किस सन्दर्भ में है जत्थेदार श्री अकाल तत साहिब का बयान

बहुत चुप हूं कि चौंका हुआ मैं,
न जाने लज़ किस दुनिया में ख़ोए,
तुहारे सामने गूंगा हुआ मैं।
श्री अकाल तत साहिब के कार्यकारी जत्थेदार सिंह साहिब ज्ञानी हरप्रीत सिंह के बयान के बद्दुआ वाले हिस्से ने शायद  
मुझे ही नहीं देश-विदेश में बसते सिख विरोधियों को भी चौंका दिया है। वास्तव में जत्थेदार साहिब के इस बयान के  
इतने अधिक पहलू हैं कि उनके संबंध में कई घंटों तक सोचने तथा पंजाब के कई बुद्धीजीवियों एवं पत्रकारों के साथ  
बातचीत करने के उपरांत मुझे यही प्रतीत हुआ है कि इस बयान पर विस्तृत टिप्पणी करना अभी समय से पहले की बात  
होगी। योंकि इसके कुछ पहलू तो ऐसे भी हैं जिन पर कुछ भी लिखना अभी इसलिए सभव नहीं कि इससे सिख  
विरोधियों तथा सिख समर्थकों की सोच एवं विचार भी सामने नहीं आए। इसलिए जत्थेदार साहिब का बयान आज का  
सबसे अधिक महवपूर्ण मुद्दा होने के बावजूद इस पर खुल कर लिखना जायज़  प्रतीत नहीं होता। फिर भी इस बात पर  
विचार तो करना बनता है कि ऐसी कौन-सी स्थितियां हैं, जिन्होंने श्री अकाल तत साहिब के जत्थेदार जैसा बड़े पद पर  
बिराजमान व्यति को ऐसी बात कहने पर विवश कर दिया है।
एक बात स्पष्ट है कि बद्दुआ कभी सोच-समझ कर नहीं दी जाती। बद्दुआ हमेशा मज़बूर मन एवं और कोई रास्ता न  
दिखाई देने की स्थिति में स्वयं ही दिल से निकलने वाली स्थिति होती है। एक बात को ठीक है कि जिस प्रकार एक  
तरफ केन्द्र सरकार सिखों को खुश करने के लिए अच्छे प्रयास भी करती है परन्तु वहीं दूसरी ओर वह सिख संस्थाओं को  
महवहीन करने को भी उत्साहित कर रही है।
भाजपा प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष रूप में पहले दिल्ली और अब हरियाणा में सिखों की अन्य संस्थाओं पर भी काबिज़ हो रही है  
तथा शिरोमणि कमेटी के चुनावों में भी जिस तरह अल्प-संयकों के हितों की रक्षा के लिए बनी संस्था राष्ट्रीय अल्पसंयक  
आयोग के चेयरमैन का नाम एक पक्ष की सहायता के मामले में उछलता रहा है, वह कोई अच्छी बात नहीं। चाहे इसमें  
कोई सन्देह नहीं कि ऐसी स्थिति लाने में सिख तथा अकाली नेतृत्व की भी कम ग़लतियां नहीं है तथा इससे पहले  
कांग्रेस भी सिख मामलों में कई बार हस्तक्षेप करती रही है। परन्तु सवाल उठता है कि या सिख सिद्धांत हालात का  
मुकाबला करने हेतु योजना, हौसले, संयम तथा दलील से काम लेने की प्रेरणा देते हैं या एक सताये हुए मनुष्य की तरह  
बद्दुआ देने की भी सिखी में कोई परपरा है? यह भी देखने वाली बात है कि या जत्थेदार साहिब की यह बद्दुआ सिखों का  
कुछ संवारती है या उन्हें किसी नए गभीर संकट की ओर धकेलती है?
वैसे इस बद्दुआ जैसे शदों को देखते हुए केन्द्र सरकार को ज़रूर ध्यान देना चाहिए कि सिखों के ऐसी कौन-सी समस्याएं  
हैं, जिनके कारण सिख इतना बेगानापन महसूस करने लगे हैं कि उनके सबसे बड़े पद पर बिराजमान व्यति को ऐसे शद  
उपयोग करने पड़े हैं। इसमें कोई सन्देह नहीं कि भाजपा देश की सबसे बड़ी अल्प-संयक मुस्लिम जनसंया को राजनीतिक  
रूप से पीछे धकेलने में सफल रही है तथा उनका नेतृत्व स्थिति के मुकाबला में असफल साबित हुआ है। सिखों में भी  
नेतृत्व का बिखराव है। परन्तु एक बड़ा अन्तर यह है कि देश में बहुत-से मुसलमान वह मुसलमान हैं जो बाहर से नहीं  
आए, अपितु भारतीय लोगों से ही धर्म परिवर्तन करके मुसलमान बने। यह स्वाभाविक है कि धर्म परिवर्तन करने वाले  
अधिकतर लोग या तो किसी लालच में या साारूढ़ के डर से ही धर्म परिवर्तन करने वाले लोग थे। जबकि सिख बनने  
वाले भारतियों में अधिकतर लोग वे थे, जिन्हें न तो कई लालच था (योंकि हुकूमत से टकर लेने वाला धर्म कोई लालच  
देने में समर्थ ही नहीं होता) और न ही मौत का अधिक डर था। (योंकि उस समय सिख बनने का अर्थ ही हक-सच के  
लिए जान कुर्बान करने के लिए तैयार होना था) सो, सिख चाहे संया में एक बहुत छोटा धार्मिक अल्पसंयक है, परन्तु  
इसकी अपने धर्म के प्रति प्रतिबद्धता एवं कुर्बानी देने की समर्था को बार-बार परखा जा चुका है, परन्तु यह स्पष्ट है कि  
वर्तमान युग हथियारबंद लड़ाई का युग नहीं। सिखों को उत्साहहीनता तो नहीं दिखानी चाहिए परन्तु साहिब श्री गुरु नानक  
देव जी के दिखाए मार्ग पर चलते हुए, दलील से अपनी बात रखनेे तथा उसका विश्व में प्रचार करने तथा मनवाने का  
मार्ग ही अपनाना पड़ेगा। अभी तो इस बात पर भी गंभीर विचार-विमर्श करने की आवश्यकता है कि आज जब विश्व एक  
वैश्विक इकाई (ग्लोबल गांव) बनता जा रहा है, तो सिख भी अब एक वैश्विक धर्म है। एक अनुमान के अनुसार सिख इस  
समय विश्व के लगभग ख् देशों में रहते हैं। फ् से अधिक देश तो ऐसे हैं जहां सिखों की संया हजारों में है। जबकि स्त्र  
ऐसे देश हैं जहां सिख लाखों की संया में रहते हैं, तो या वर्तमान युग सिखों को धर्म आधारित किसी देश के लिए लड़ने  
के एक धर्म एवं कौम के रूप में लाभ होगा या नुकसान?
इस मध्य कुछ ऐसी सरगोशियां भी सुनाई दे रही हैं कि अकाली दल बादल तथा शिरोमणि कमेटी श्री अकाल तत साहिब  
का पूर्णकालीन जत्थेदार नियुत करने के लिए गंभीर विचार-विमर्श कर रहे हैं। जबकि एक चर्चा यह भी सुनाई दी है कि  
मौजूदा कार्यकारी जत्थेदार ज्ञानी हरप्रीत सिंह भी इन्हें कोई ऐसी चेतावनी दे चुके हैं ताकि उन्हें श्री अकाल तत साहिब का  
पूर्णकालीन जत्थेदार नियुत किया जाए, नहीं तो वह फ्क् मार्च के बाद इस प्रकार कार्यकारी जत्थेदार के रूप में कार्य करने  
से असमर्थ होंगे। अब तक लोग जत्थेदार साहिब के बयान के अर्थ को इन चर्चाओं की रौशनी में भी देख रहे हैं। जबकि  
जत्थेदार साहिब द्वारा इतने वर्षों बाद अकाली दल को पूंजीपतियों की पार्टी बन जाने की बात कहना भी इसी संदर्भ में  
देखा जा रहा है।
खैर जत्थेदार साहिब का मणिकरण साहिब में घटित हुई घटना तथा श्री आनंदपुर साहिब में एक एन.आर.आई. सिख  
नौजवान की हत्या बारे सिख नौजवानों के व्यवहार एव घटनाक्रम के संबंध में चिन्ता का प्रकटावा करना प्रशंसनीय कदम  
है। परन्तु उन्हें सिर्फ सोचने के लिए कहने पर ही नहीं रुक जाना चाहिए बल्कि क्रियात्मक रूप में भी कौम की  
आवश्यकताओं बारे कुछ करना चाहिए। उन्हें अपने पहले दिए निर्देशों पर क्रियान्वयन करवाने की ओर भी ध्यान देने की  
ज़रूरत है, यदि वह ऐसा नहीं करते तो इससे श्री अकाल तत साहिब जैसी बड़ी संस्था की प्रतिष्ठा पर प्रभाव पड़ता है। वैसे  
भी जत्थेदार अकाल तत साहिब का पद बयानबाज़ी करने वाला नहीं समझा जाता। जबकि पिछले दशकों की परपरा तो  
यही रही है कि जत्थेदार अकाल तत साहिब या तो कौम को आदेश देते हैं या संदेश देते हैं। यहां अमीर कज़लबास की  
एक ग़ज़ल का शे'अर चरिथार्त होता है :
नज़र में हर दुश्वारी रख,
व़ाबों में बेदारी रख।
सोच समझ कर बातें कर,
लज़ों में तहदारी रख॥
-मो. 92168-60000