनों में अपने अंदर के उस वायरस को खत्म करने की हिम्मत जुटायी, जो मुझे जीने भी नहीं दे रहा था और मरने भी नहीं दे रहा था। दो दिनों तक बनर्जी ने भी मुझे लेकर कई तरह की कल्पनाएं की होंगी। क्योंकि मैंने कह दिया था कि मैं दफ्तर के बाद ही आ पाऊंगी और उसने भी इशारों-इशारों में मुझे बताया था कि पहले वह मुझे वहां के एचआरडी से दफ्तर के बाहर मिलवायेगा और बाहर का मतलब उसे पता था, मैं समझ रही हूं। बहरहाल उस शनिवार मैं पूरी तैयारी के साथ गई थी आर या पार हो सकता है यह संयोग हो या हो सकता है, कुदरत भी मेरे साथ रही हो। सब कुछ वैसा ही हो रहा था, जैसे मैं कल्पना कर रही थी। वह मुझे भी पवई लेक के ऊपर पहाड़ी में बनी उसी कोठी में ले गया, जहां पापा को आखिरी बार ले गया था। उस जगह को मैं एक दिन पहले दिन में भी देख आयी थी, जब नीचे झील के पास कई युवा जोड़े दुनिया से बेखबर एक दुनिया रच रहे थे। जमीन से वह पहाड़ी करीब चार साढे चार सौ फीट नहीं, मीटर ऊंची थी। कोठी के पीछे की रेलिंग लगी थी कि कोई धोखे में नीचे न गिर जाए। वहां से मैंने नीचे झांककर देखा तो दहशत से भर गयी थी। नीचे बड़े-बड़े पत्थर के टुकड़े गेंद की माफिक दिख रहे थे। एक तरफ झील थी, दूसरी तरफ वह खाईं। 
मेरा अनुमान था, बनर्जी मुझे लेकर यही आएगा। मैं सही निकली। बुढापे की तरफ  तेजी से बड़ते बनर्जी के हावभाव बड़ी तेजी से काइयांपन दिखाने लगे। दो पैग पीने के बाद ही वह हरकतों पर उतर आया। लेकिन मैंने स्थितियां बनाकर उसे जल्दी से एक मोटा पैग और पीने के लिए मजबूर किया। तब तक वह लड़खड़ाने लगा था। मैं सुरमई नज़ारे की भूमिका बांधते हुए कोठी के पीछे की रेलिंग की तरफ आ गयी। बनर्जी बोला बेबी वहां मत खड़े हो, तुम नीचे गिर सकती हो। मैंने सुना ‘बेबी’ तो समझ गयी तरंग भरपूर आ चुकी है। मैंने कहा कैसे गिर जाउंगी? तो उसने रेलिंग में हाथ रखकर यह दिखाने की कोशिश की कि नीचे देखने के चक्कर में मैं गिर सकती हूं। जब वह रेलिंग में हाथ रखकर नीचे झांकने का अभिनय करने की कोशिश की उन्हीं पलों में मैंने फुर्ती से उसके दोनो पैर पकड़े और पूरी ताकत से उसे ऊपर उठा दिया, जिससे वह रेलिंग के नीचे लटकने लगा। मेरी इस अचानक हरकत के लिए वह तैयार नहीं था। इसलिए वह समझ ही नहीं पाया कि मैं क्या कर रही हूं और अब वह दोनों हाथों से रेलिंग को पकड़े दहशतभरी निगाहों से मुझे देख रहा था। अरे.... अरे ये क्या कर रही हो....., उसने भय और गुस्से से मुझे डांटने की कोशिश की। लेकिन उन पलों में मैंने कोई डायलॉग बोलने का मोह नहीं पाला और पूरी ताकत से उसके धड को नीचे तरफ  फैंक दिया जिससे एक झटके में उसके हाथों से रेलिंग छूट गयी और दो मन के पत्थर की तरह वह नीचे खाईं में पसरी चट्टान में जाकर बिखर गया। मैंने नीचे झांककर अंदाजा लगाया सब कुछ शांत हो चुका था। इस एहसास से दिल को शुकून मिला। अब तक चारो तरफ अंधेरा हो चुका था। झील के ऊपर लगे लैपपोस्ट भी जल चुके थे। मैंने दूर तक देखा कोई नहीं था। जल्दी-जल्दी वहां से नीचे उतरी और क्रास कट मारते हुए पांच मिनट के भीतर नीचे रोड पर आ गई। एक आटो आ रहा था, मैंने उसे हाथ दिया और एक सांस में बोली विजय अपार्टमैंट कुर्ला। ऑटो वाले ने मीटर डाउन करते हुए बैठने का इशारा किया। मैं पसीना पोछते हुए बैठ गई। अगले 30 मिनट तक मेरे अंदर बिल्कुल सन्नाटा पसरा रहा। पता नहीं यह दहशत का था या सुकून का। जब रिक्शे वाले ने कहा मैडम विजय अपार्टमेंट सामने है, तब मैं हड़बड़ाते हुए नीचे उतरी उसे 50 का नोट दिया और 4 रुपये वापस लेने का इंतजार किये बिना सोसायटी के अंदर चली गई।
इस जगह शायद दिगंत सर, के. राधिका से कोई सवाल करने कि जगह बना रहे थे तभी उन्हें फोन में घर की बेल सुनायी पड़ी. राधिका ने कहा मिस्टर दिगंत मेरे बच्चे आ गये हैं, अब मैं बात नहीं कर पाऊंगी और औपचारिक स्वीकृति का इंतज़ार किये बिना फोन काट दिया.... दिगंत सर बड़ी देर तक अपनी जगह बिना हिले डुले सन्नाटे में बैठे रहे। दिलो-दिमाग में के. राधिका के ये शब्द तूफान की तुरही बजा रहे थे, ‘आप सिर्फ अपनी मौत से ही नहीं मरते, अपनों की मौत में भी थोड़ा मर जाते हैं, अपनों के संक्रमणग्रस्त होने पर आप में भी कुछ वायरस पलने लगते हैं, जो आपको पूरा न भी मारें तो भी अधमरा तो कर ही देते हैं।’ काफी देर तक खामोश बैठे रहने के बाद उन्होंने कंपकंपाते हाथों से अपनी डायरी उठाई, अस्पष्ट सा कुछ बुदबुदाए, जैसे कोई हिसाब लगा रहे हों। फिर एक खाली पेज खोला और लिखा.
वायरस नंबर एक.....
वायरस नंबर दो.....
वायरस नंबर तीन.....