गैर-कांग्रेसवाद के एक राजनीतिक युग का अंत

 

जनता दल यूनाईटेड के पूर्व अध्यक्ष, तीन राज्यों से 7 बार लोकसभा चुनाव जीतने वाले और ‘हलधर किसान’ चुनाव चिन्ह, जो कि बाद में जयप्रकाश नारायण की वैचारिक सोच से निर्मित जनता पार्टी का चुनाव चिन्ह बना, से पहली बार संसद पहुंचने वाले शरद यादव का 75 साल की उम्र में बीती 12 जनवरी 2023 को गुरुग्राम के फोर्टिस अस्पताल में निधन हो गया। इस तरह देश में आजादी के बाद आकार हासिल करने वाले गैर कांग्रेसवादी राजनीति के एक युग का अंत हो गया। शरद यादव भले आक्रामक रूप से करिश्माई नेता न माने जाते रहे हों, लेकिन उनके समूचे राजनीतिक सफर को अगर गंभीरता से देखें तो उसमें उनके राजनीतिक करिश्मों की एक लंबी फेहरिस्त नजर आयेगी। वह मध्य प्रदेश में जन्में थे, अपना राजनीतिक सफर भी मध्य प्रदेश की सांस्कृतिक राजधानी कहे जाने वाले जबलपुर से शुरु किया था, दो बार यहां से लोकसभा चुनाव जीते थे और एक बार हारे भी थे। इसके बावजूद उन्हें कभी मध्य प्रदेश का राजनीतिक चेहरा नहीं समझा गया और न ही उनके नाम पर जहन में मध्य प्रदेश का कोई राजनीतिक वजूद आता था।
जो नहीं जानते थे, वे तो उन्हें बिहार का प्रतिनिधि राजनीतिक चेहरा मानते ही थे, जो लोग जानते भी थे, उनके जहन में कभी नहीं आता था कि शरद यादव की राजनीतिक जन्मभूमि बिहार नहीं मध्य प्रदेश है। शरद जी का 1 जुलाई 1947 को मध्य प्रदेश के तत्कालीन होशंगाबाद ज़िले के बाबई इलाके में स्थित आंखमऊ गांव में जन्म हुआ था और इंजीनियरिंग की पढ़ाई के लिए वह जबलपुर गये थे, जबलपुर इंजीनियरिंग कॉलेज से बैचलर ऑफ  इंजीनियरिंग में गोल्ड मेडलिस्ट शरद यादव छात्र राजनीति के जरिये राजनीति में कदम रखा था। वह जबलपुर यूनिवर्सिटी में छात्रसंघ के अध्यक्ष चुने गये थे। साल 1974 में जब जबलपुर के तत्कालीन सांसद सेठ गोविंद दास का निधन हो गया, उस समय शरद यादव मीसा (मेंटेनेस ऑफ  इंटरनल एक्ट) कानून के तहत जेल में बंद थे। जयप्रकाश नारायण के कहने पर तमाम विपक्षी पार्टियों ने उन्हें जबलपुर के 1974 में सम्पन्न लोकसभा उपचुनाव का साझा उम्मीदवार बनाया था। संभवत: वह भारतीय राजनीति में कांग्रेस के विरूद्ध गैर कांग्रेसीवादी पार्टियों के पहले साझे उम्मीदवार थे, इसलिए उन्हें गैर कांग्रेसवाद का जीवंत प्रतीक भी माना जाता था।
इस उपचुनाव में पहली बार हलधर किसान के चुनाव चिन्ह पर शरद यादव ने चुनाव लड़ा था, जो उस समय चौधरी चरण सिंह की राजनीतिक पार्टी लोकदल का चुनाव चिन्ह था और बाद में जब जनता पार्टी बनी, जिसमें लोकदल तथा जनसंघ जैसी कई पार्टियां का विलय हुआ तब उसे जनता पार्टी का चुनाव चिन्ह बनाया गया। शरद यादव इस चुनाव चिन्ह के जरिये पहली बार लोकसभा चुनाव लड़ा था और तब यह नारा, ‘लल्लू को न जगधर को, मुहर लगेगी हलधर को’। इस कदर ताकतवर साबित हुआ कि कांग्रेस के गढ़ कहे जाने वाले जबलपुर में उसके जगदीश नारायण अवस्थी जैसे कद्दावर नेता को हार का मुंह देखना पड़ा था। 1977 में तो पूरे देश में कांग्रेस के विरूद्ध हवा ही थी, इसलिए शरद यादव का दोबारा जबलपुर में जीतना बड़ी बात नहीं थी, हालांकि वह 1980 में जब कांग्रेस की फिर से वापसी हुई तो हार गये थे। 
इस हार के साथ ही शरद यादव ने न सिर्फ जबलपुर छोड़ा बल्कि उनके राजनीति व्यक्तित्व से ही मध्य प्रदेश गायब हो गया। जो लोग उनके इस राजनीतिक सफर को जानते हैं, बाद में उनके भी जहन में यकबयक नहीं आता था कि शरद यादव की राजनीति दुनिया मध्य प्रदेश से शुरु हुई थी। हर कोई उन्हें बिहार का ही खांटी नेता मानता था। शायद इसके पीछे लालू यादव और राम विलास पासवान के साथ उनकी मजबूत तिकड़ी होने का भी प्रभाव था। हालांकि बाद में वह नीतीश कुमार के भी काफी नज़दीक रहे और करीब डेढ़ दशक लालू यादव के धुर खिलाफ  रहे। लेकिन अपने सियासत के अंतिम सालों में वह फिर से न केवल लालू यादव से गले मिल चुके थे बल्कि नीतीश कुमार के भारतीय जनता पार्टी के साथ चले जाने के बाद जनता दल यूनाईटेड में दो फाड़ हुआ और एक धड़े के राजनीतिक अगुवा शरद यादव बने, उस धड़े का भी उन्होंने लालू यादव के राष्ट्रीय जनता दल में विलय कर दिया था। 
लेकिन वह बिहार भी सीधे मध्य प्रदेश से नहीं गये थे, उसके पहले वह राज्यसभा से संसद सदस्य रहे और बाद में उत्तर प्रदेश के बदायूं लोकसभा निर्वाचन क्षेत्र से सांसद भी चुने गये। लेकिन 90 के दशक में जब वह एक बार बिहार गये तो फिर लगातार चार बार मधेपुरा से लोकसभा सदस्य चुने गये। 2019 में वह चुनाव हार गये थे और नीतीश कुमार से अलग होने के बाद कमजोर राजनीतिक ताकत के कारण लगभग अलग थलग पड़ गये थे। लेकिन शरद यादव उस पीढ़ी के राजनेता थे, जिनका सम्मान सभी राजनीतिक दलों में होता था। उन्होंने लंबे समय तक वाजपेयी सरकार में अलग-अलग मंत्री पद संभाले और माना जाता है कि विश्वनाथ प्रताप सिंह के नजदीक रहने वाले शरद यादव ने ही उन पर दबाव डालकर मंडल आयोग की रिपोर्ट को लागू कराया था। 
अपने राजनीति के चौथे पहर में शरद यादव ने नीतीश कुमार का भाजपा के साथ हाथ मिलाने को वैचारिक विश्वासघात करार दिया था। लेकिन शरद यादव लंबे समय तक भाजपा के नेतृत्व वाली सरकार में मंत्री रहे थे और उन्हें अटल बिहारी वाजपेयी तथा लालकृष्ण आडवाणी का नजदीकी समझा जाता था।  शरद यादव की राजनीति में लोकतंत्र और खासकर संविधान के लिए एक गंभीर चिंता हमेशा मौजूद रहती थी, उनके न रहने पर भारतीय राजनीति निश्चित रूप से कमजोर हुई है और आज़ादी के बाद का राजनीतिक इतिहास उनके जिक्र के बिना पूरा नहीं होगा।
-इमेज रिफ्लेक्शन सेंटर