अडानी के शेयरों की गिरावट नहीं रोक सका राष्ट्रवाद का नारा

 

भारतीय अर्थव्यवस्था के अडानी प्रकरण पर सरकार और सत्तारूढ़ पार्टी चुप बैठी हुई है। वित्त सचिव और वित्त मंत्री ने जब मुंह खोला भी तो कुछ इस अंदाज़ में मानो यह कोई छोटा-मोटा मसला हो, जिसका भारत की कथित ‘ग्रोथ स्टोरी’ (विकास गाथा) पर कोई असर नहीं पड़ेगा। यह सही है कि भारतीय अर्थव्यवस्था बहुत बड़ी और विविध है। किसी एक घराने के उत्थान और पतन से वह बुनियादी रूप से प्रभावित नहीं होती। अडानी समूह की भारतीय शेयर बाज़ार (स्टॉक एक्सचेंज) और दुनिया के वित्तीय बाज़ारों में जो दुर्गति हुई है, उससे सरकार और सरकारी पार्टी विवादों में ज़रूर घिर गई है, लेकिन उसके राजनीतिक दुष्परिणामों के बारे में अभी हम केवल कल्पना ही कर सकते हैं। लेकिन इसका पहला असर दिखने लगा है। 
एक फरवरी को जब भारत की वित्त मंत्री संसद में केंद्रीय बजट पेश कर रही थीं, ठीक उसी समय एक अमरीकी संस्था हिंडनबर्ग की रिपोर्ट के प्रभाव में आकर हमारा शेयर बाज़ार चाहते हुए भी बजट पर सकारात्मक प्रतिक्रिया देने में असमर्थ दिख रहा था। हिंडनबर्ग रिपोर्ट का ताल्लुक किसी भी तरह से बजट के साथ नहीं था। उसमें भारतीय अर्थव्यवस्था के खिलाफ एक ल़फज़ भी नहीं कहा गया था। बावजूद इसके, शेयर बाज़ार बजट से उत्साहित होकर केवल शुरुआत में ही थोड़ा उछला और फिर अडानी समूह के शेयरों की जबरदस्त बिकवाली के दबाव में उसका सूचकांक धड़ाम से गिर गया। यह प्रकरण हमें नये सिरे से सोचने पर मज़बूर करता है कि जिस युग को हम भूमंडलीकरण का युग या बाज़ारवाद का ज़माना कहते हैं, उसमें पूंजी का किरदार किस कदर बदल चुका है।
औद्योगिक क्रांति से पहले जो पूंजी लोगों के आर्थिक जीवन को संचालित करती थी, वह मुख्य तौर पर व्यापारिक पूंजी (मर्चेंट कैपिटल) थी। 18वीं शताब्दी के बाद इस पूंजी को पीछे धकेल कर जिस पूंजी ने नियंत्रणकारी भूमिका प्राप्त कर ली, वह औद्योगिक पूंजी थी। लेकिन, 1990 में जिस भूमंडलीकरण का आगाज़ हुआ, उसने आर्थिक दुनिया में एक नयीं ताकत का आधिपत्य स्थापित किया। यह थी वित्तीय पूंजी  (फाइनेंस कैपिटल) की ताकत। इस कैपिटल का न कोई देश था, न राष्ट्र था, न कोई सरकार थी, न कोई संस्कृति थी। उसके लिए न कोई दिन था, न रात थी। वह सीमाओं के आर-पार नई संचार प्रौद्योगिकी के पुष्पक विमान पर सवार होकर बिना एक पल आराम किये निरंतर गतिशील रहने लगी। यही कारण है कि जब अडानी समूह ने हिंडनबर्ग रिपोर्ट के जवाब में दावा किया कि उस पर किया गया हमला दरअसल भारत पर हमला है तो इस पूंजी ने फुसफुसा कर कहा कि मेरी हुकूमत में ‘नैशनिलज़म’ नहीं बल्कि ‘रैशनिलज़म’ (तर्कशीलता) का रुतबा चलता है। अडानी  समूह और उसके राष्ट्रवादी समर्थकों की ऊंची आवाज़ वित्तीय पूंजी की इस फुसफुसाहट के नीचे दब गई। वे जिस राष्ट्रवाद की नुमाइंदगी करने की कोशिश कर रहे थे, वह हिंडनबर्ग की तर्कशील जांच-पड़ताल के सामने मुरझा गया। उनके शेयरों का गिरना जारी रहा और भारत का स्टॉक एक्सचेंज केंद्रीय बजट पर चाहते हुए भी अपनी सकारात्मक प्रतिक्रिया देने से वंचित रह गया। 
अगर हम देखना चाहें तो इस मुकाम पर हम अपने आर्थिक भविष्य की तस्वीर के कुछ पहलुओं को नये सिरे से देख-समझ सकते हैं। मसलन 1990 में भू-मंडलीकरण की शुरुआत जरूर हो गई थी, लेकिन भारतीय अर्थव्यवस्था को वैश्विक अर्थव्यवस्था के साथ जुड़ने में बहुत लम्बा समय लगा। इसीलिए 2008 में जब अमरीकी वित्तीय बाज़ारों में संकट आया, तो भारत कमोबेश उससे अछूता रह गया। आज की स्थिति यह है कि प्रत्येक भारतीय पूंजीपति घराना विश्व के पूंजी बाज़ारों के साथ गहराई के साथ जुड़ा हुआ है। यही कारण है कि वह भारत से ही नहीं दुनिया भर से पूंजी उठा सकता है। दूसरे सभी घरानों समेत अडानी समूह ने भी ऐसा ही किया है। लेकिन इस प्रक्रिया में भारतीय पूंजीवाद के ये बड़े-बड़े प्रतिनिधि वित्तीय पूंजी के वैश्विक निज़ाम के विभिन्न मुख्यालयों के बीच की कड़ी बन गए हैं। अगर कोई एक कड़ी गड़बड़ाती है तो उस भारतीय घराने के विदेशी बांड्स की गिरी हुई साख का असर भारत के वित्तीय बाज़ार पर पड़ना तय है। 
जिस समय अंतर्राष्ट्रीय वित्तीय पूंजी के दम पर भारत के उद्योगपति घराने प्रगति की उछालें भरते हुए हमारे राष्ट्रवादी सीने को गर्व से फुला रहे होते हैं, उस समय हमें याद नहीं रहता कि अगर किसी वज़ह से यह कड़ी भंग हुई और इसके साथ जिसकी हवा निकलेगी, वह यही राष्ट्रवादी सीना होगा। हिंडनबर्ग रिपोर्ट ने यही भूमिका अदा की है। अडानी की प्रगति का इतिहास असाधारण रहा है। जब उन्होंने बीस हज़ार करोड़ का एफ.पी.ओ. (अतिरिक्त शेयर बेच कर पूंजी उगाहने का प्रस्ताव) जारी किया था, तो सबका यही मानना था कि यह उनके बायें हाथ का खेल होगा। इसका 35 प्रतिशत हिस्सा रिटेल निवेशकों के लिए था, जिनसे अडानी को केवल एक अरब डॉलर ही जमा करने थे लेकिन, यह रकम जमा करना तो दूर की बात है, उन्हें उनके पैसे वापिस करने पड़ रहे हैं जिन्होंने एफ.पी.ओ. में रकम लगाने का दुस्साहस किया था। बात केवल इतनी ही नहीं है, जब अडानी के शेयर गिरने शुरू हुए तो उनके सामने विकल्प यह भी था कि वे अपने एफ.पी.ओ. को डिस्काउंट पर बेचने की कोशिश करें। लेकिन उन्होंने ऐसा करने के बजाय अबू धाबी के शाही घराने की एक फर्म और परिवार आधारित भारतीय फर्मों की मदद से रातोंरात अपने एफ.पी.ओ. को कामयाब कर दिखाया। इस पर विशेषज्ञों का आश्चर्य अभी थमा भी नहीं था कि अचानक प्रतिष्ठित क्रेडिट सविस ने अडानी के बांडों की ज़मानत स्वीकार करने से मना कर दिया था। इसका परिणाम भीषण निकला। अगले दिन ही फिर से स्टॉक एक्सचेंज में उनके शेयरों का रक्तपात होने लगा। परिणामस्वरूप अडानी को एफ.पी.ओ. वापिस लेने का फैसला करना पड़ा। यह उनके राष्ट्रवादी दावों की विफलता और हिंडनबर्ग की तर्कशीलता की जबरदस्त जीत थी। हम यह कैसे भूल सकते हैं कि हमारा स्टॉक एक्सचेंज इस समय साठ हज़ार से ज्यादा की उन ऊँचाइयों पर है जिनके बारे में पहले कल्पना भी नहीं कर सकते थे। हमारे बाज़ार को इन शिखरों पर जिन ताकतों ने पहुंचाया है, उन्हें विदेशी संस्थागत पोर्ट फोलियो निवेशक कहा जाता है। ये निवेशक भूमंडलीकरण की ही संतान हैं। वित्तीय पूंजी की तरह ये भी राष्ट्रों की सीमाओं में नहीं बंधे हैं। ये निवेशक जब चाहते हैं, तो किसी भी निवेशक के घर में बेमौसम दीवाली मनवा देते हैं और जब चाहते हैं तो वह मरघट जैसा सन्नाटा छा जाता है। एक आंकड़े के अनुसार हमारे स्टॉक एक्सचेंज में जून, 2022 तक 1089 अरब डॉलर की पूंजी इन विदेशी संस्थागत निवेशकों ने लगाई हुई थी। इसके मुकाबले हमारे देश में प्रत्यक्ष विदेशी निवेश उस समय उससे बहुत कम यानी 605 अरब डॉलर ही था। 
2008 में जब अमरीका के वित्तीय बाज़ारों में संकट की शुरुआत हुई थी, उस समय वहां सरकार द्वारा नियुक्त पूंजी के नियंत्रकों और नियामकों ने उससे जुड़ी हुई समस्याओं को नज़रअंदाज़ किया था। नतीजा यह निकला कि यह संकट दुनिया के दूसरे बाज़ारों में भी फैलता चला गया। आर्थिक विशेषज्ञों को लग रहा है कि आज कमोबेश ऐसा ही नज़ारा भारत के बाज़ार नियंत्रकों और नियामकों के सामने है। चाहे सेबी हो या फ्रॉड की जांच-पड़ताल करने वाली संस्था हो- गेंद पूरी तरह से इन्हीं के पाले में है। हिंडनबर्ग ने जो करना था, कर दिया है। अडानी ग्रुप का जो होना है, वह भविष्य ही बताएगा। लेकिन, इस वित्तीय भूकम्प के केन्द्र में हो रहे घटनाक्रम और उसके खुले-छिपे इतिहास पर से पर्दा उठाने की ज़िम्मेदारी इन्हीं संस्थाओं की है। दांव पर केवल एक औद्योगिक समूह ही नहीं है, बल्कि इस भूमंडलीकरन आर्थिक निज़ाम में भारतीय अर्थव्यवस्था का दूरगामी भविष्य भी दांव पर लगा है। 
लेखक अम्बेडकर विश्वविद्यालय, दिल्ली में प्ऱोफेसर और भारतीय भाषाओं के अभिलेखागारीय अनुसंधान कार्यक्रम के निदेशक हैं।