हन्ने-हन्ने मीरी से उभरे सिख भाईचारा

अपनी ही ख़ुद की जात में उलझा हुआ हूं मैं,
यानि कि क़ायनात में उलझा हुआ हूं मैं॥
जैसे कि होने वाली है अनहोनी फिर कोई,
हर पल इन्हीं फ़िक्रात में उलझा हुआ हूं मैं॥
इस शे'अर वाली सोच मुझे सिख कौम की वर्तमान स्थिति को लेकर बहुत चिन्ता में डाल रही है। सिख कौम अभी 'लीडर लैस' (नेता के बिना) दिखाई दे रही है। हन्ने-हन्ने की मीरी वाली स्थिति में से हम गुज़र रहे हैं। जिसका जो मन करता है, वह सिखी के सिद्धांतों का व्यायान देने लगता है। सिखों के मामलों संबंधी कुछ भी स्पष्टता दिखाई नहीं दे रही कि कौन-से मसले प्राथमिकता के आधार पर हल करवाने ज़रूरी हैं तथा ये कैसे हल करवाने चाहिएं। यदि कौम को दरपेश मसलों के लिए कोई संघर्ष भी करना है तो कैसे करना है? कौन नेतृत्व करने में समर्थ है तथा किसे नेतृत्व का अधिकार है, इस संबंध में किसी को कुछ जानकारी नहीं। हालत यह है कि जत्थेदार अकाल तत साहिब जिन्हें  हम मौखिक रूप में तो सर्वोच्च मानते हैं, किन्तु उनके बयानों तथा आदेशों के महव वे नहीं रहे जो कभी होते थे। फिर इस समय तो हमने समानान्तर जत्थेदार भी बनाये हुये हैं। हालत यह है कि जब किसी को जत्थेदार साहिब का कोई आदेश उचित लगता है तो हम उसे मानने तथा उस पर क्रियान्वयन करने की बात करने लगते हैं किन्तु जब कोई आदेश हमें हमारे निजी हितों के खिलाफ़ प्रतीत होता है तो हम उसे अनदेखा कर देते हैं। हालत यह है कि स्वयं शिरोमणि कमेटी जिसने जत्थेदार साहिब के आदेश लागू करवाने होते हैं, भी कई बार जत्थेदार के आदेशों पर क्रियान्वयन नहीं करती।
अब सज़ा पूरी कर चुके बंदी सिखों की रिहाई का मसला ही ले लें। पहली बात तो यह है कि इस मसले का हल इसे मानवीय अधिकारों के उल्लंघन का मुद्दा बना कर ही किया जा सकता है। इसलिए पहली ज़रूरत कानूनी लड़ाई लड़ने की है, जिसकी ओर हमारा कोई ध्यान नहीं। हम मानते हैं कि जब न्याय न मिल रहा हो तो जन-आक्रोश तथा संघर्ष का दबाव बनाना भी ज़रूरी होता है तथा यह अधिकार भी है। परन्तु इस मसले पर प्रत्येक अपने-अपने ढंग के साथ ही नहीं चल रहा, अपितु अन्य पक्षों के खिलाफ दुष्प्रचार ही सबसे पहली बात के रूप में समक्ष रखा जा रहा है। जो कुछ कौमी इन्साफ मोर्चे के संबंध में हुआ है, वह स्पष्ट करता है कि सरकारें तो ऐसे मोर्चों को हिंसक रूप में उलझा कर बदनाम करने के यत्न करती ही हैं परन्तु इसके नेता भी अपने मोर्चे पर नियन्त्रण रखने में सफल होते दिखाई नहीं दे रहे। हमारे समक्ष किसान मोर्चे का उदाहरण है। जब तक किसान संगठनों में एकता रही तथा वे सरकारी यत्नों के बावजूद मोर्चे को शांतिपूर्ण रखने में सफल रहे, जन-मानस भी उनके साथ रहा तथा अंततः सरकार को झुकना भी पड़ा, परन्तु जैसे ही उनमें दरार पड़ी, सरकार शेष मानी गई मांगों को लागू करने से भी पलट गई।
इस मोर्चे के नेताओं को सोचना चाहिए कि पूरी कौम को एकजुट किये बिना कोई बड़ी उपलधि प्राप्त नहीं हो सकेगी। यदि कोई व्यति मोर्चे के समर्थन हेतु पहुंचता है तो उसके समर्थन का देर आयद, दुरुस्त आयद के रूप में स्वागत करना चाहिए, न कि उसको बेइज्ज़त करके भगा देने की रणनीति अपनानी चाहिए। जो कुछ शिरोमणि कमेटी के प्रधान हरजिन्दर सिंह धामी, समानांतर घोषित जत्थेदार बाबा बलजीत सिंह दादूवाल, सिख सद्भावना दल के प्रमुख भाई बलदेव सिंह वडाला के साथ हुआ, इसे प्रशंसनीय नहीं कहा जा सकता। फिर कई किसान संगठनों के नेताओं को ग़द्दार तक करार देना या जायज़ है?
आश्चर्यजनक बात है कि सिखों ने जैसे फैसला ही कर लिया है कि सिखी का विस्तार नहीं होने देना, अपितु जो अन्य धर्मों के लोग श्री गुरु ग्रंथ साहिब को मानते हैं, नतमस्तक होते हैं, हमने उनसे भी छोटे-छोटे बहाने बना कर श्री गुरु ग्रंथ साहिब जी के स्वरूप ही वापिस ले लेने हैं ताकि वे सिखी से पूरी तरह दूर हो जाएं, जबकि चाहिए तो यह कि यदि हमें उनकी किसी बात पर कोई आपिा है तो कुछ बुद्धिजीवी जाकर उन्हें संयम के साथ अपनी बात और सोच को समझाएं।
यहां ध्यान देने वाली बात है कि जत्थेदार श्री अकाल तत साहिब निःसन्देह सर्वोच्च पद पर बैठे हैं परन्तु उन्हें सिर्फ अपनी बुद्धि से ही बयान नहीं देने चाहिएं, अपितु उन्हें अपना एक बहुत योग्य सलाहकार मंडल बनाना चाहिए जिसमें योग्य तथा परिपव सिख बुद्धिजीवी, सेवानिवृा अधिकारी, न्यायाधीश, वकील तथा स्थापित ईमानदार नेता शामिल करने चाहिएं तथा उन्हें कोई भी बयान या आदेश देने से पहले इस सलाहकार बोर्ड को उसके एक-एक शद के प्रभाव संबंधी विचार करने हेतु कहना चाहिए, ताकि एक बार दिया गया बयान या आदेश वापिस न लेना पड़े। नहीं तो स्थिति बार-बार सिरसा साध को दी गई 'माफी' वापिस लेने जैसी बनती ही रहेगी। सलाहकार बोर्ड बनाने से सिखों के धार्मिक नेतृत्व का अन्तराल तो भरेगा ही, अपितुु समय रहते इस धार्मिक नेतृत्व में से आर.एस.एस. के कार्य करने की भांति सिखों के राजनीतिक नेतृत्व को मज़बूत करने तथा नेतृत्व देने का माहौल भी बनेगा।
स्पीकर संधवां की पहल प्रशंसनीय
मेरी मां बोली वी मैनूं अजकल समझ नहीं औंदी,
इसतों वड्डा होर शराप अजे भला कोई बाकी है॥
(लाल फिरोज़पुरी)
विगत दिवस पंजाब विधानसभा के स्पीकर कुलतार सिंह संधवां ने पंजाबी मातृ भाषा की स्थिति पंजाब में और बेहतर बनाने संबंधी कुछ मंत्रियों, विधायकों, अधिकारियों तथा पंजाबी विद्वानों की  एक बैठक बुला कर विचार-विमर्श किया गया कि पंजाबी के लिए या-या करना आवश्यक है। ऐसी पहल पंजाब के किसी अन्य स्पीकर ने पहले नहीं की, इसलिए स. संधवां का यह प्रयास और भी प्रशंसनीय हो जाता है।
निःसंदेह इस पर क्रियान्वयन तो सरकार ने ही करना है परन्तु स्पीकर द्वारा बुलाई गई बैठक में बहुत ही सार्थक बातें सामने आईं, जिन पर क्रियान्वयन हो जाए तो पंजाबी वास्तव  में पंजाब की पटरानी भाषा बन जाएगी। अब यदि भगवंत मान सरकार इन सुझावों पर क्रियान्वयन नहीं करेगी तो वह वत और इतिहास के कटघरे में खड़ी जवाबदेय अवश्य होगी। हां, पंजाब सरकार द्वारा सरकारी एवं गैर-सरकारी बोर्डों पर पंजाबी को पहले स्थान पर रखने की अपील का स्वागत प्रत्येक पंजाबी करेगा।
बैठक में जो बातें उभर कर सामने आईं, चाहे उन सभी का ज़िक्र तो यहां संभव नहीं परन्तु फिर भी पंजाबी को पंजाब के प्रत्येक स्कूल चाहे वह सरकारी हो या निजी तथा चाहे वह किसी भी बोर्ड से जुड़ा हो, बारे एक कानूनी संशोधन की ज़रूरत कि पंजाबी को नर्सरी से क्वीं तक पढ़ाया जाना सुनिश्चित करना, मातृ-भाषा को रोज़गारोन्मुख बनाना, पंजाब के राज्यपाल के पास कानून के अनुसार मौजूद अधिकार कि वह राज्य की भाषा को हाईकोर्ट तक लागू करवा सकते हैं, का इस्तेमाल करने के लिए मनाना तथा प्रत्येक सरकारी आदेश पंजाबी में जारी किये जाने जैसी अनेक बातों पर सहमति बनी दिखाई दी। हम समझते हैं कि स्पीकर स. संधवां इस मामले में सरकार में अपने प्रभाव का इस्तेमाल करते हुए बैठक के फैसलों को लागू करवाने की कोशिश अवश्य करेंगे योंकि सिर्फ विचार-विमर्श करके ही बात नहीं बनती, आवश्यकता तो फैसलों पर क्रियान्वयन करवाने की है।
-क्ब्ब्, गुरु नानक स्ट्रीट, समराला रोड, खन्ना
-मो. -ख्क्म्त्त्-म्