वोट की राजनीति से क्यों दूर है भारत जोड़ो यात्रा


भारतीय जनता पार्टी ने दिल्ली नगर निगम के चुनाव को अपनी प्रतिष्ठा का प्रश्न बना रखा है। वह नहीं चाहती कि आम आदमी पार्टी के म़ुकाबले इस चुनाव को हारने के बाद राजधानी की स्थानीय राजनीति से उसका पूरी तरह से स़फाया हो जाए। परिस्थितियां उसके विपरीत हैं। पिछले पंद्रह साल में उसके पार्षदों ने भ्रष्टाचार और कुशासन के कारण जम कर बदनामी कमाई है। ़खास बात यह है कि कमज़ोर हालत में होने के बावजूद यह पार्टी स्थानीय निकाय का यह चुनाव आसानी से हारने के लिए तैयार नहीं है। पार्टी के विरोधी भी इस बात को मानते हैं कि भले ही हार सामने खड़ी हो, पर भाजपा किसी भी हालत में मैदान नहीं छोड़ती। दूसरी तरफ कांग्रेस है। यह पार्टी नगर निगम का चुनाव गम्भीरतापूर्वक लड़ते हुए दिख ही नहीं रही। तकरीबन ऐसी ही स्थिति गुजरात के चुनाव की है। वहां भी कांग्रेस उस गम्भीरता का प्रदर्शन नहीं कर पाई है जिसकी उससे अपेक्षा थी। कांग्रेस और भाजपा के बीच राजनीतिक रवैये का यह अंतर उन लोगों को बेचैन कर सकता है जो मानते हैं कि केवल कांग्रेस ही भाजपा को हरा कर केंद्र में सरकार बनाने की संभावनाएं रखती है। ऐसी सूरत में प्रश्न उठता है कि कांग्रेस इस समय चुनावी राजनीति के प्रति इस तरह की अरुचि क्यों दिखा रही है। मेरी समझ में इस प्रश्न का उत्तर शायद राहुल गांधी की भारत जोड़ो यात्रा पर एक विश्लेषणात्मक नज़र डालने से एक हद तक मिल सकता है।
शुरुआत से ही राहुल गांधी के नेतृत्व में चल रही भारत जोड़ो यात्रा पहली नज़र में एक ऐसे दीर्घकालीन जनसम्पर्क अभियान के रूप में देखी जा रही है जिसकी इस पार्टी को अर्से से ज़रूरत थी। पार्टी कोई भी हो, इस प्रकार की मुहिम से किसी भी पार्टी और उसके नेता को केवल ़फायदा ही होता है। भले ही उस ़फायदे के कम या ज्यादा होने का आकलन तुरंत न किया जा सके। लेकिन, जिस तरह से यह यात्रा आगे बढ़ी है, और जिस तरह से इसे विरोध और समर्थन का सामना करना पड़ा है, इसके राजनीतिक उद्देश्यों में एक नये पहलू का समावेश हुआ है। इसी नये पहलू के कारण राहुल गांधी और कांग्रेस के इस उद्यम को जनसम्पर्क की कवायद से परे जाकर समझना ज़रूरी हो गया है। संभवत: इस नये पहलू में ही इस यात्रा का असली म़कसद छिपा हुआ है।
यात्रा शुरू होते ही इस सवाल पर बहस शुरू हो गई थी यात्रा के ़कदम चुनाव के दौर से गुज़रने के लिए तैयार बैठे गुजरात और हिमाचल प्रदेश से क्यों नहीं पड़ रहे हैं? यात्रा के आयोजक चाहते तो उसका रास्ता इस तरह से तैयार कर सकते थे कि राहुल गांधी इन प्रदेशों से भी गुज़रते। राजनीतिक समीक्षकों को उम्मीद थी कि कांग्रेस इन दोनों प्रदेशों के चुनाव को गम्भीरता से लड़ेगी। यह स्पष्ट संभावना भी थी कि पार्टी को यहां लाभ हो सकता है। दोनों प्रदेशों में भाजपा सरकारें एंटी-इनकम्बेंसी का सामना कर रही थीं। वैसे भी हिमाचल में 1985 के बाद से कोई पार्टी लगातार दो चुनाव नहीं जीत पाई है। दूसरे, गुजरात के पिछले चुनाव में राहुल के नेतृत्व में ही कांग्रेस ने भाजपा के आत्मविश्वास को हिला कर उसकी सीटें सौ से कम कर दी थीं। मैंने तो एक सुझाव यह भी दिया था कि खड़गे को नये अध्यक्ष के रूप में राहुल को यात्रा स्थगित करके 15-16 दिन इन चुनावों में लगाने के लिए कहना चाहिए। लेकिन, न खड़गे ने कोई निर्देश दिया, और न ही राहुल गांधी ने चुनाव प्रचार में कोई उल्लेखनीय दिलचस्पी दिखाई। अब यह स़ाफ हो चुका है कि उन्होंने जानबूझ कर ऐसा नहीं किया। वे चाहते थे कि यात्रा को चुनाव से होने वाले लाभ-हानि से परे रखा जाए। 
राजनीति के आयोजन या तो चुनावी ़फायदे के लिए होते हैं, या फिर उनके पीछे कोई बड़ा दूरगामी लक्ष्य होता है। अगर चुनावी ़फायदा इस यात्रा का म़कसद नहीं है, तो फिर वह दूरगामी उद्देश्य क्या है जो यह यात्रा हासिल करना चाहती है? दरअसल, यह यात्रा राहुल गांधी को एक ऐसे नेता के रूप में स्थापित करना चाहती है जो चुनाव से हासिल होने वाली सत्ता के प्रलोभन से परे जाकर राष्ट्र की चिंता में डूबा हुआ है। भारतीय परम्परा में ऐसा व्यक्ति बनने के लिए शख्सियत में एक तरह का साधुभाव या संतत्व पैदा होना आवश्यक है। राहुल गांधी की प्रत्येक गतिविधि, उनकी सभी तस्वीरें, उनकी बिना कटी-छंटी बेतरतीब दाढ़ी और सामान्य आबाल-वृद्ध-नारी के साथ उनका अंतरंग हेलमेल इसी भाव को पैदा करने का प्रयोजन लग रहा है। वे वोट मांगते हुए नहीं दिखना चाहते, बल्कि वोट मांगने से इन्कार करते हुए राष्ट्र के स्तर पर राजनीतिक-सामाजिक एकजुटता की पुन: स्थापना का प्रयास करते हुए दिखना चाहते हैं। 
चुनावी इल़ाकों से दूर रहने के आग्रह के कारण राहुल गांधी को जो नुकसान हो रहा है, उसका अंदाज़ा लगाया जा सकता है। पर इससे एक लाभ यह हुआ है कि उनकी यात्रा के साथ ऐसे तमाम लोग जुड़ सके हैं जो स्वभावत: कांग्रेस के आलोचक रहे हैं, या जिन्होंने ़गैरकांग्रेसवादी राजनीति में लम्बा अरसा गुज़ारा है। इनमें कई पूर्व या वर्तमान समाजवादी हैं। कुछ पर्यावरणवादी हैं। कुछ बुद्धिजीवी हैं, कुछ एक्टिविस्ट हैं। दूसरी पार्टियों से निराश हुए कुछ ऐसे लोग हैं जिन्हें किसी नये ध्रुव की तलाश है। इनमें से कई लोग स्वयं को मार्क्सवादी या वामपंथी की श्रेणियों में रखते हैं। कुछ की आत्मछवि सामाजिक कार्यकर्ताओं की है। ़गैर-पार्टी राजनीति करने या एनजीओ सैक्टर में सक्रिय लोग भी इस यात्रा के अंग बन रहे हैं। ऐसे तत्व कांग्रेस के इतिहास में पहली बार उसके साथ जुड़ रहे हैं। दरअसल, किसी ज़माने में इन तत्वों का जन्म ही कांग्रेस शासन के विरोध में हुआ था। नरेंद्र मोदी, उनकी हिंदुत्ववादी राजनीति के निरंतर विस्तार और उनकी चुनावी विजयों ने मिलकर कांग्रेस को ही हाशिये में नहीं धकेला, बल्कि ऐसे राजनीति तत्वों की राजनीतिक पहलकदमी को भी शून्य कर दिया है। दिलचस्प बात यह है कि ये सभी लोग राजनीति में अपने बचे रहने के लिए राहुल गांधी की तऱफ उम्मीद भरी नज़रों से देख रहे हैं। वे नये कांग्रेसी बनने के लिए तैयार हैं। राहुल की यात्रा जिस तरह से आयोजित की गई है, उसकी यह एक असाधारण सफलता है। भारतीय जनता पार्टी के प्रवक्ता इस यात्रा की जितनी चाहे खिल्ली उड़ाते रहें, लेकिन इसके ज़रिये शायद ऐसा पहली बार हो रहा है कि प्रधानमंत्री पद के किसी उम्मीदवार ने वोट माँगने से दूर रहते हुए राष्ट्रीय मंच पर स्वयं को स्थापित करने का बीड़ा उठाया है। यह एक ऐसा दाँव है जो अगर सफल हुआ तो नरेन्द्र मोदी की सर्वभारतीय श़िख्सयत के म़ुकाबले एक और सर्वभारतीय श़िख्सयत उभर सकती है। ज़रूरी नहीं कि ऐसा सौ ़फीसदी एक ही बार में हो जाए। हो सकता है कि यह यात्रा आंशिक रूप से ही सफल हो। राहुल गाँधी और उनके नये समर्थकों को पूरी तरह से सफल होने के लिए किसी और लम्हे का इंतज़ार करना पड़े। 
जो भी हो, भले ही आज राहुल गांधी वोट न माँग रहे हों— अंतत: उन्हें और उनके नये कांग्रेसियों को चुनावी परीक्षा से गुज़रना ही होगा। उन्होंने इस यात्रा पर गुजरात का चुनाव कुर्बान कर दिया है, पर वे छवि-निर्माण की इस रणनीति पर राजस्थान, मध्य प्रदेश, छतीसगढ़ और हरियाणा के चुनाव कुर्बान नहीं कर सकते। लोकतांत्रिक राजनीति के इस नये संत को अंतत: वोट माँगने ही होंगे।   
लेखक अम्बेडकर विश्वविद्यालय, दिल्ली में प्ऱोफेसर और भारतीय भाषाओं में अभिलेखागारीय अनुसंधान कार्यक्रम के निदेशक हैं।