रूसी तेल पर प्राइस कैप : क्या इससे जंग रुक जायेगी ?

तेल निर्यात करने वाले 13 देशों के समूह (ओपेक) और रूस ने 4 दिसम्बर, 2022 को तय किया कि वह तेल उत्पादन के वर्तमान स्तर में फिलहाल कोई परिवर्तन नहीं करेंगे। ऐसा करने का एक मुख्य कारण है। 2 दिसम्बर, 2022 को जी-7 ने रूसी सीबोर्न कच्चे तेल पर प्राइस कैप लगा दिया था, जो कि 5 दिसम्बर, 2022 से लागू हो गया है। साथ ही चीन से बढ़ती मांग को लेकर और स्ट्रेटेजिक रिज़वर्स से भी सप्लाई में कमी को लेकर चिंता है। इस पृष्ठभूमि में ओपेक व रूस यह देखना चाहते हैं कि प्राइस कैप के क्या परिणाम हो सकते हैं। बहरहाल, यह स्थिति भारत को काफी राहत पहुंचाती है, क्योंकि तेल आउटपुट में किसी भी प्रकार की कटौती से अपने देश में तुरंत तेल के दाम बढ़ जाते हैं जो कि पहले से ही बहुत अधिक हैं। चूंकि तेल के दाम बढ़ने से ट्रांसपोर्टेशन भी महंगा हो जाता इसलिए अन्य चीज़ें भी स्वत: महंगी हो जाती हैं।
रूसी सीबोर्न कच्चे तेल पर 60 डॉलर प्रति बैरल का प्राइस कैप लगाया गया है। इसका विश्व स्तर पर क्या प्रभाव पड़ेगा? इस बारे में फिलहाल कुछ भी कहना जल्दबाजी होगा, लेकिन उद्योग पर्यवेक्षकों का मानना है कि ओपेक बाज़ार समय खरीदने का प्रयास कर रहा है ताकि रूसी कच्चे तेल पर प्राइस कैप के बाद के जीवन के साथ तालमेल बैठाया जा सके। इस समय जो स्थिति है वह तेल के बहाव की दिशा परिवर्तन में तेज़ी लेकर आयेगी। मध्य-पूर्व का तेल यूरोप की तरफ  ज्यादा बहने लगेगा, जिससे रूसी कच्चा तेल भारत के लिए अधिक रियायत पर उपलब्ध रहेगा, लेकिन अनुमानित अधिक रियायत शायद न मिल सके क्योंकि प्राइस कैप के प्रभावी होने के बाद शिपिंग व इंश्योरेंस कठिन हो जायेंगे। 
नई दिल्ली ने कहा है कि वह रूसी कच्चे तेल को खरीदना जारी रखेगी क्योंकि वह मध्य-पूर्व के समान ग्रेड के तेल से सस्ता पड़ता है। ऐसा इसलिए क्योंकि तेल का दाम बेंचमार्क क्रूड पर आधारित होता है जैसे नार्थ सी ब्रेंट या यूएस वेस्ट टेक्सास इंटरमीडिएट। रूसी तेल में उरल्स की सबसे अधिक मांग है। वह बाज़ार स्थिति पर निर्भर करते हुए किसी भी समय ब्रेंट से 20-30 डॉलर प्रति बैरल सस्ता होता है। यूक्रेन युद्ध के बाद मिल रही रियायत तो सोने पर सुहागा है।
भारतीय रिफाइनर्स ‘डिलीवर्ड बेसिस’ पर तेल खरीदते हैं जिसमें विक्रेता ही शिपिंग, इंश्योरेंस व फाइनेंसिंग की व्यवस्था करता है। इसलिए ब्रेंट की तुलना में डिस्काउंट कम मिलते हैं क्योंकि इन सेवाओं का खर्च भी उठाना पड़ता है लेकिन इसके बावजूद तेल मध्य-पूर्व के क्रूड से सस्ता ही मिलता है, जिससे रूसी तेल आकर्षक हो जाता है। बाज़ार समीक्षकों का कहना है कि वर्तमान दाम पर भी रूसी क्रूड प्राइस कैप से कम व्यापर कर रहा है। ऐसे में अगर ओपेक का फैसला तेल के दामों में और कमी लाता है तो प्राइस कैप रूसी तेल व ब्रेंट में अंतर को अधिक बढ़ा देगा, जोकि भारत के लिए लाभकारी होगा।
अब सवाल उठता है कि जी-7 व ऑस्ट्रेलिया ने रूसी कच्चे तेल के सीबोर्न निर्यात पर 60 डॉलर प्रति बैरल का प्राइस कैप क्यों थोपा है? दरअसल, उन्हें लगता है कि ऐसा करने से रूस के राजस्व में कमी आयेगी और फलस्वरूप उसकी युद्ध करने की क्षमता कमज़ोर हो जाएगी। यह प्राइस कैप बेंचमार्क ब्रेंट क्रूड के दाम की तुलना में 30 प्रतिशत कम या डिस्काउंट पर है। ‘प्राइस कैप गठबंधन’ को यूरोपीय संघ का समर्थन भी मिल गया है और उसकी योजना है कि उसके अधिकार क्षेत्र में जिन शिपिंग, इंश्योरेंस व री-इंश्योरेंस कम्पनियों के मुख्यालय हैं, उन पर दबाव डालकर इस प्राइस कैप को प्रभावी ढंग से लागू किया जा सकता है। प्राइस कैप का घोषित उद्देश्य रूसी सेना को कमज़ोर करना है और वह भी तेल के दामों में बेतहाशा वृद्धि किये बिना। क्या इस उद्देश्य की पूर्ति संभव है? यह योजना निश्चित रूप से नाकाम रहेगी। रूस ने फरवरी में यूक्रेन पर हमला किया था। तब उस पर अनेक प्रतिबंध लगाये गये थे, जिन्हें लगे हुए आठ माह हो गये हैं, लेकिन फिर भी न युद्ध रुका है और न ही रूस के व्यवहार में कोई परिवर्तन आया है। अतिरिक्त प्रतिबंध भी बेअसर होते जा रहे हैं। इससे एक बार फिर साबित हो गया है कि प्रतिबंध बिना धार की तलवार है जिससे उद्देश्य की पूर्ति तो होती नहीं है, लेकिन उन देशों को अवश्य चोट पहुंच जाती है जिनका संबंधित समस्या से कोई संबंध नहीं होता है। पश्चिमी देशों ने अभी तक जितने प्रतिबंध जहां लगाये हैं उनमें से अधिकतर में उद्देश्यों की पूर्ति कभी हुई ही नहीं है।
प्रतिबंधों की निरर्थकता का सबसे जीता जागता उदहारण है ईरान। इस देश पर अमरीका ने 1979 से बेशुमार प्रतिबंध लगाये हैं, जिनको याद रखना भी अब कठिन हो गया है। इनमें से किसी एक प्रतिबंध का भी ईरान की विदेश नीति पर अर्थपूर्ण प्रभाव नहीं पड़ा है। ईरान पर तेल निर्यात करने का प्रतिबंध है, वह अब भी तेल बेच रहा है। इससे भी बढ़कर विरोधाभास यह है कि रूसी सेना जिन ड्रोन्स का प्रयोग कर रही है उनके महत्वपूर्ण पुर्जे यूरोप व अमरीका से हासिल किये गये हैं। ज़ाहिर है कि कोई भी प्रतिबंध ईरान को अपनी सैन्य क्षमता विकसित करने से रोक नहीं सका है जबकि प्रतिबंधों से दूसरे देशों को नुकसान हुआ है, मसलन भारत को, जो वहां से कच्चा तेल आयात करता था। इस पृष्ठभूमि में भारत ने एकदम सही किया कि इस साल उसने रूस के सस्ते कच्चे तेल को खरीदा। एक वर्ष पहले तक भारत में रूसी तेल न के बराबर ही आता था लेकिन अब भारत को कच्चे तेल सप्लाई करने में रूस तीसरे स्थान पर है। रूस के तेल निर्यात पर प्राइस कैप काम नहीं करेगा। भारत को अपने राष्ट्रीय हित को देखते हुए फैसला करना चाहिए और रूस के साथ ईरान से भी तेल आयात करना चाहिए।
-इमेज रिफ्लेक्शन सेंटर