भाजपा की नज़र पसमांदा मुस्लिम वोट बैंक पर  

 

प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी को यूं ही करिश्माई राजनेता और गेम चेंजर नहीं कहते, वह बार-बार साबित करते हैं कि वह बाकी नेताओं से बहुत आगे सोचते हैं। अगले आम चुनावों में अभी एक साल से भी ज्यादा का समय है। विपक्षी पार्टियां अभी तक संभावित दोस्तों और दुश्मनों की पहचान की कोशिश ही कर रही हैं, लेकिन प्रधानमंत्री मोदी ने भाजपा के कार्यकर्ताओं को अगले चुनावों का ‘की फैक्टर’ पकड़ा दिया है। उन्होंने स्पष्ट कह दिया है कि अगले लोकसभा चुनाव में लगभग 400 दिन शेष हैं। ऐसे में पार्टी पदाधिकारियों और प्रत्येक कार्यकर्ता को एक-एक वोटर से मिलने उनके दरवाज़े तक जाना चाहिए। विशेषकर पिछड़े और गरीब मुसलमानों के बीच भाजपा की छवि बदलनी होगी। यही नहीं उन्होंने जल्द से जल्द पसमांदा मुसलमानों के घर-घर जाकर उनसे मिलने, उनकी समस्याओं को जानने, उन्हें हल करवाने की कोशिश करने और इस समुदाय को शेष समाज के साथ मुख्यधारा में लाने का लक्ष्य दे दिया है। अब विपक्षी पार्टियां भाजपा पर सिर्फ  यह आरोप ही लगा सकती हैं कि मोदी पसमांदा मुसलमानों के साथ नाटक कर रहे हैं। विपक्ष की ऐसी बयानबाज़ी उन्हें न केवल पसमांदाओं से दूर करेगी बल्कि देश के दूसरे बहुसंख्यक मतदाताओं को भी भाजपा के नज़दीक लायेगी। 
गत 17 जनवरी को भारतीय जनता पार्टी की राजधानी दिल्ली में आयोजित राष्ट्रीय कार्यकारिणी की बैठक के समापन भाषण में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने कार्यकर्ताओं से ज़ोर देकर कहा कि उन्हें  मुस्लिम समुदाय तक सरकार की नीतियां लेकर जानी हैं। अपने इसी भाषण में प्रधानमंत्री ने यह भी कहा, ‘हमें समाज के सभी अंगों से जुड़ना है और उसे अपने साथ जोड़ना है।’ गौरतलब है कि इससे पहले पिछले साल भी उन्होंने हैदराबाद में 2 और 3 जुलाई, 2022 को आयोजित पार्टी की राष्ट्रीय कार्यकारिणी की बैठक में कार्यकर्ताओं से पसमांदा मुस्लिमों के घर-घर जाकर स्नेह यात्रा का आह्वान किया था। इसका मकसद पसमांदा मुस्लिमों को भाजपा के साथ जोड़ने के लिए पहल करने से था। इसी क्रम में 16 अक्तूबर, 2022 को उत्तर प्रदेश की राजधानी लखनऊ में भाजपा ने  पसमांदा बुद्धिजीवी सम्मेलन भी आयोजित किया था। इस कार्यक्रम में उत्तर प्रदेश के उप-मुख्यमंत्री ब्रजेश पाठक ने कहा था कि कुछ पार्टियां चुनाव के बाद पसमांदा मुस्लिमों को हाशिये पर धकेल देती हैं। ज़ाहिर है उनका कुछ पार्टियों के रूप में इशारा सपा, बसपा और कांग्रेस की तरफ  था।
मतलब साफ है कि भाजपा को अगले आम चुनावों में मुसलमानों के वोट भी चाहिए। भाजपा ने इन्हें हासिल करने के लिए अपने ब्लूप्रिंट की भी झलक दिखला दी है। अगर इस बार के आम चुनावों में भाजपा कुछ पसमांदा मुसलमानों को चुनाव लड़ने के लिए टिकट दे देती है तो इसमें कोई आश्चर्य नहीं होगा। सवाल है क्या पसमांदा मुसलमान भाजपा की रणनीति के तहत उसके खेमे में जा सकते हैं? भारत में पिछड़े और दलित मुस्लिम जिन्हें पसमांदा कहा जाता है,  सामाजिक और शैक्षिक रूप से काफी पिछड़े हुए हैं, क्योंकि इनमें दलित जातियां भी शामिल हैं। हिन्दू दलित जातियों की तरह इन्हें अनुसूचित जातियों को मिलने वाला आरक्षण भी नहीं मिलता, क्योंकि सैद्धांतिक रूप से इस्लाम का दावा है कि मुस्लिम समाज में कोई छुआ-छूत या ऊंच-नीच नहीं होती। जबकि व्यवहारिक रूप में बड़ी बात यह है कि भारतीय मुसलमानों में पसमांदा मुस्लिमों की आबादी 80 प्रतिशत के आस-पास है। इससे इनका राजनीतिक महत्व जाना जा सकता है।
भाजपा ने अगर 20 से 25 प्रतिशत पसमांदा मुस्लिमों का हृदय परिवर्तन करके अपने पास लाने में कामयाब रही तो वह 2024 के चुनावी खेल को बदल कर रख देगी और अगर पांच से दस फीसदी पसमांदा मुस्लिम वोटर भी उसके साथ आ गए तो वह अब तक की अपनी एंटी-मुस्लिम छवि को एक झटके में बदल देगी। निश्चित रूप से प्रधानमंत्री मोदी का बार-बार पसमांदा मुसलमानों को याद करना न केवल रणनीतिक है बल्कि सियासी मास्टर स्ट्रोक भी है, क्योंकि पसमांदा मुस्लिम समाज की हमेशा से यह शिकायत रही है कि अशराफ लोग उनका इस्तेमाल करके सत्ता में रहते हैं। इसलिए पसमांदाओं की इस शिकायत को दूर करके भाजपा इस समुदाय के कुछ लोगों को अपनी ओर आकर्षित कर सकती है। भाजपा ‘स्नेह यात्रा’ के ज़रिये उनके पास कुछ ठोस राजनीतिक और आर्थिक पहल लेकर जाती है तो सबसे बड़ी बात यह होगी कि भाजपा ने यदि पसमांदा समुदाय को प्राथमिकता दी तो न केवल वे कट्टर बुद्धिजीवी बगलें झांकेंगे जो भाजपा को मुसलमानों के विरुद्ध बताते रहे हैं बल्कि एक झटके में उसकी इस्लामिक दुनिया में भी छवि बेहतर हो जाएगी। अगर गौर से देखें तो भाजपा अपनी अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर छवि सुधारने के लिए भी पसमांदा मुसलमानों को अपने साथ जोड़ना चाहती है। साथ ही इससे उसका वोट शेयर बढ़ सकता है जो कि उसकी तीसरी बार वापसी में महत्वपूर्ण भूमिका निभा सकता है। 
यह इसलिए भी विचार करने वाला विषय है क्योंकि पिछले उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव में विकासशील अध्ययन समाज ने अपने एक विश्लेष्ण में दावा किया था कि योगी आदित्यनाथ की इसलिए वापसी हुई, क्योंकि उत्तर प्रदेश में 8 प्रतिशत से ज्यादा पसमांदा मुस्लिमों ने भाजपा को वोट दिया था। हालांकि यह विश्लेषण ज़रूरी नहीं कि सही ही हो, लेकिन उत्तर प्रदेश की 45 प्रतिशत मुस्लिम आबादी वाली रामपुर लोकसभा सीट पर जिस तरह भाजपा उप-चुनाव में 42 हज़ार वोटों से जीती है, वह विश्लेषण पर दृष्टिपात करने के लिए बाध्य तो करता ही है। इसलिए विकासशील अध्ययन समाज का यह निष्कर्ष कहीं न कहीं सच के करीब ही लगता है कि उत्तर प्रदेश में भाजपा की जीत में पसमांदा मुसलमानों ने अहम भूमिका निभाई थी। 
बहरहाल राजधानी दिल्ली में प्रधानमंत्री ने भाजपा के कार्यकर्ताओं को पसमांदा मुसलमानों को अपेन साथ जोड़ने का आह्वान करके न केवल यहां के सियासी तापमान बढ़ा दिया है बल्कि सभी विपक्षी पार्टियों को उठने और सक्रिय होने के लिए मजबूर कर दिया है।
-इमेज रिफ्लेक्शन सेंटर