अधमरे वायरस (क्रम जोड़ने के लिए पिछला रविवारीय अंक देखें)


बहरहाल उस शनिवार मैं पूरी तैयारी के साथ गई थी आर या पार हो सकता है यह संयोग हो या हो सकता है, कुदरत भी मेरे साथ रही हो। सब कुछ वैसा ही हो रहा था, जैसे मैं कल्पना कर रही थी। वह मुझे भी पवई लेक के ऊपर पहाड़ी में बनी उसी कोठी में ले गया, जहां पापा को आखिरी बार ले गया था। उस जगह को मैं एक दिन पहले दिन में भी देख आयी थी, जब नीचे झील के पास कई युवा जोड़े दुनिया से बेखबर एक दुनिया रच रहे थे। जमीन से वह पहाड़ी करीब चार साढे चार सौ फीट नहीं, मीटर ऊंची थी। कोठी के पीछे की रेलिंग लगी थी कि कोई धोखे में नीचे न गिर जाए। वहां से मैंने नीचे झांककर देखा तो दहशत से भर गयी थी। नीचे बड़े-बड़े पत्थर के टुकड़े गेंद की माफिक दिख रहे थे। एक तरफ झील थी, दूसरी तरफ वह खाईं। 
मेरा अनुमान था, बनर्जी मुझे लेकर यही आएगा। मैं सही निकली। बुढापे की तरफ  तेजी से बड़ते बनर्जी के हावभाव बड़ी तेजी से काइयांपन दिखाने लगे। दो पैग पीने के बाद ही वह हरकतों पर उतर आया। लेकिन मैंने स्थितियां बनाकर उसे जल्दी से एक मोटा पैग और पीने के लिए मजबूर किया। तब तक वह लड़खड़ाने लगा था। मैं सुरमई नज़ारे की भूमिका बांधते हुए कोठी के पीछे की रेलिंग की तरफ आ गयी। बनर्जी बोला बेबी वहां मत खड़े हो, तुम नीचे गिर सकती हो। मैंने सुना ‘बेबी’ तो समझ गयी तरंग भरपूर आ चुकी है। मैंने कहा कैसे गिर जाउंगी? तो उसने रेलिंग में हाथ रखकर यह दिखाने की कोशिश की कि नीचे देखने के चक्कर में मैं गिर सकती हूं। जब वह रेलिंग में हाथ रखकर नीचे झांकने का अभिनय करने की कोशिश की उन्हीं पलों में मैंने फुर्ती से उसके दोनो पैर पकड़े और पूरी ताकत से उसे ऊपर उठा दिया, जिससे वह रेलिंग के नीचे लटकने लगा। मेरी इस अचानक हरकत के लिए वह तैयार नहीं था। इसलिए वह समझ ही नहीं पाया कि मैं क्या कर रही हूं और अब वह दोनों हाथों से रेलिंग को पकड़े दहशतभरी निगाहों से मुझे देख रहा था। अरे.... अरे ये क्या कर रही हो....., उसने भय और गुस्से से मुझे डांटने की कोशिश की। लेकिन उन पलों में मैंने कोई डायलॉग बोलने का मोह नहीं पाला और पूरी ताकत से उसके धड को नीचे तरफ  फैंक दिया जिससे एक झटके में उसके हाथों से रेलिंग छूट गयी और दो मन के पत्थर की तरह वह नीचे खाईं में पसरी चट्टान में जाकर बिखर गया। मैंने नीचे झांककर अंदाजा लगाया सब कुछ शांत हो चुका था। इस एहसास से दिल को शुकून मिला। अब तक चारो तरफ अंधेरा हो चुका था। झील के ऊपर लगे लैपपोस्ट भी जल चुके थे। मैंने दूर तक देखा कोई नहीं था। जल्दी-जल्दी वहां से नीचे उतरी और क्रास कट मारते हुए पांच मिनट के भीतर नीचे रोड पर आ गई। एक आटो आ रहा था, मैंने उसे हाथ दिया और एक सांस में बोली विजय अपार्टमैंट कुर्ला। ऑटो वाले ने मीटर डाउन करते हुए बैठने का इशारा किया। मैं पसीना पोछते हुए बैठ गई। अगले 30 मिनट तक मेरे अंदर बिल्कुल सन्नाटा पसरा रहा। पता नहीं यह दहशत का था या सुकून का। जब रिक्शे वाले ने कहा मैडम विजय अपार्टमेंट सामने है, तब मैं हड़बड़ाते हुए नीचे उतरी उसे 50 का नोट दिया और 4 रुपये वापस लेने का इंतजार किये बिना सोसायटी के अंदर चली गई।
इस जगह शायद दिगंत सर, के. राधिका से कोई सवाल करने कि जगह बना रहे थे तभी उन्हें फोन में घर की बेल सुनायी पड़ी. राधिका ने कहा मिस्टर दिगंत मेरे बच्चे आ गये हैं, अब मैं बात नहीं कर पाऊंगी और औपचारिक स्वीकृति का इंतज़ार किये बिना फोन काट दिया.... दिगंत सर बड़ी देर तक अपनी जगह बिना हिले डुले सन्नाटे में बैठे रहे। दिलो-दिमाग में के. राधिका के ये शब्द तूफान की तुरही बजा रहे थे, ‘आप सिर्फ अपनी मौत से ही नहीं मरते, अपनों की मौत में भी थोड़ा मर जाते हैं, अपनों के संक्रमणग्रस्त होने पर आप में भी कुछ वायरस पलने लगते हैं, जो आपको पूरा न भी मारें तो भी अधमरा तो कर ही देते हैं।’ काफी देर तक खामोश बैठे रहने के बाद उन्होंने कंपकंपाते हाथों से अपनी डायरी उठाई, अस्पष्ट सा कुछ बुदबुदाए, जैसे कोई हिसाब लगा रहे हों। फिर एक खाली पेज खोला और लिखा.
वायरस नंबर एक.....
वायरस नंबर दो.....
वायरस नंबर तीन.....
(समाप्त)