अधमरे वायरस


(क्रम जोड़ने के लिए पिछला रविवारीय अंक देखें)
हुआ यह कि पापा जिस वर्मा सिक्यूरिटी कंपनी में काम करते थे, उस कम्पनी के मालिक देशराज वर्मा अपनी कंपनी, बनर्जी को बेच दी। क्योंकि वर्मा उसे चला नहीं पा रहा था। इसी सौदे को अंजाम देने के सिलसिले में बनर्जी उस कंपनी के गार्ड कहां-कहां काम कर रहे हैं, वो सब कौन हैं, उनका एक डाटा बनवाने के लिए सबसे मिल रहा था। जब पापा ने अपने सामने बनर्जी को देखा तो वह बहुत डर गये। बनर्जी को भी बहुत गुस्सा आया, लेकिन मौके की नजाकत कहो या किसी क्रूर योजना का हिस्सा, उसने अपना गुस्सा चुपचाप पी लिया और पापा से बोला ‘बिरेन्द्र डरने की कोई बात नहीं है तू जैसे नौकरी कर रहा है, वैसे करता रहेगा। पापा को लगा कि शायद बंगाली-बंगाली के समीकरण का उसे फायदा मिला है। उसे क्या मालूम जानलेवा वायरस किसी जाति धर्म का नहीं होता। उसकी एक ही जाति और एक ही धर्म होता है.किसी का भी खून चूस चूसकर उसकी जान ले लेना।
      करीब एक महीने गुजर गए थे, पापा को लगा शायद सचमुच बनर्जी दादा ने उन्हें माफ कर दिया है। इसलिए एक दिन पापा बनर्जी दादा के पास ऑफिस पहुंच गये, एक हफ्ते की छुट्टी के लिए। बनर्जी ने पूरी बात सुनी और बैठने का इशारा किया। उसका व्योहार दोस्ताना था। शाम को बनर्जी ने पापा को अपनी जीप में बैठाया और पवई लेक आ गया। लेक के पास ऊपर पहाड़ी में एक कोठी बनी हुई थी। यह सालों से बंद थी। उसका मालिक लंदन में रहता था और करीब दस सालों से इस कोठी की देखरेख की जिम्मेदारी बनर्जी को मिली हुई थी। बनर्जी का एक गार्ड पवई झील के कई सौ फीट ऊपर बिल्कुल सुनसान पहाड़ी टीले में बनी इस कोठी में सोता था और खुद बनर्जी अक्सर किसी आसामी को बड़ी खातिरदारी के लिए यहां लाया करता था। 
पापा वहां पहले भी कई शाम किसी खास मेहमान को पहुंचाने जा चुके थे। लेकिन आज बनर्जी उन्हें खुद किसी मेहमान की तरह लाया था। पापा को खूब पिलाया और फिर उस रात पापा को घर छोड़ने के नाम पर बनर्जी तीन लोगों के साथ हमारे घर आया। वह रात बहुत काली रात थी। पापा बेहोश थे और बनर्जी गुस्से में बदला लेने के लिए तड़प रहा था। मम्मी के साथ बनर्जी और उसके साथ आये दो गुर्गों ने खूब क्रूरता से बदला लिया। फिर जाते जाते कह गये सयानी बनने की कोशिश मत करना, पुलिस के पास गयी तो क्या होगा तुझे मालूम है? मम्मी ने बनर्जी के आतंक की कई कहानियां सुन ही नहीं देख और भुगत भी रखी थीं, उन्हीं कहानियों के भय से वह सब कुछ जज्ब कर गईं।
पापा की सुबह तक बेहोशी जैसी हालत थी। लेकिन जब होश में आये तब भी मम्मी ने उनसे वह सब नहीं बताया, जो कहर उन पर टूटा था या फिर कह सकते हैं, उनकी पूछने की हिम्मत ही नहीं हुई। धीरे-धीरे यह सब हर हफ्ते या पखवाड़े का किस्सा हो गया। मम्मी की आत्मा ही नहीं शरीर भी अब रोज़ रोज़ टूटने वाले इन कहरों से पथरा गया था। लेकिन एक दिन नशे में पापा ने बनर्जी और उसके गुर्गों को वह सब बोल दिया जो कई महीनों से सीने में दबा रखा था। नतीजा अंदाजे से ज्यादा खौफनाक रहा। बनर्जी के इशारे पर एक गुर्गे ने पापा को पहाड़ी से सीधे कई सौ फीट नीचे फैंक दिया। यह बात मम्मी को कई सालों बाद पता चली। पहले वह यही मानती थीं, जो कुछ बनर्जी की कंपनी ने उन्हें बता रखा था कि पापा जिस कॉम्प्लेक्स में रात के गार्ड के रूप में ड्यूटी करते थे, वहां के एक दफ्तर में चोरी की थी और उसी कंपाउंड में रहने वाले एक दूसरे चौकीदार की औरत को लेकर भाग गये थे। कई बार पुलिस और वह दूसरा गार्ड भी उनके घर पूछताछ के लिए आये थे। जब मम्मी को पापा के साथ हुए असली हश्र का पता चला तो वह यह सोचकर भी कांप गईं कि गीता के साथ क्या हुआ होगा, जिसको लेकर भागने का आरोप उसके पति यानी मेरे पापा पर था। लेकिन सब कुछ जानकर भी मम्मी में यह हिम्मत नहीं हुई कि वह बनर्जी से कुछ कहतीं या करतीं।
  क्योंकि एक बार अपने गांव से निकलने के बाद मम्मी की वहां दुबारा जाने की कभी हिम्मत नहीं हुई थी। हां, पापा के गायब हो जाने के बाद जरूर एक बार हम दोनों उनके गांव गए थे। लेकिन वहां से यह कहकर हमें मारकर भगा दिया गया  कि हम लोग बहुरुपिये हैं, ठगी करने आये हैं। मम्मी ने इसे अपनी किस्मत पर चोट के ऊपर एक और चोट मानकर स्वीकार कर लिया। क्योंकि मेरी मम्मी सबूतों और साक्ष्यों के पैमाने पर पापा की ब्याहता भी तो नहीं थीं।