त्रिपुरा चुनावों के प्रति उदासीन बनी रही कांग्रेस हाईकमान

 

त्रिपुरा में विधानसभा चुनाव के लिए मतदान हो चुका है। राज्य की 60 सीटों के लिए हुए चुनाव में सत्तारूढ़ भाजपा ने अपनी पूरी ताकत झोंकी। संसद का सत्र चालू होने के बावजूद प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी त्रिपुरा पहुंचे और चुनावी सभाओं को संबोधित किया। गृह मंत्री अमित शाह और रक्षा मंत्री राजनाथ सिंह भी सदन छोड़ कर त्रिपुरा में चुनाव प्रचार करते रहे। दूसरी ओर सबसे बड़ी विपक्षी पार्टी कांग्रेस का शीर्ष नेतृत्व त्रिपुरा के चुनाव को लेकर पूरी तरह उदासीन बना रहा। पार्टी की ओर से प्रदेश प्रभारी अजय कुमार ने ही पूरे समय चुनाव प्रचार की कमान संभाली। पार्टी अध्यक्ष मल्लिकार्जुन खरगे, राहुल गांधी और प्रियंका गांधी वाड्रा ही नहीं बल्कि पार्टी के दूसरे बड़े नेता भी त्रिपुरा नहीं गए। यह सही है कि कांग्रेस ने सिर्फ  13 सीटों पर चुनाव लड़ा है लेकिन अभी पूर्वोत्तर के जिन तीन राज्यों में विधानसभा चुनाव हो रहे हैं, उनमें कांग्रेस के लिए संभावना वाला एकमात्र राज्य त्रिपुरा ही है। सीपीएम के साथ तालमेल और तिपरा मोथा के अलग चुनाव लड़ने से संभावना है कि कांग्रेस और सीपीएम का गठबंधन जीत सकता है। लेकिन ऐसा लग रहा है कि कांग्रेस का शीर्ष नेतृत्व खुद ही सरेंडर किए हुए हैं या इस भरोसे में है कि सीपीएम मेहनत कर ही रही है और उसी के दम पर सरकार में आ जाएंगे। इससे यह भी ज़ाहिर हो रहा है कि राहुल गांधी की पांच महीने की पदयात्रा के बाद भी कांग्रेस में कुछ नहीं बदला है।
लोकसभा को आखिरी साल में मिलेगा उपाध्यक्ष?
17वीं लोकसभा का अब मात्र सवा साल का कार्यकाल बचा है, अभी तक इसके उपाध्यक्ष का चुनाव नहीं हो सका है। आम तौर पर लोकसभा के गठन के तीन महीने के भीतर उपाध्यक्ष का चुनाव हो जाता है लेकिन इस बार बगैर उपाध्यक्ष के ही करीब चार साल निकल गए। परम्परा के मुताबिक यह पद सबसे बड़ी विपक्षी पार्टी को दिया जाता है लेकिन मौजूदा सरकार का मान्य परम्पराओं में कोई भरोसा नहीं है। पिछली बार उसने यह पद अपनी सहयोगी पार्टी अन्ना डीएमके को दिया था। एम, थंबीदुरै उपाध्यक्ष बने थे। इस बार ज्यादातर सहयोगी दल भाजपा से अलग हो गए और अघोषित सहयोगी बीजू जनता दल तथा वाईएसआर कांग्रेस ने यह पद लेने की सरकार की पेशकश को ठुकरा दिया। बहरहाल, अब सरकार को मजबूरी में इस पद पर किसी को बैठाना पड़ सकता है। फिलहाल उसे शिव सेना से अलग हुए गुट के रूप में एक नया विकल्प उपलब्ध हुआ है। लोकसभा के आखिरी साल में उपाध्यक्ष बनाए जाने की वजह यह है कि मौजूदा लोकसभा अध्यक्ष ओम बिरला राजस्थान में भाजपा की ओर से मुख्यमंत्री पद के प्रबल दावेदार माने जा रहे हैं। कहा जा रहा है कि अगर राज्य में भाजपा जीत जाती है तो बिरला को मुख्यमंत्री बनाया जा सकता है। अगर ऐसा हुआ तो उस स्थिति में उपाध्यक्ष की ज़रूरत महसूस होगी। इसीलिए कहा जा रहा है कि राजस्थान में विधानसभा चुनाव से पहले ही लोकसभा को अपने आखिरी साल में उपाध्यक्ष मिल सकता है। 
पांच राज्यपाल पूर्वी उत्तर प्रदेश से
केंद्र सरकार की सिफारिश पर राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मू ने 13 राज्यों में नए राज्यपाल तैनात किए हैं। इनमें से कुछ नए हैं तो कुछ राज्यपालों का तबादला हुआ है। अब राज्यपालों की जो नई सूची है उसमें पूर्वी उत्तर प्रदेश का दबदबा है। उत्तर प्रदेश के पूर्वी हिस्से से कुल पांच राज्यपाल या उप-राज्यपाल नियुक्त हुए हैं। यह एक बड़ा असंतुलन है। कई राज्यों से कोई राज्यपाल नहीं है तो कई बड़े राज्यों से एक या दो राज्यपाल हैं। लेकिन उत्तर प्रदेश के एक हिस्से से पांच राज्यपाल देश के अलग-अलग राज्यों में हैं। नए राज्यपालों में दो नाम पूर्वी उत्तर प्रदेश से हैं। गोरखपुर के भाजपा नेता और पूर्व केंद्रीय वित्त राज्य मंत्री शिव प्रताप शुक्ल को हिमाचल प्रदेश का और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के चुनाव क्षेत्र वाराणसी के लक्ष्मण प्रसाद आचार्य को सिक्किम का राज्यपाल बनाया गया है। पूर्वी उत्तर प्रदेश के तीन नेता पहले से राज्यपाल या उप-राज्यपाल हैं। मनोज सिन्हा केंद्र शासित प्रदेश जम्मू-कश्मीर के उप-राज्यपाल और कलराज मिश्र राजस्थान के राज्यपाल हैं। सिन्हा और मिश्र दोनों गाजीपुर के रहने वाले हैं। आजमगढ़ के रहने वाले फागू चौहान अभी बिहार के राज्यपाल थे, अब उनका तबादला कर मेघालय का राज्यपाल बनाया गया है। पूर्वी उत्तर प्रदेश हमेशा भाजपा के लिए चुनौती वाला क्षेत्र रहा है। मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ भी पूर्वी उत्तर प्रदेश से ही आते हैं। अगले लोकसभा चुनाव को ध्यान में रख कर ही पूर्वी उत्तर प्रदेश के भाजपा नेताओं को खास महत्व दिया जा रहा है। 
ओवैसी का खेल
इस साल जिन राज्यों में विधानसभा के चुनाव होने वाले हैं, उनमें से पांच बड़े राज्य भाजपा के लिए बेहद महत्वपूर्ण हैं। इन पांच में से एक राज्य असदुद्दीन ओवैसी का गृह प्रदेश तेलंगाना भी है, लेकिन तेलंगाना से ज्यादा दिलचस्पी वह दूसरे राज्यों, खास कर राजस्थान और मध्य प्रदेश में दिखा रहे हैं। भाजपा के लिए बेहद अहम इन दोनों राज्यों ओवैसी का खेल शुरू हो गया है। उनका खेल कांग्रेस के वोट में सेंध लगाने कर अपनी पार्टी को मज़बूत करने का है। इसका प्रत्यक्ष लाभ भाजपा को मिलता है। ओवैसी यह काम कई राज्यों में कर चुके हैं। बहरहाल, राजस्थान में उनके दो कार्यक्रम हुए हैं। उन्होंने 18 फरवरी को भरतपुर में और 19 फरवरी को टोंक में अपनी पार्टी की रैली की। गौरतलब है कि टोंक कांग्रेस के दिग्गज नेता सचिन पायलट का चुनाव क्षेत्र है। जिस इलाके में ओवैसी का कार्यक्रम हुआ, वह पूरा अलवर और भरतपुर का इलाका पायलट के प्रभाव वाला है। इस इलाके में कांग्रेस के अच्छा प्रदर्शन करने की संभावना है। सो, पहले वहीं से ओवैसी ने अपना कार्यक्रम शुरू किया। ओवैसी भले ही अपने पैर जमाने के लिए काम कर रहे हों लेकिन उनको भी पता है कि अगर वह ताकत लगा कर इस इलाके में चुनाव लड़ेंगे तो कांग्रेस का नुकसान और भाजपा की जीत आसान करेंगे। फिर भी उन्होंने कांग्रेस के सबसे मज़बूत प्रभाव वाले इलाके को ही अपने कार्यक्रम के लिए चुना। 
विपक्ष को एकजुट कर रहे हैं खड़गे 
कांग्रेस अध्यक्ष मल्लिकार्जुन खड़गे को दो पदों पर बनाए रखने का कांग्रेस का फैसला सही साबित हुआ है। पार्टी ने ‘एक व्यक्ति एक पद’ के सिद्धांत का अपवाद खड़गे के लिए बनाया। वह पार्टी के अध्यक्ष हैं और साथ ही राज्यसभा में नेता विपक्ष भी हैं। संसद के बजट सत्र के पहले चरण में एक बार फिर प्रमाणित हुआ है कि खड़गे विपक्ष को एकजुट करने में कामयाब हुए हैं। उन्होंने बजट सत्र की शुरुआत से लेकर पहले चरण के आखिरी दिन तक लगातार विपक्षी पार्टियों के साथ बैठक करके अपनी रणनीति बनाई। गुलाम नबी आज़ाद के बाद जब खड़गे को नेता बनाया गया था तब से ही वह विपक्ष को बेहतर तरीके से एकजुट कर रहे हैं, लेकिन पार्टी का अध्यक्ष बनने के बाद उनका कद और बड़ा है। वह ज्यादा अधिकार के साथ अब विपक्ष की राजनीति कर रहे हैं। उनकी ही कोशिशों का नतीजा है कि उनकी हर बैठक में 15 विपक्षी पार्टियां जुटीं। यहां तक कि आम आदमी पार्टी और भारत राष्ट्र समिति के संसदीय नेता भी उनकी बैठक में शामिल हुए। अडानी के मसले पर चर्चा में भाग लेने के मसले पर भले ही आम आदमी पार्टी, भारत राष्ट्र समिति और शिव सेना के उद्धव ठाकरे गुट ने अलग स्टैंड लिया, लेकिन संसद में सरकार को घेरने और संसद भवन परिसर में प्रदर्शन करने में ये तीनों पार्टियां भी कांग्रेस के साथ रहीं। कांग्रेस के इर्द-गिर्द विपक्ष की एकजुटता बनने से कांग्रेस की मज़बूती का संदेश बन रहा है। खड़गे भी इसका फायदा उठा रहे हैं और उन्होंने सरकार के साथ टकराव बढ़ाया है।