उ.प्र. निकाय चुनाव  आरक्षण के चक्रव्यूह में राजनीतिक दल

 

भारतीय राजनीति में आरक्षण एक ऐसी आवश्यक बुराई बन गई है कि जो राजनीतिक पार्टी दिल से आरक्षण के पक्ष में नहीं भी होती, उसे भी जुबान से आरक्षण के पक्ष में ही आवाज बुलंद करनी होती है। इसी विरोधाभास का एक विचित्र पहलू यह भी है कि हर राजनीतिक पार्टी खुद को तो आरक्षण की पक्षधर मानती और बताती है, लेकिन दूसरी पार्टी को न सिर्फ  आरक्षण का विरोधी बताती है बल्कि आरक्षण के पक्ष में उसकी हर दलील को एक दूरगामी साजिश करार देती है। उत्तर प्रदेश के राजनीतिक परिदृश्य में तो कम से कम यही दिखायी और सुनायी पड़ रहा है। गुजरे 27 दिसम्बर 2022 को इलाहाबाद हाईकोर्ट की लखनऊ बेंच ने उत्तर प्रदेश के निकाय चुनाव में ओबीसी आरक्षण को लेकर एक अहम फैसला सुनाया है। 
कोर्ट ने उत्तर प्रदेश सरकार की ओर से 5 दिसम्बर 2022 को जारी उस ड्राफ्ट नोटिफिकेशन को रद्द कर दिया, जिसको लेकर यूपी सरकार ने दावा किया था कि उसने एक रैपिड सर्वे कराया है, जो सुप्रीम कोर्ट के ट्रिपल टेस्ट फार्मूले के अनुरूप ही है और उसी सर्वे के आधार पर उसने आगामी निकाय चुनावों के लिए प्रदेश की 17 महापालिकाओं के मेयरों, 200 नगर पालिका और 545 नगर पंचायत अध्यक्षों के आरक्षण की सूची जारी कर दी है। इस सूची के मुताबिक उत्तर प्रदेश में 4 मेयर सीटों को ओबीसी के लिए आरक्षित किया गया था ये सीटें थीं- अलीगढ़, मथुरा-वृंदावन, मेरठ और प्रयागराज। लेकिन हाईकोर्ट ने प्रदेश सरकार की ओर से जारी इस रिजर्वेशन ड्राफ्ट को खारिज कर दिया और स्पष्ट शब्दों में निर्देश दिया कि जब तक सुप्रीम कोर्ट की तरफ से निर्धारित ट्रिपल टेस्ट की बुनियाद पर आरक्षण न हो, तब तक आरक्षण नहीं माना जायेगा। लखनऊ बेंच में यह फैसला न्यायमूर्ति देवेंद्र कुमार उपाध्याय और सौरभ लवानिया की खंडपीठ ने सुनाया। 
गौरतलब है कि उत्तर प्रदेश हाईकोर्ट में निकाय चुनावों में आरक्षण को लेकर 65 आपत्तियां दाखिल की गई थीं। मुख्य याचिका रायबरेली के सामाजिक कार्यकर्ता वैभव पांडे की थी। जिस पर 24 दिसम्बर को बहस पूरी हो गई थी। कोर्ट ने निकाय चुनावों से संबंधित सभी याचिकाओं पर सुनवाई के लिए 27 दिसम्बर 2022 तक फैसला सुरक्षित कर लिया था। 27 दिसंबर को सारी राजनीतिक पार्टियों की नजरें इलाहाबाद हाईकोर्ट की लखनऊ बेंच पर लगी हुई थीं और जब इस बेंच की दो जजों वाली पीठ ने प्रदेश सरकार की सूची और नोटिफिकेशन को रद्द कर दिया और साफ  शब्दों में कहा कि अगर सरकार को जल्दी ही चुनाव कराने हैं तो बिना आरक्षण के चुनाव करा सकती है, आरक्षण तभी दिया जा सकेगा जब सुप्रीम कोर्ट की संस्तुति के मुताबिक ओबीसी का ट्रिपल टेस्ट यानी तीन कसौटियों के आधार पर आंकलन हो। 
कहना न होगा कि इस फैसले के बाद उत्तर प्रदेश की विपक्षी राजनीति पार्टियों की विचित्र प्रतिक्रियाएं आयी हैं। अगर अदालत उत्तर प्रदेश सरकार की दलील को स्वीकार करते हुए उसके नोटिफिकेशन को मान्यता दे देती तो शायद फिर विपक्षी पार्टियों के नेता यह कहते कि उन्हें तो पहले से ही पता था कि भाजपा आरक्षण के नाम पर एक मनमानी खेल कर रही है और अब जबकि अदालत ने उत्तर प्रदेश सरकार के फैसले को रद्द कर दिया है, तो समाजवादी पार्टी नेताओं से लेकर बहुजन समाजवादी पार्टी की मायावती तक इस स्थिति को भी भाजपा द्वारा ओबीसी के खिलाफ  साजिश बता रही हैं। समाजवादी पार्टी के मुखिया अखिलेश ने कहा है कि भाजपा ओबीसी आरक्षण को लेकर सिर्फ  घड़ियाली सहानुभूति दिखा रही है। हकीकत यह है कि भाजपा पिछड़ों के आरक्षण को छीना है और जल्द ही वह दलितों के आरक्षण को भी छीन लेगी। एक तरफ  जहां सपा बार बार भाजपा पर आरोप लगा रही है कि वह पिछड़ों के आरक्षण के लिए साजिश कर रही है, वहीं उत्तर प्रदेश के उपमुख्यमंत्री केशव प्रसाद मौर्य, अपना दल की अनुप्रिया पटेल और खुद मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ, साफ  शब्दों में कह रहे हैं कि वे पहले सुप्रीम कोर्ट की संस्तुति के आधार पर ओबीसी को आरक्षण देंगे, इसके बाद चुनाव सम्पन्न कराएंगे।
लेकिन सरकार की इस स्पष्टता को भी उत्तर प्रदेश की विपक्षी राजनीति पार्टियां अपनी मान्यताओं के आधार पर सिर्फ और सिर्फ साजिश बता रही है। सपा नेता रामगोपाल यादव कहते हैं दरअसल निकाय चुनाव में भाजपा की यह साजिश थी कि आरक्षण खत्म करवाया जाए। इसलिए उसने न्यायालय के सामने जानबूझकर तथ्य प्रस्तुत नहीं किये और उत्तर प्रदेश की 60 फीसदी ओबीसी आबादी को आरक्षण से वंचित कर दिया है। देखने वाली बात यह है कि जब उत्तर प्रदेश में मंत्री और उप-मुख्यमंत्री तक साफ  शब्दों में कह रहे हैं कि पहले कोर्ट के आदेश के मुताबिक आरक्षण सुनिश्चित होगा, फिर चुनाव होंगे तो फिर देखने की बात यह है कि अखिलेश यादव से लेकर रामगोपाल यादव तक इस बात को क्यों नहीं सुन रहे? स्वामी प्रसाद मौर्या भी यही राग अलाप रहे हैं और मायावती का भी यही कहना है। मतलब विपक्षी राजनीतिक पार्टियां और उनके नेता खुद को अंतर्यामी मानते हैं। इसलिए वे सरकार जो कह रही है, उसे अनसुना कर रहे हैं और इस बात पर जोर दे रहे हैं कि वे जो कुछ कह रहे हैं वह सच है। यह भारतीय राजनीति का एक ऐसा विचित्र पहलू है जो अपने फायदे में हर संदर्भ को उल्ट-पलट करके उसे एक चक्रव्यूह में तब्दील कर देता है, जहां से बाहर निकलने रास्ता नज़र न आ रहा हो। 
विपक्षी पार्टियां यह स्पष्ट रूप से नहीं कह रहीं कि वे आरक्षण के पक्ष में हैं या नहीं। हां, ये जरूर कह रही हैं कि भाजपा आरक्षण विरोधी है। जबकि देखने वाली बात यह है कि उत्तर प्रदेश सरकार के मंत्री साफ -साफ  शब्दों में कह रहे हैं कि वे अदालत के निर्देश के मुताबिक आरक्षण सुनिश्चित करेंगे, इसके बाद ही चुनाव होंगे। हां, इस बात के लिए जरूर उत्तर प्रदेश सरकार को कटघरे में खड़ा किया जा सकता है कि जब उसके पास आरक्षण को लेकर 2021 की गाइडलाइन मौजूद है, तो फिर 2011 की जनसंख्या और किसी रैपिड सर्वे के आधार पर नोटिफिकेशन क्यों जारी किया? लेकिन जो भी हो, जब हाईकोर्ट ने साफ कर दिया है कि सरकार को सुप्रीम कोर्ट के निर्देशों पर चलना पड़ेगा तो इसमें बहस की जरूरत ही नहीं है। लेकिन भारतीय राजनीति में विपक्ष का मतलब है हमेशा एक विरोधी नरेटिव को मान्यता देना। 
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