स्थानीय करंसी में व्यापार से भारत को होगा लाभ

 

अमरीका और सउदी अरब के बीच 1973 में एक समझौता हुआ था कि सउदी अरब अपना सारा कच्चा तेल (क्रूड आयल) केवल अमरीकी डॉलर में ही बेचेगा और सरप्लस को पुन: अमरीका में निवेश करेगा। बदले में अमरीका सऊदी अरब को राजनीतिक व सैन्य सुरक्षा प्रदान करेगा। चूंकि अन्य तेल उत्पादक देश भी सउदी अरब के पद चिन्हों पर चलने लगे, इसलिए तेल आयात करने वाले देशों को निरन्तर अमरीकी डॉलर खरीदने पड़े। इससे अमरीकी अर्थव्यवस्था में चार चांद लग गये, उसके मौद्रिक आधार का जबरदस्त विस्तार हुआ, उसके पास निवेश के लिए अधिक धन उपलब्ध रहने लगा, जिससे उसका अप्रत्याशित विकास होना आरंभ हो गया, प्रति व्यक्ति आय बढ़ गई और जीवन स्तर बहुत अच्छा हो गया। 
इस समझौते ने अमरीका को विशिष्ट स्थिति में ला दिया। वह महंगाई की चिंता किये बिना करंसी पिं्रट कर सकता था क्योंकि अन्य देशों को उसके डॉलर्स का बड़ा हिस्सा अपने पास रखना पड़ रहा था। इन देशों को अपने उत्पाद या सेवाएं बेचकर डॉलर खरीदने पड़ रहे थे, लेकिन अमरीका के लिए ऐसी कोई समस्या नहीं थी। उसके लिए तो डॉलर निर्यात की प्रमुख वस्तु बन गया था। यह सब कुछ ऐसे समय में हो रहा था, जब दूसरे विश्व युद्ध के बाद से ही अमरीका विश्व की रिज़र्व करंसी जारी करने के विशेषाधिकार का आनंद उठा रहा है। इससे भी बढ़कर यह कि लगभग सभी तेल उत्पादक देश अपने सरप्लस डॉलर अमरीका में ही निवेश कर रहे थे। इससे अमरीका को यह भी लाभ था कि वह ब्याज दर को कम रख सकता था और बड़े व्यापार घाटों को कम ब्याज दर एसेट्स से फाइनेंस कर सकता था। नतीजतन अमरीकी डॉलर जल्द ही विनिमय का माध्यम बन गया। 1980 के दशक में यह रूझान अधिक प्रभावी था। आज विश्व का 70 प्रतिशत से अधिक व्यापार अमरीकी डॉलर में होता है।
संक्षेप में बात केवल इतनी है कि आज विश्व में जो अमरीका का दबदबा है, वह उसके डॉलर के वर्चस्व के कारण ही है। लेकिन इस समय तेल व्यापार को लेकर जो भू-राजनीतिक प्रतिद्वंद्विता चल रही है, उससे डॉलर के वर्चस्व पर गंभीर खतरा मंडराने लगा है। फलस्वरूप अमरीका की सुपर पॉवर छवि भी खटाई में पड़ती जा रही है। गौरतलब है कि विश्व में सबसे अधिक व्यापार कच्चे तेल का होता है, लगभग 4 ट्रिलियन डॉलर सालाना बिक्री के साथ। यही व्यापार अमरीका और चीन के संबंधों में टकराव का नया बिंदु बन गया है। चीन के नेतृत्व में जो अब नये भू-राजनीतिक गठजोड़ बने हैं, वह 1970 के दशक में अमरीका द्वारा बनाये गये तेल व्यापार नियमों (कि लेन-देन केवल डॉलर में होगा) को चुनौती दे रहे हैं, जिसका पूरे विश्व पर महत्वपूर्ण प्रभाव पड़ने जा रहा है। 
यह चुनौती रूस-यूक्रेन युद्ध से आरंभ हुई। अमरीका ने रूस को स्विफ्ट (सोसाइटी फॉर वर्ल्डवाइड इंटरबैंक फाइनेंशियल टेलीकम्युनिकेशंस) इस्तेमाल करने से रोक दिया और रशियन सेंट्रल बैंक में जमा 300 बिलियन डॉलर को फ्रीज़ कर दिया, जोकि रूस के जीडीपी (सकल घरेलू उत्पाद) का लगभग 20 प्रतिशत है। स्विफ्ट व अमरीकी डॉलर को अनावश्यक रूप से हथियार बनाने की बात काफी देशों को पसंद नहीं आयी, विशेषकर चीन को। चीन विश्व में सबसे अधिक कच्चा तेल का आयात करता है। वह व्यापार, (खासकर तेल) में रेनमिनबी (आरएमबी) का इस्तेमाल करने की योजना बना रहा है। उसने शंघाई पेट्रोलियम एंड नेचुरल गैस एक्सचेंज की स्थापना की है, जहां आरएमबी प्रभावी करंसी है। वह ओपेक देशों से वार्ता कर रहा है कि वह तेल व्यापार आरएमबी में करें। पिछले साल दिसम्बर में चीन के राष्ट्रपति शी जिनपिंग ने रियाद का दौरा जीसीसी देशों को मनाने के लिए किया था कि वह सभी ऊर्जा व्यापार के लिए आरएमबी को स्वीकार कर लें। उनकी यह कोशिश शायद सफल हो जाये क्योंकि 17 जनवरी, 2023 को डावोस में सउदी अरब के वित्त मंत्री मुहम्मद अल-जादान ने कहा था कि उनका देश अमरीकी डॉलर के अतिरिक्त अन्य करेंसी में तेल व्यापार करने की चर्चा के लिए खुला है। यह अमरीकी योजना के लिए बहुत बड़ा धक्का है क्योंकि जैसा कि ऊपर बताया जा चुका है, सउदी अरब ने ही अमरीका के लिए ‘केवल डॉलर में तेल व्यापार’ आरंभ किया था। 
गौरतलब है कि रूस, ईरान, वेनेजुएला और कुछ अन्य देशों ने रूबल, आरएमबी, आईएनआर व अन्य करंसी में तेल का भुगतान स्वीकार करना आरंभ कर दिया है। ईरान तो 2003 से ही यूरोप व एशिया में अपने तेल निर्यात का भुगतान यूरो में ले रहा है। उसने किश द्वीप में एफ टीज़ेड (विदेशी व्यापार ज़ोन) पर ईरानी तेल सराफा भी खोला है। चीन के बाद सबसे अधिक कच्चा तेल भारत आयात करता है। अब भारत भी रूस से तेल आयात आईएनआर सेटलमेंट के माध्यम से कर रहा है, जिसमें यूक्रेन युद्ध के बाद से अधिक तेज़ी आयी है। 
लेकिन इस सबके बावजूद लगता नहीं है कि अमरीकी डॉलर का वर्चस्व निकट भविष्य में खत्म होने जा रहा है। इसलिए अनेक विशेषज्ञ पेट्रो आरएमबी को फिलहाल मृगतृष्णा ही मान रहे हैं। ऐसा अकारण भी नहीं है। सबसे पहली बात तो यह है कि तेल बेचने वाले देश अपने लाभ का निवेश अमरीका में नहीं करेंगे तो कहां करेंगे? चीन में विश्वास व पारदर्शिता का अभाव है। 
बहरहाल, बदलते भू-राजनीतिक हालात का लाभ उठाने की सबसे अच्छी स्थिति में भारत है। अपने तेल के अतिरिक्त मुनाफे को निवेश करने के लिए खाड़ी के देशों को जिस विश्वास व पारदर्शिता की आवश्यकता है, वह भारत उपलब्ध कराने में सक्षम है। यह देश न केवल भारतीय उत्पाद खरीद सकते हैं बल्कि स्टॉक्स, बांड्स, रियल एस्टेट, खदान आदि में भी निवेश कर सकते हैं, जोकि उनके लिए चीन में करना खतरे से खाली नहीं है। यही कारण है कि भारत सउदी अरब, यूएई सहित अनेक तेल उत्पादक देशों से व्यापार सैटलमेंट स्थानीय करंसी में करने के लिए वार्ता जारी रखे हुए है। खैर, स्थानीय करंसी में व्यापार से न केवल आईएनआर पर दबाव कम होगा व महंगाई को नियंत्रित करने में मदद मिलेगी बल्कि अमरीकी डॉलर का वर्चस्व भी टूटेगा।
-इमेज रिफ्लेक्शन सेंटर