वसंतोत्सव ने रखी होली के उत्सव की नींव

कृष्ण के श्रृंगार रस को वसंत के रंग, ध्वनि, खुशबू, मूड आदि बखूबी व्यक्त करते हैं। वसंत राजा ऋतु है। वसंत में ही प्रकृति जीवित हो उठती है, आम के पेड़ों पर बौर खिलने लगता है, रंग गहरे हो जाते हैं, प्रेम जाग उठता है, इच्छाएं तीव्र हो जाती हैं, मन में ऊर्जा भर जाती है और दिल उत्साह से मचलने लगता है। प्रकृति की सुंदरता और उसके वैभव की तुलना सिर्फ नायिका की आरजू व तमन्ना में मचल रहे दिल से ही की जा सकती है। वसंत के विभिन्न रंगों में प्रकृति का रोमांस है, उसकी चमक में आगमन व आमंत्रण है। उसके बिन बोले शब्दों में प्रेम का गीत है, उसकी हरकत में नृत्य है और उसके कम्पन में प्रेम की इच्छा है। कालिदास ने लिखा कि वसंत में प्रकृति लाल जोड़े में सजी दुल्हन बन जाती है, किंशुक फूल की तरह खिल जाती है।
प्राचीन भारत में वसंतोत्सव एक महत्वपूर्ण त्यौहार के रूप में मनाया जाता था और इसमें काम देवता की पूजा की जाती थी। काम को मनमथ भी कहते हैं यानी मन का मंथन करने वाला। तोते पर सवार होकर, अपना मछली का झंडा उठाये हुए और गन्ने के धनुष में मधुमखियों की डोर से बेपरवाह कुंवारियों पर फूलों के तीर भी प्रेम का देवता काम ही बरसाता है। वसंतोत्सव प्राचीन है और इसका उल्लेख संस्कृत साहित्य में मिलता है। हर्ष के 7वीं शताब्दी के नाटक ‘रत्नावली’ का आरम्भ वसंतोत्सव के वर्णन से ही होता है- ‘गलियों में चर्चरी गीतों के बोल व ढोलों की ध्वनियां हैं... लोग गलियों में नाच रहे हैं और सुंदर व मदमस्त महिलाएं उन पर पिचकारियों से पानी बरसा रही हैं...हवा सूखे रंग से पीली रंग गई है... सुनहरे कपड़े व सोने के आभूषण पहनी हुई महिलाओं ने अशोक फूलों की मालाएं लगाई हुई हैं... आंगन लाल हो गया है कि महिलाओं के गालों से गुलाल बिखर रहा है... दक्षिण से आ रही हवाएं आम के पेड़ों को खिला रही हैं... लड़कियां को देखकर बकुल व अशोक के पेड़ महक रहे हैं... मकरंद का बागीचा नशीली मधुमखियों व कोयल के रस भरे गीतों से गुनगुना रहा है... चंपा के पेड़ मुस्कुरा रहे हैं...महिलाएं मुंह भर-भर कर बकुल पेड़ की जड़ में शराब छिड़क रही हैं जिससे उसमें फूल खिल रहे हैं।’
‘रत्नावली’ की नायिका सागरिका को एहसास होता है कि यहां पर काम देवता की पूजा प्रत्यक्ष रूप में हो रही है जबकि कौशाम्बी में उसके पिता के घर में प्रेम के देवता की चित्र रूप में पूजा की जाती है। इसलिए यह अनुमान लगाना गलत न होगा कि प्राचीन भारत में वसंतोत्सव के पटचित्रों की रचना करना आम बात थी। कालिदास का ‘मालविकाग्निमित्र’ और मदान का ‘प्रिजाता मंजरी’ भी ऐसे नाटक हैं जो वसंतोत्सव को महिमामंडित करते हैं और इन्हें वसंत का जश्न मनाने के लिए खेला जाता था।
प्राचीन समय में वसंतोत्सव प्रेम के देवता काम का त्यौहार था जो बाद में कृष्ण की होली के रूप में मनाया जाने लगा। इस विकास के चलते श्रृंगार का किस तरह से जश्न मनता था व उसके बारे में क्या समझा जाता था के संदर्भ में बहुत परिवर्तन आया। 
-इमेज रिफ्लेक्शन सेंटर