चीन के मुद्दे पर चर्चा अब नहीं तो आखिर कब ?

चीन मुद्दे पर भारतीय संसद में चर्चा कराए जाने की कांग्रेस समेत अन्य विपक्षी दलों की मांग को लेकर सत्ताधारी भाजपा से जो घमासान मचा हुआ है, उसके परिप्रेक्ष्य में एक सवाल उठना लाजिमी है कि भारत के विरुद्ध यदा.कदा अघोषित युद्ध की परिस्थितियां पैदा करते रहने वाले और हिंदुस्तान के खिलाफ  कार्य कर रहे आतंकवादियों, नक्सलियों व अन्य भारत विरोधी देशों को नैतिक, आर्थिक एवं सैन्य मदद देने वाले एशिया के नवसाम्राज्यवादी देश चीन के मुद्दे पर चर्चा अब नहीं होगी तो आखिर कब होगी, इसका दिन व शुभ मुहूर्त पल सरकार को घोषित कर देना चाहिए।
यह ठीक है कि अंतर्राष्ट्रीय सीमा का मुद्दा बेहद संवेदनशील होता है और भारतीय संसद में परम्परा रही है कि इस तरह के मामलों पर चर्चा नहीं की जाती। ऐसे में भले ही वर्ष 2005 में कांग्रेस के नेतृत्व वाली तत्कालीन यूपीए सरकार ने ऐसी किसी चर्चा से इंकार कर दिया था। इसलिए मोदी सरकार से इस बात की अपेक्षा की जाती है कि जैसे अन्य संसदीय व संवैधानिक परम्परा तोड़ी गई, क्योंकि वह ‘हिंदुत्व’ के हित में, प्रशासनिक हित में आवश्यक समझी गई, वैसे ही राष्ट्रीय हित में ऐसी अनावश्यक परम्परा को अविलम्ब तोड़ दिया जाए, क्योंकि नरेंद्र मोदी सरकार, नेहरू-मनमोहन सरकार जैसी ‘बुजदिल सरकार’ नहीं है।
इस बात में कोई दो राय नहीं कि जब कोई बड़ी राष्ट्रीय चुनौती आती है तो संसद को विश्वास में लेने की परम्परा रही है। ऐसे में सदन में चर्चा से इंकार करना लोकतंत्र के प्रति अनादर और सरकार की नीयत को दर्शाता है। केंद्रीय कानून मंत्री किरण रिजिजू के इस बात से सहमत नहीं हुआ जा सकता है कि संवेदनशील मुद्दों को राजनीतिक रूप से उठाना सही नहीं है। यदि ऐसा है तो फिर इस संसद और विधानमंडलों की दरकार क्या है?
मेरा स्पष्ट मानना है कि देश और देशवासियों से जुड़े समस्त मुद्दों पर संसद से लेकर विधानमंडलों तक स्वस्थ चर्चा होनी चाहिए, ताकि विपक्षी दलों और आम लोगों को जमीनी स्थिति के बारे में पता चलता रहे। यह ठीक है कि हमारे देश में भी पद एवं गोपनीयता की शपथ लेने की परम्परा चलती आई है, लेकिन इसकी आड़ लेकर देश व देशवासियों की सुरक्षा से जुड़े मूलभूत तथ्यों को लोगों से छिपाना जनमत के साथ विश्वासघात नहीं है तो क्या है?
पता चला है कि प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने वर्ष 2005 में भाजपा नेता किरण रिजिजू  (मौजूदा केंद्रीय कानून मंत्री) को फोन कर कहा था कि चीन से जुड़ा मुद्दा संवेदनशील है, इसलिए इस पर संसद में चर्चा नहीं की जानी चाहिए और इसे आंतरिक रूप से निपटाया जाना चाहिए। उसके बाद भाजपा ने दबाव नहीं डाला था। इसलिए अब सत्ताधारी भाजपा की यही अपेक्षा है कि विपक्ष में बैठी कांग्रेस भी यही करे। हालांकि, कांग्रेस अब खुली चर्चा चाहती है, जो सही है। चोरी-चोरी, चुपके-चुपके काम करने का सियासी हश्र वह झेल चुकी है, इसलिए भाजपा भी वैसी भूल नहीं करे, कांग्रेस अपने राजनीतिक आचरण से उसे आगाह कर रही है।
मेरा स्पष्ट मानना है कि चाहे पाकिस्तान से जुड़ी समस्या हो, या चीन से जुड़े सवाल,या फिर अन्य पड़ोसी देशों से संबंधित दिक्कतें, उन सभी अनसुलझे सवालों को पब्लिक डोमेन में लाया जाना चाहिए। यदि आजादी के 75 साल बाद भी हमारी संसद और सरकार इन समस्याओं का स्थायी हल नहीं ढूंढ पाई है तो उसे अपने गिरेबान में झांकने की जरूरत है। पाकिस्तान और चीन से हमारे युद्ध हो चुके हैं, अन्य पड़ोसी देशों से भी नीतिगत अवरोध सामने आ चुके हैं, इसलिए हमें अपने संसदीय कार्यों का लेखा-जोखा लेते रहने के लिए अब और अधिक सजग रहना होगा।
सम-सामयिक दौर में भारतीय प्रशासनिक अधिकारियों द्वारा अपनाई गई रीति-नीति को एक बार फिर से परखने की जरूरत है। क्योंकि हमारे राजनेता व अधिकारी ऐसे कानून अस्तित्व में ला चुके हैं, जिससे आम लोगों का जीवन-यापन मुश्किल होता जा रहा है। जिस तरह से हमारी सरकार पूंजीपतियों के पक्ष में झुक रही है और पूंजीपतियों के द्वारा जिस तरह से युद्ध और मनोवैज्ञानिक अशांति को हवा दिलवाई जा रही है, वह इस बात की चुगली करने को काफी है कि सरकार और पूंजीपति लोगों की मौलिक समस्याओं के उनका ध्यान भटका रहे हैं, ताकि वो पूरे सिस्टम पर अच्छी तरह से हावी हो सकें।
देखा जाए तो राजनीतिक दलों द्वारा आमलोगों को और समकालीन भारत को जिस तरह से सीमा विवाद, सामाजिक न्याय व आरक्षण, हिंदुत्व और धर्मांतरण, जातीय व साम्प्रदायिक संघर्ष में रणनीतिक रूप से उलझाया जा रहा हैए उसके परिप्रेक्ष्य में पहले रोटी, कपड़ा व मकान, फिर शिक्षा, स्वास्थ्य व सम्मान, और अब तकनीकी संसाधन  तथा सत्तागत व्यवस्था व व्यापार-वाणिज्य में समान भागीदारी जैसी जन-हितकारी बात सोचना और उस पर जनमत कायम करना अब उनके राजनीतिक अस्तित्व के लिए भी बेमानी होती जा रही है। कहीं न कहीं चीन और अमरीका इस अप्रत्याशित स्थिति के लिए भी जिम्मेदार है, क्योंकि उनके द्वारा वित्तपोषित एनजीओ ही इन सभी बखेड़ों को खड़ा करने के लिए प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप उत्तरदायी हैं। यह मन:स्थिति भारतीयों पर आया एक नया राजनीतिक पूंजीवादी संकट है, जिससे उबरे बिना राष्ट्रपिता महात्मा गांधी के अंतिम व्यक्ति का कल्याण सुनिश्चित नहीं किया जा सकता है। इन सब पर भी स्वस्थ संसदीय चर्चा होती रहनी चाहिएए जो कि नहीं होती दिखाई दे रही है। (युवराज)