चीन में बिगड़ते हालात

 

ऐसी व्यवस्था जो अपने विकास काल में दुनिया भर को हतप्रभ करती हुई आगे बढ़ रही हो, उसके गिरावट में जाने के संकेत मिलने लगें, तो क्या इसे इतिहास का खेल कहेंगे, जो कई बार गुजरे समय में देखा गया है, चिन्हित किया गया है। क्या चीन के साथ कुछ ऐसा ही घटता देखने में आने लगा है? चीन जिसने पिछले कुछ वर्षों में विकास की बुलंदियों को छू लिया है, जिसके कारनामों और बढ़ती आर्थिक शक्ति से अमरीका जैसी महाशक्ति भी चकित है, आज अनेक भीतरी और बाहरी परेशानियों में फंसता चला गया है।
शी-जिनपिंग को चीन की कम्युनिस्ट पार्टी ने तीसरी बार उच्च पद संभाले रखने की ज़िम्मेदारी सौंप दी। स्मरण रहे कि पिछले दस वर्ष से वह राष्ट्रपति के गौरवपूर्ण पद पर आसीन हैं। इसके साथ-साथ कम्युनिस्ट पार्टी के महासचिव का पद भी उन्हीं के पास रहा है। शी-जिनपिंग की पार्टी ने अपना वर्चस्व खोया नहीं। विश्व भर में एक बड़े राजनीतिक नेता के रूप में भी उनको पहचान मिली है। उनकी मज़बूत पकड़ को देखते हुए राजनीतिक व्याख्याकार सोचने लगे हैं कि जीवन भर चीन के शासन तंत्र पर उनकी पकड़ मजबूत रहने वाली है। कुछ लोग तो उनकी तुलना माओ त्से तुंग से भी करने लगे हैं जोकि कुछ अतिरिक्त श्लाघा का स्तर कहा जा सकता है। परन्तु उनके शासन के दिनों चीन की चौतरफा प्रगति को बेमिसाल कहा जा सकता है। सामरिक शक्ति हो या औद्योगिक प्रगति की बात हो, उनके अतुलनीय कार्य का डंका बजाया है। शी-जिनपिंग की विस्तारवादी नीतियों की आलोचना जगह-जगह सुनायी पड़ने लगी है। पड़ोसी देशों के साथ उसकी अनेक दिक्कतें हैं। भारत के साथ उसके संबंध सहज नहीं हो पाये। दक्षिण चीन सागर के अपने दर्जन भर से अधिक पड़ोसी देशों के लिए वह खतरा बना रहा है। कारण यह है कि वह दक्षिण चीन सागर के अधिकतर हिस्से पर अपनी दावेदारी पेश करता रहा है। इस सागर में उसने गैरकुदरती द्वीप बना लिये हैं। जिस पर घातक हथियार तैयार कर रखे हैं। शक्तिशाली जापान के साथ भी इसी कारण से उसके संबंध कड़वाहट में बदले हुए हैं। ताइवान को अपना ही एक हिस्सा मानने का दावा करते हुए उस पर कब्ज़ा करने की चाहत को वह छिपा नहीं पाता। भारत के साथ शत्रुता दिखाने के लिए वह पाकिस्तान की मदद करता रहता है। पाकिस्तान को इतना कज़र् के नीचे दबा चुका है कि पाकिस्तान को कभी भी परेशानी हो सकती है।
परन्तु आज चीन अंदरूनी तौर पर भी अनेक परेशानियों को झेलने वाला देश नज़र आने लगा है। हम सभी अच्छी तरह से जानते हैं कि तीन साल पहले कोरोना महामारी की शुरूआत चीन से ही हुई थी। जब यह खतरा विश्व भर में सामने आया तो पूरी दुनिया में उसकी बदनामी हुई। इस महामारी का नुक्सान अनेक देशों की मासूम जनता को झेलना पड़ा, लाखों लोग इस नामुराद बीमारी के चलते प्राण गंवा बैठे, लोगों की नौकरियां चली गयीं। व्यापार का करोड़ों रुपये का नुक्सान हुआ। आज भी आर्थिक मंदी, गरीबी और बेरोज़गारी की भी यही एक बड़ी वजह है। भारत सहित अनेक देशों ने महामारी पर नियंत्रण पा लिया, परन्तु चीन में यह बीमारी फिर अपने आतंककारी रूप के साथ सामने खड़ी है। शी-जिनपिंग ने पहले लगाई पाबंदियों के साथ कठोर पाबंदियां जारी कर दीं। ये पाबंदियां कई पक्षों से उसके सामने चुनौतियां पेश कर रही हैं। दिखता नहीं परन्तु आर्थिक परेशानियां और बेरोज़गारी का मसला वहां है। सामान्य जन के लिए इन मुश्किलों का सामना करना लगातार कठिन होता चला गया है। जब पाबंदियां सह सकने की सीमा पार कर जाती है तब विरोध की अग्नि सुलग उठती है इसलिए वहां मुखर विरोध की आवाज़ें उठने लगी हैं।
हुआ यह कि प्रदेश की राजधानी में इन पाबंदियों के कारण एक बड़ी इमारत में जब आग लग गई और 10 लोग जीवित जल गये इसलिए कि उन्हें बाहर नहीं निकलने दिया गया। हज़ारों नागरिक अपना विरोध जाहिर करने के लिए सड़कों पर उतर आये। विश्वविद्यालयों के विद्यार्थियों का गुस्सा भड़क उठा। उन्होंने शी के विरूद्ध नारेबाज़ी शुरू कर दी। वे उनकी नीतियों को गलत ठहरा रहे हैं। प्रदर्शनकारी कम्युनिस्ट पार्टी की तानाशाही के भी विरोधी हैं। जिनपिंग को गद्दी छोड़ने और प्रैस को आज़ादी देने के लिए कहा जाने लगा है। यह आंदोलन विस्तार पा रहा है और कई शहरों में प्रतिरोध का स्वर उठने लगा है। 1989 में जो विरोध हुआ था और तिनानमिन चौक में विद्यार्थियों को भारी सैनिक बल से कुचल दिया गया था, क्या यह आंदोलन उसकी याद नहीं दिलायेगा? विद्यार्थियों ने तब भारी संख्या में खुले आम विरोध किया था। अब देखना होगा कि यह विरोध कितनी बड़ी आग बनता है या कि सत्ताधारी पार्टी किस तरह इसका निपटारा करती है। फिलहाल तो तनाव काफी है।