पर्यावरण के चुभते सवाल


सीओ.पी. -27 यानि पर्यावरण बैठक। इस बैठक में ऐतिहासिक फंड की स्थापना की चर्चा खूब हुई। परन्तु पर्यावरणविद डा. अनिल प्रकाश जोशी के वाजिब सवाल हैं। कहा- ज्यादा बड़ा प्रश्न यह है कि क्या इस तरह के फंड से अब तक हुई हानि की भरपाई हो पाएगी? दूसरा क्या हमने स्वीकार कर लिया है कि पर्यावरण संबंधी आपदाएं होती रहेंगी और उनके लिए जो भरपाई अमीर देश करेंगे। बात वहीं समाप्त हो जाएगी। जबकि बड़ा सवाल यह है कि जब दुर्घटनाएं होती हैं तो सिर्फ जान-माल की हानि नहीं होती। इससे एक देश काफी पीछे चला जाता है। 
ऐसे सम्मेलन पर्यावरण सुधार में क्रांतिकारी परिवर्तन न भी ला पायें परन्तु वे दुनिया के सामने एक चेतावनी ज़रूर रख पाते हैं कि आप सभी विनाशकाल से ज्यादा दूर नहीं हैं। क्रांतिकारी परिवर्तन नहीं ला पाने की बड़ी वजह है कि विकसित बड़े देश उपभोक्तावाद के चक्कर में इतने ज्यादा फंस चुके हैं कि उनसे बाहर निकलने का रास्ता सूझता ही नहीं। सूझ भी जाए तो उस पर अमल करना उनकी सीमा बनी रहती है। क्योंकि जिस कम्बल को उन्होंने ओढ़ रखा है उसे उतार फैंकना उनके लिए काफी मुश्किल हो चुका है।
बताया गया है कि पिछले सीओपी से बार-बार इस बात पर कितना बल दिया गया है कि 2050 तक कार्बन उत्सर्जन इतना कर दो। परन्तु व्यवहारिक स्तर पर ज्यादा कुछ हो नहीं सका। इन बैठकों में चर्चा के लिए चर्चा होती रही है। दु:खद है पर्यावरण जो कि मकसद रहना चाहिए उसकी जगह आर्थिकी की लड़ाई गम्भीर बनती रही है। यह बात भी कम बदकिस्मती की नहीं है कि बहुत से विकासशील मुल्क विकसित मुल्कों की बराबरी करने के लिए अपने हिस्से के विकास को कम नहीं करना चाहते। इस बात का असल अर्थ है कि उन्हें जो भी नुकसान उठाना पड़ा हो अेमीर मुल्क उसकी भरपाई कर दें। इसे कुदरत तथा अपनी पृथ्वी के साथ न्यायपूर्ण नहीं कहा जा सकता। जबसे सीओपी की शुरूआत हुई है, तब से ही कोने-कोने से फैसले लिये गये हैं जिनसे चीज़ें बेहतर और बेहतर हो पाई हैं। 
वास्तविकता यह है कि आप जितना कुदरत से दूर होते चले जाएंगे उतना ही जीवन धारा से दूर होते चले जाएंगे। कार्ल मार्क्स से एक बार किसी ने पूछा कि मनुष्य और कुदरत का क्या संबंध है? उन्होंने उत्तर दिया कि जब आप मनुष्य और कुदरत को अलग-अलग कर देखते हैं तो आप पहले ही गलत साबित हो जाते हैं। गोया मनुष्य और कुदरत एक ही हैं। लेकिन हम कुदरत का मनमाना शोषण कर मनुष्य को बचाना चाहते हैं जो कि संभव नहीं है।  इस बात को तो रद्द नहीं किया जा सकता कि औद्योगिक क्रांति से पहले जो 1.5 डिग्री सैल्सियम से कम वैश्विक तापमान था। क्या आज हम किसी भी यत्न से उसी को वापिस ला सकते हैं? यू.एन. और यूरोपियन कमिशन ने बार-बार यह तो कहा है कि शायद हम अपने उस उद्देश्य से भटक गये हैं। जिसके लिए इकट्ठे हुए थे। इस सत्य से कौन इनकार कर सकता है कि पिछली सीओपी बैठकों में कोई बड़ा ऐतिहासिक फैसला नहीं हो पाया। तो क्या बैठक केवल बैठक के लिए ही होती है। इतनी अंतर्राष्ट्रीय गोष्ठियों के बाद अगर आप यह जानना चाहें कि क्या हम कार्बन उत्सर्जन को रोक पाये हैं तो हमें निराशा का सामना ही करना पड़ेगा।
पेरिस एग्रीमैंट में यही निर्णय लिया गया था कि दुनिया भर के देश ग्लोबल वार्मिंग को नियमित करने के लिए एकीहत क्लाइमेंट एक्शन लेंगे जोकि 1.5 डिग्री तक का टारगेट ही होगा। इसके लिए जो भी कमिटमैंट होगी। वह सभी के लिए स्वीकार्य होगी। हम अपने देश में ही देखें। कूड़े के पहाड़ खड़े हैं। नहरों को कचरा बहाने के लिए रख दिया है। पेड़ विकास के नाम पर काट रहे हैं। खेत कालोनियां बनते जा रहे हैं। पानी दूषित, हवा दूषित, ज़मीन दूषित। व्यवहार में कितने सजग हैं हम। प्रश्न कठिन है, तैयारी बहुत कम।